बड़े भैया, केदारा गाइये

लेखक – किशनसिंह चावडा (जिप्सी)
किताब – अंधेरी रात के तारे

एकादशी और पूर्णिमा के दिन मैं पिताजी के साथ गुरुद्वारे जाया करता था। शाम को भजन होता था। मेरी उम्र उस समय चौदह-पन्द्रह वर्ष की रही होगी। भजन में गुरु महाराज खुद मृदंग बजाते थे। पिताजी करताल बजाते और गिरधर चाचा झाँझ बजाने में सिद्धहस्त थे। पिजाजी की आवाज बुलंद थी, पर स्वर की मधुरता में गिरधर चाचा बेजोड़ थे। भजन की रंगत में जब शब्द तिरोहित हो जाते और झाँझ, करताल एवं मृदंग के ध्वनिविलास द्वारा केवल सुरों का साम्राज्य छा जाता, तब पिताजी अपनी बुलंद आवाज का हवाला गिरधर चाचा को सौंप कर करताल में ही मस्त हो जाते और फिर प्रेमीभक्त गिरधर चाचा की आवाज जो लीला-विस्तार करती, उसका माधुर्य अब भी मेरी स्मृति में जीवित है।

ग्यारह, साढे-ग्यारह के करीब गुरु महाराज मृदंग को गोद से उतार कर मंदिर में दीपसंकर्शण के लिए जाते, तब कुछ देर के लिए मध्यांतर होता। इस विराम के बाद उनकी आज्ञा से मृदंग मेरे सुपुर्द किया जाता। मृदंग का मुखलेप यदि सूख कर सख्त हो गया होता, तो मैं उसे नरम करने के लिए किया जाने वाला लेपन करता और वह लेपन समप्रमाण में फैलते ही गुरुजी गरदन हिला कर अनुमति देते। इसे उनका आशीर्वाद और अपना रक्षाकवच मानकर मैं मृदंग को गोद में जमाकर रखता और साखी शुरू हो जाती। गिरधर चाचा अपनी मधुर आवाज में कहते, “बड़े भैया, केदारा गाइये।” पिजाजी केदार की साखी छेड़ते और देखते – देखते पहले साखी और फिर केदार के स्वर पूरे वातावरण में गूंज उठते। पिताजी की बुलंद और गहन – गंभीर आवाज में गाये जाने वाले केदार के साथ मृदंग बजाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त होता था, वह मेरे लिए जीवन की सब से गौरवपूर्ण बात थी। मेरा बालमन प्रफुल्ल हो उठता और कभी-कभी तो इस सम्मान से मैं गद्गद हो जाता।
आधी राज बीते हम घर लौटते, तब पिताजी माँ को शुभ समाचार सुनाते, “तुम्हारे बेटे ने कमाल कर दिया। इसका हाथ सुधरता जा रहा है।” पिताजी जैसे संगीत पारखी से गुणग्राहकता का इनाम पाकर मैं सुख की नींद सो जाता।

गिरधर चाचा जाति से तमोली थे, पर सब्जी – भाजी बेचने का धंधा करते थे। वे और उनकी पत्नी रुक्मिणी चाची सुबह दस बजे ही खाना खा कर खेत पर चले जाते और शाम को छः बजे लौटते। रात को भोजन करके हमारे यहाँ आते समय कुछ सब्जी – भाजी लेते आते। पिताजी दो – चार भजन गाते। कुछ देर दोनों की गपशप होती और ग्यारह बजे वे चले जाते। सुबह पाँच बजे उठ कर सब्जीमंडी जाते और पिछली रात को खेत से लायी हुई सब्जी –भाजी बेचकर आठ बजे तक वापस आ जाते। नहा – धोकर खाना खाकर, दस बजे फिर खेत में – यही उनका नित्यक्रम था। संतान में उनके सिर्फ एक लड़की थी, जिसका विवाह हो चुका था। अब पति पत्नी पसीना बहाकर गुजारा करते थे और बाकी का समय ईश्वर भजन और सत्संग में बिताते थे।
उस रोज गुरुपूर्णिमा का दिन था और गुरुद्वारे में भजन का ठाठ कुछ अलग ही था। अशोक के पत्तों के बंदनवार और फूलमालाओं से मंडप सजाया गया था। बिछात नयी थी और गुरु महाराज के गद्दी-तकिये भी नये। बैठक पर दूध-सी सफेद चद्दर बिछायी गई थी। मंदिर में राम सीता और लक्ष्मण की सफेद संगमरमर की मूर्तियों का वेश परिधान और सिंगार भी आज विशेष शोभापूर्ण किया गया था। पास ही चौकी पर स्वर्गीय बड़े गुरुदेव की तस्वीर रखी गई थी। उसके चारों ओर घी के दिये जलाये गए थे।

भजन के समय गुरु महाराज की थाप मृदंग पर पड़ी। करताल खनखनायी, झांझ झनक उठी और पिताजी ने साखी छेडी:

गुरु गोविंद दोनों खडे, किसको लागूं पाय,
बलिहारी गुरुदेव की, गोविंद दियो मिलाय।


‘सियावर रामचंद्र की जय’ के साथ भजन का आरंभ हुआ। आज गिरधर चाचा की आवाज़ में उनके स्वाभाविक माधुर्य के उपरांत भक्ति – गद्गद हृदय का आत्म-निवेदन भी समाया हुआ था। बीच – बीच में पिताजी की भक्तिरस में डूबी बुलंद तान अंतर को भेद कर गहरी उतर जाती थी। आज झांझ की झनकार, करताल के कलरव और मृदंग के लाल में एक अपूर्व बेसुधी छायी हुई थी।

साढ़े ग्यारह बजे। गुरु महाराज दीपसंकर्शण के लिए उठे। कुछ समय के लिए विराम घोषित हुआ। मैंने मृदंग संभाला। सूखा हुआ आटा बदल कर ताजा आटा लगाया। थाप शुद्ध होते ही गुरूदेव की आंखों ने अनुज्ञासूचक संकेत किया। भक्तों और भजनी मंडली ने अपने-अपने स्थान गहण किये। गिरधर चाचा हमेशा पिताजी के पास बैठते थे। बरसों मैं यही देखता आ रहा था। आज गुरु महाराज ने खुद साखी कहकर भजन का प्रारंभ किया।

गिरधर चाचा ने हमेशा की आदत के अनुसार चेहरे पर स्मित लाकर अपनी मोटी आवाज में पिताजी से कहा, “बड़े भैया, कैदार गाइये।” एक क्षण के लिए पिताजी का चेहरा उतर गया। फिर कुछ गंभीरता से बोले, “गिरधर भाई, आज केदारा तुम गाओ।” यह सुन कर गिरधर चाचा को आश्चर्य अवश्य हुआ होगा, पर पिताजी के प्रति उन्हें इतनी गहन श्रद्धा थी, कि उनकी बात में मीनमेख निकालना तो दूर रहा, उनकी आज्ञा का कारण पूछने का विचार भी उनके मन में नहीं आया होगा। चाचा ने साखी कहकर केदार के सुर छेड़ दिये। धीरे – धीरे केदार का वातावरण जम गया। शब्द तिरोहित हो गये। चाचा का आरोह ऊपर उठा, करताल खनक उठी, झांझ झानझना उठी। मैंने भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर मृदंग का लाल संभाला। केदारा समाप्त हुआ। पिताजी ने चाचा की पीठ ठोंकी। गुरु महाराज ने मेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया। आरती हुई, प्रसाद बंटा, चरण स्पर्श हुए, भजन की धुन बंद हुई और गुरुपुर्णिमा का उत्सव समाप्त हुआ।

घर आ कर पिताजी ने माँ से उत्साहपूर्ण स्वर में कहा, “आज फिर तुम्हारे बेटे कमाल किया। केदार का ताल सही-सही संभाला। अब इसका हाथ बैठ गया है।” माँ ने मुझे छाती से लगा कर बलैयाँ लीं। दोनों की चरणरज लेकर मैं सो गया।

दूसरे दिन मंडी मे सब्जी बेच कर गिरधर चाचा सीधे हमारे घर आये। रोज तो रात को आते थे। सुबह तभी आते जब कोई महत्वपूर्ण काम होता। आये तब पिजाजी स्नान कर रहे थे। वो माँ के पास बैठे। माँ के प्रति गिरधर चाचा को बड़ी ममता थी। अपनी इस बड़ी भाभी के लिए उनके मन में माता से भी अधिक स्नेह और सम्मान की भावना थी और माँ भी गिरधरभाई से परिवार की गोपनीय बातें भी निस्संकोच होकर कर सकती थी। वह जानती थी, कि इन दोनों मुँहबोले भाइयों के बीच सगे भाइयों से भी अधिक निर्व्याज स्नेह संबंध था, जो दोनों की मैत्री को चरिचार्थ करता था।

पिजाजी नहाकर बाहर आये। गिरधर चाचा को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ, लेकिन उसे छिपाकर पूछा, “क्यों गिरधरभाई, आज सुबह – सुबह कैसे?” गिरधरचाचा चुप रहे। पिताजी जैसे कुछ समझ गये। माँ चाचा के लिए दूध ले आयी। पिताजी ने कुछ नाश्ता बना लाने को कहा। माँ के जाते ही गिरधर चाचा ने कुछ दबी हुई आवाज से पूछा, “भैया, कल केदारा क्यों नहीं गाया? छोटे भाई की शपथ है। सच-सच कहना।”

“गिरधरभाई कसम नहीं दिलायी होती, तो भी सच – सच ही कहता। हमारे गांव के मुरारीभाई कल आये थे, उनका पांचसौ रुपये का कर्ज है। मैंने कहा, कि अगले वर्ष दूंगा। उनके मन में कुछ शंका रह गयी, इसलिए मैंने आश्वासन दिया, कि रुपये नहीं चुकेंगे, तब तक केदारा नहीं गाऊंगा। बस इतनी सी बात है। केदारा गिरवी रख दिया है।” पिताजी ने जिस निस्संकोच भाव से बात कही, उससे गिरधर चाचा के चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी।

फिर दोनों मित्रों में कुछ देर तक गपशप होती रही। गिरधर चाचा घर गये और उसी रोज चिट्ठी लिखकर मुरारी भाई को बुलाया। वे उन्हीं के घर ठहरे और चाचा ने पांचसौ रूपये चुका कर रसीद लिखवा ली। फिर उन्हें लेकर हमारे घर आये। मुरारी भाई ने पिताजी से सब बात कही। उस रोज को सब का भोजन हमारे ही यहाँ हुआ। देर तक बातें होती रही। बड़ा आनंद आया।

एकादशी आयी। गुरुद्वारे में भजन का आरंभ हुआ। नियमानुसार साढ़े ग्यारह बजे गुरू महाराज दीपसंकर्शण के लिए उठे। विराम के बाद मृदंग मैंने संभाला। मृदंग पर थाप पड़ते ही गिरधर चाचा ने सस्मित वदन से स्नेहमिश्रित आवाज़ में कहा, “बड़े भैया, केदारा गाइये।” और पिताजी ने केदार की साखी छेड़ दी। केदार शीघ्र ही जम कर छा गया। करताल की वही खनकार, झांझ की वही झनकार, गिरधर चाचा का वही मोहकर और मधुर पंचम का स्वर और पिताजी की बुलंद आवाज का वही वैभव। उस दिन ऐसा लगा, कि सुर की बैठक अलग – अलग होने पर भी इन दोनों मित्रों की आवाज में कितना साम्य है। मानो मित्रता की गूंज स्वरों में भी प्रतिध्वनित हो रही हो।

आज भी वह आवाज़ याद है। खूब याद है। आज वह आवाज़ नहीं रही, किन्तु आलंबन मेरी स्मृति में सुरक्षित है।


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