रामायण के बालकाण्डम् के पंचम सर्गः के नवें श्लोक में वाल्मीकि जी कहते हैं कि राजा दशरथ ने अयोध्यापुरी को ‘धर्म’ और ‘न्याय’ के बल पर बसाया है। यह है ‘भारतीय मानस’। किसी नगर को बसाने हेतु मुख्य तत्व ‘धर्म’ और ‘न्याय’ हैं। स्वभाविक है, कि यहाँ ‘धर्म’ से तात्पर्य किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं है और ना ही यहाँ किसी न्यायपालिका की बात हो रही है। अगले श्लोक में अयोध्या के बारे में कहा गया है, कि पुरी बड़े-बड़े फाटकों और किवाड़ों से सुशोभित है और उसके भीतर पृथक-पृथक बाजार हैं, जहाँ सभी प्रकार के यंत्र और अस्त्र-शस्त्र संचित हैं। उस पुरी में सभी कलाओं के शिल्पी निवास करते हैं; अर्थात् अयोध्या नगर में यंत्र, अस्त्र-शस्त्र और कला की अनेक विधाओं के शिल्प सभी कुछ संरक्षित है। अयोध्या में कारीगर समाज की समृद्धि का अनुमान राम को मनाने के लिए चित्रकूट जा रहे भरत की वनयात्रा में भी मिलता है।
इस यात्रा में अयोध्या के समस्त मंत्रीगणों, पुरोहितों, गुरुजनों और प्रजा के प्रमुख सम्मानित जन शामिल होनी की बात कही गई है। यात्रा की प्रथम पंक्ति में सभी मंत्री व पुरोहित चल रहे हैं, उनके पीछे नौ हजार सुसज्जित हाथी चल रहे हैं, साठ हजार रथ हैं, जिनमें नाना प्रकार के आयुध से सुशोभित धनुर्धर विराजमान हैं। एक लाख घुड़सवार भी इस यात्रा में शामिल हैं। इस यात्रा में साथ चल रही 21 कामगार जातियों का वर्णन है। ब्राह्मण आदि आर्य (त्रैवर्णिक) तो यात्रा में शामिल हैं ही, इनके साथ नगर की इन सम्मानित जातियों के लोग भी शामिल हैं :-
1. मणिकार (मणियों को सान पर चढ़ाकर चमका देने वाले)
2. कुम्भकार
3. सूत का ताना-बाना करके वस्त्र बनाने की कला के विशेषज्ञ
4. शस्त्र निर्माण करके जीविका चलाने वाले
5. मायूरक (मोर के पंखों से छत्र-व्यंजन आदि बनाने वाले)
6. आरी से चन्दन आदि की लकड़ी चीरने वाले
7. मणि- मोती आदि में छेद करने वाले
8. रोचक (दीवारों और वेदी आदिमें शोभा का सम्पादन करने वाले)
9. दन्तकार (हाथी के दाँत आदि से नाना प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करनेवाले) सुधाकार (चूना बनाने वाले)
10. गन्धी
11. प्रसिद्ध सोनार
12. कम्बल और कालीन बनाने वाले
13. गरम जल से नहलाने का काम करने वाले
14. वैद्य
15. धूपक (धूपन-क्रिया द्वारा जीविका चलाने वाले)
16. शौण्डिकः (मद्यविक्रेता)
17. धोबी
18. दर्जी
19. गाँवों तथा गोशालाओं के महंत
20. स्त्रियों सहित नट, केवट
21. समाहित चित्त सदाचारी वेदवेत्ता के साथ अनेक सहस्र ब्राह्मण बैलगाड़ियों पर चढ़कर वन की यात्रा में भरत के साथ चल रहे थे।
इससे पूर्व भरत की वनयात्रा की तैयारी करने के लिए ऊँची-नीची एवं सजल-निर्जल भूमि का ज्ञान रखने वाले, सूत्र कर्म (छावनी आदि बानने के लिए सूत धारण करने वाले) में कुशल, मार्ग की रक्षा करने वाले शूर-वीर, भूमि खोदने वाले या सुरंग आदि बनाने वाले, जल के प्रवाह को रोकने वाले कारीगर, थवई, रथ व आदि यंत्र बनाने वाले, बढ़ई, पेड़ काटने वाले, रसोइये, चूने से पोतने वाले, बाँस की चटाई व सूप आदि बनाने वाले, चमड़े का चारजाम आदि बनाने वाले तथा रस्ते की विशेष जानकारी रखने वाले सामर्थ्य शाली पुरुषों ने यात्रा शुरु होने से पहले ही प्रस्थान किया।
इन समस्त कारीगरों व कामगारों ने इस विशाल यात्रा के मार्ग का निर्माण किया, इसका वर्णन भी वाल्मीकि जी ने किया है। वे अपने श्लोकों में कहते हैं, जहाँ वृक्ष नहीं थे, वहाँ वृक्ष लगाये गए, जहाँ रास्ता नहीं था, वहाँ रास्ता बनाया गया, ऊँचे-नीचे पहाड़ों को समतल किया गया, जहाँ पुल बांधने की आवश्यकता थी, वहाँ पुल बांध दिया गया, जहाँ बांध की आवश्यकता थी, वहाँ बांध बना दिया गया, जिस भूमि पर कंकर अधिक थे, उसे ठोक-पीटकर मुलायम कर दिया गया, छोटे-छोटे जलस्रोतों को बांधकर बड़े जलाशय बना दिए गए, बहुत कम समय में उन्होंने अनेक सरोवर तैयार कर दिये, वे अगाध जल से भरे होने के कारण समुद्र के समान दिखते थे। निर्जल स्थान पर बड़े कुँए और बावड़ी बना दी गयी। इस प्रकार सेना का वह मार्ग देवताओं के मार्ग की भाँति शोभा पाने लगा। चूना-सुर्खी और कंकर को बिछाकर व पीटकर मार्ग को पक्का कर दिया गया। मार्ग के दोनों ओर फूलों के वृक्ष लगा दिये गये। मार्ग को पताकाओं से सजा दिया गया। चन्दन मिश्रित जल का छिड़काव किया गया। मार्ग में अनेक विश्राम स्थल बना दिये गये। जिनमें इन्द्रनील मणि से बनी हुई प्रतिमाएँ सजाई गयी थी। इस प्रकार भरत की वनयात्रा के लिए बड़े-बड़े राजमार्गों का निर्माण किया गया। यात्रा हेतु इस प्रबन्धन का वर्णन अद्वितीय है।
हम रामायण को हमेशा एक कथा के रूप में पढ़ते या सुनते आये हैं, लेकिन इसमें अनेक प्रकरण ऐसे हैं, जिनसे उस काल में भारतीय मानस के प्रबन्धन कौशल और संचार कौशल की एक झलक मिलती है। यहाँ क्योंकि सन्दर्भ केवल अयोध्या है, इसलिए कुछ एक विशेष प्रकरणों की ही चर्चा की जा रही है।
यहाँ दिये गये श्लोकों में महर्षि वाल्मीकि यह वर्णन भी करते हैं, कि अयोध्या के ये सभी नागरिक श्री राम के मिलन हेतु अत्यन्त हर्ष के साथ एक-दूसरे का आलिंगन करते हुए यात्रा कर रहे हैं। सभी ने सुन्दर वेश व वस्त्र धारण किये हुए हैं, अंगों पर तांबे के समान लाल रंग का अंगराग लगा हुआ है। ये लोग बैलगाड़ियों में अथवा नाना प्रकार के वाहनों में यात्रा कर रहे हैं। बाह्मण व अन्य समस्त जातियों का वर्णन एक श्लोक में बिना किसी भेदभाव के किया गया है। उससे उस काल की समृद्ध वर्ण व्यवस्था का भी एक परिचय मिलता है। सभी जातियों को समाज के अनिवार्य अंग के रूप में दिखाया गया है।
हम आधुनिक मानसिकता से नियंत्रित हैं, इसलिए हमें श्लोकों के वर्णन में जातियाँ दिख रही हैं, समृद्धि दिख रही है, अन्यथा यह उस काल के एक नगर का, उसके नागरिकों का, उस समय की समाज व्यवस्था का सहज वर्णन मात्र है, इसमें अतिशियोक्ति लेश मात्र भी नहीं है।
वाल्मीकि जी बालकाण्डम् के पंचम सर्गः में ही आगे कहते हैं, कि अयोध्यापुरी में स्तुति पाठ करने वाले सूत और वंशावली का बखान करने वाले मागध भरे हुए हैं। वह पुरी सुन्दर शोभा से सम्पन्न है। उसकी सुष्मा की कहीं तुलना नहीं है। वहाँ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ हैं, जिनके ऊपर ध्वज फहराते हैं। उस पुरी में ऐसी बहुत नाटक मण्डलियाँ हैं, जिनमें केवल स्त्रियाँ ही नृत्य करती हैं। उस नगरी के चारों ओर उद्यान और आम के बागीचे हैं। लम्बाई और चौड़ाई की दृष्टि से वह पुरी बहुत विशाल है तथा साखू (साल) के वन उसे सब ओर से घेरे हुए है। वहाँ के महलों का निर्माण नाना प्रकार के रत्नों से हुआ है। वे गगनचुम्बी प्रासाद पर्वतों के समान जान पड़ते हैं। महलों में सोने का पानी चढ़ाया गया है। पुरवासियों के घरों से उस नगर की आबादी इतनी घनी हो गयी थी, कि कहीं थोड़ा सा भी अवकाश नहीं दिखायी देता था। यह नगरी समतल भुमि पर बसी थी। वह नगरी जड़हन धान के चावलों से भरपूर थी। वहाँ का जल इतना मीठा व स्वादिष्ट है, मानो ईख का रस हो।
यह 5000 से 7000 वर्ष या उससे भी अधिक पूर्व भारत के एक नगर का वर्णन है। नाटक मण्डलियाँ हैं, जिनमें सिर्फ स्त्रियाँ ही नृत्य करती हैं, ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ हैं, उद्यान और आम के बागीचे हैं, महलों का निर्माण रत्नों और स्वर्ण से हुआ है, आबादी घनी है, धान और पर्याप्त स्वच्छ पेयजल की एक भरी-पूरी व्यवस्था है, समाज कारीगरों से परिपूर्ण है। अयोध्या के इस वर्णन से हम यह अनुमान तो लगा ही सकते हैं, कि रामायण काल में भारत का वैभव अपने चरम पर रहा होगा, इस वैभव को मापने के जो मानक थे, जैसे धर्म और न्याय, कला और शिल्प, नाटक और नाटक मण्डलियाँ और उनमें स्त्रियों की भूमिका आदि आदि हमारे वर्तमान मानकों से एकदम विपरीत हैं, जबकि वही मानक हमारी समृद्धि के प्रतीक रहे हैं।
वाल्मीकि रामायण के षष्ठ सर्गः में उस नगरी में रहने वाले नागरिकों का वर्णन और भी अधिक रोचक है। वाल्मीकि जी कहते हैं, ‘उस उत्तम नगर में निवास करने वाले सभी मनुष्य प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत, निर्लोभी, सत्यवादी और अपने धन से संतुष्ट रहने वाले हैं।’ अगले श्लोक में कहते हैं, उस श्रेष्ठ पुरी में रहने वाले समस्त कुटुम्बियों के पास उत्कृष्ट वस्तुओं का संग्रह पर्याप्त मात्रा में है तथा उनके धर्म, अर्थ और काममय पुरुषार्थ सिद्ध हो गये हैं। सभी के पास पर्याप्त मात्रा में गाय-बैल, घोड़े, धन-धान्य आदि उपलब्ध हैं।
वहाँ के सभी स्त्री-पुरुष धर्मशील, संयमी, सदा प्रसन्न रहने वाले तथा शील और सदाचार की दृष्टि से महर्षियों की भाँति निर्मल हैं। वहाँ कोई भी कुण्डल, मुकुट और पुष्पहार से शून्य नहीं है। किसी के पास भी भोग सामग्रियों की कमी नहीं है। कोई भी ऐसा नहीं हैं जो नहा-धोकर साफ-सुथरा न हो, जिसके अंगों में चन्दन का लेप न हुआ हो तथा जो सुगन्ध से वंचित हो। वहाँ कोई भी अपवित्र भोजन करने वाला, दान न देनेवाला, मन को काबू में न रखने वाला मनुष्य दिखायी नहीं देता है। वहाँ निवास करने वाले ब्राह्मण सदा अपने कर्मों में लगे रहते हैं, उनकी पाँचों इन्द्रियाँ उनके वश में रहती हैं। वे सदा दान और स्वाध्याय करते हैं तथा प्रतिग्रह से बचे रहते हैं। वहाँ कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो किसी दूसरे व्यक्ति में दोष ढूंढ़ता हो। वहाँ कोई भी असमर्थ या विद्याहीन नहीं है। वहाँ ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोग देवता और अतिथियों के पूजक, कृतज्ञ, उदार, शूरवीर और पराक्रमी हैं।
नागरिकों के गुणों को ऐसा व्याख्यान, 5000 वर्ष या उससे भी पूर्व के भारतीय मानस को दर्शाता है, धन होना एक गुण है, लेकिन ‘धन से संतुष्ट रहना’ अद्भुत है। यह समृद्धि का वर्णन है, यहाँ ‘पैसे, रुपये या मुद्रा’ का कोई जिक्र नहीं है। ‘पैसे, रुपये या मुद्रा’ आधुनिक युग में रचित एक काल्पनिक समृद्धि है, जिसका कोई एक मूल्य नहीं है। यह समय व स्थान के अनुसार परिवर्तित होती है और पूरी तरह राज्य के नियंत्रण में रहती है। जिस समृद्धि का वर्णन आयोध्या के नागरिकों के सन्दर्भ में हो रहा है, वह सदेव एक सी रहती है; उदाहरण के लिए धान का मूल्य हमेशा एक सा रहता है, वह समय या स्थान के साथ बदलता नहीं है। इसलिए जड़धन के धान को समृद्धि के मानक के तौर पर देखा गया है। आज जब हम उस धान के मूल्य को मुद्रा में आँकते हैं, तो यह बदलने लगता है। धान का वास्तविक मूल्य किसान के नियंत्रण में है, लेकिन मुद्रा आधारित काल्पनिक मूल्य राज्य और बाजार के नियंत्रण में है।
धर्मशील, संयमी, सदा प्रसन्न रहने वाले, निर्मल जनों के इस प्रकार के गुणों का वर्णन, आज के परिदृश्य में अकल्पनीय है। स्वच्छता उस समय का एक प्रमुख गुण है। अपने मन को काबू में रखना, इन्द्रियों को वश में रखते हुए दान और स्वाध्याय करना आदि को प्रमुख गुण के रूप में देखा जा रहा है। इससे हमें उस काल के मनुष्य के प्राथमिक गुणों की एक झलक मिलती है, जो कि अद्भुत है। आज के आधुनिक सन्दर्भों में तो हमारा मानस इस प्रकार नियंत्रित है, कि हम इस दिशा में सोच भी नहीं सकते।
वाल्मीकि रामायण और अन्य समस्त सनातन साहित्य में ‘भारतीय मानस’ को देखने व उसे समझने के अनेक सूत्र मौजूद हैं। आवश्यकता है, इस सम्पूर्ण साहित्य का उस विशेष दृष्टि से अध्ययन हो, शोध हो। वर्तमान में काल करवट ले रहा है। अयोध्या में ‘राम’ विराजमान होने जा रहे हैं। ‘भारतीय मानस’ के पुनरुद्धार का समय है। संभवतः यही वह समय भी है जब ‘भारतीय मानस’ को वृहद स्तर पर वर्तमान सन्दर्भों के साथ आत्मसात करने की सहज स्वीकार्यता सुदृढ़ हो और इसके लिए हमारे समाज की और उसके भीतर स्थापित संस्थाओं की तैयारी हो। इस पुनरुद्धार के साथ ही भारतवर्ष सम्पूर्णता से खड़ा होगा और वास्तव में एक नये भारत का निर्माण होगा।
अनिल मैखुरी
सिद्ध, मसूरी, उत्तराखंड
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