वैश्विक चुनौतियाँ एवं भारतीय मार्ग पर आधारित वैश्विक दृष्टि : भाग (३/३)

गतांक से चालू। भाग २ यहाँ पढ़ें।

‘सनातन सत्य’ अर्थात ‘जो है’ उसे देखना और उसमें जीना। इसे अनुभव की एक विशेष अवस्था प्राप्त हो जाने के पर साक्षात देखा गया है। यहाँ मानव नियंत्रक नहीं है बल्कि वह तो मात्र ‘दृष्टा’ है। उसके भीतर ही कहीं असीम शक्ति का स्रोत है जिस तक उसे पहुँचना है। यही मानव के जीवन की यात्रा है। इस शक्ति को ईश्वर, मोक्ष, आत्मा आदि कहा गया है। उस तक पहुँचने के लिए ही संसारिक जीवन के विभिन्न कर्म सम्पादित ‘होने हैं’। कर्म, प्रकृति द्वारा पूर्व निर्धारित है। अर्थात मनुष्य कर्ता नहीं है, कर्मों के घटित होने का दृष्टा मात्र है। इस दृष्टि के आधार पर तमाम सांसारिक व्यवस्थाएँ निर्मित हुई होंगी। यहाँ अधिकार व नियंत्रक की भाषा ही नहीं है। यह तो कर्तव्य, कृतज्ञता, तपस्या, आस्था, धर्म आदि शब्दों की भाषा है। यहाँ प्रकृति ही सत्य है और वह ईश्वर का प्रतिरूप है। उसे जीतना नहीं है उसके प्रति अपने धर्म द्वारा निर्धारित कर्म का निर्वाह करना है।  

वर्तमान में विश्व के विभिन्न मानव समुदाय अनार्किस्ट, लिबरल, मार्क्सवादी, कम्यूनीज़म, कंसर्वेटिव, फेमिनिस्ट, सोशल लिबरल, समाजवादी, राष्ट्रवादी आदि प्रमुख दृष्टियों से प्रभावित हैं। यह सभी दृष्टियाँ मानव केन्द्रित मनःस्थित और विचार की कृत्रिम अवधारणाओं पर आधारित हैं। इसकी चर्चा हम शुरुआत में कर चूके हैं। इसलिए यह सभी एक दूसरे भिन्न दिखने के बावजूद एक दूसरे की सहयोगी ही हैं। इनमें से एक भी दृष्टि में प्रकृति के सनातन नियमों को कैसे देखें, इस पर कोई मंथन नहीं है। यह सभी दृष्टियाँ अलग-अलग तरह से भौतिक जगत से प्रेरित विचार का ही प्रतिनिधत्व करती हैं। इन्हें अस्तित्व में मनुष्य के सिवा कुछ दिखता ही नहीं। जैसा पहले भी कहा गया है कि भारतीय संस्कृति में मनुष्य कर्ता नहीं है बल्कि उसके धर्म के अनुसार हो रहे कर्मां का दृष्टा मात्र है। स्वयं को प्रकृति का ही एक अंश स्वीकार करता है। प्रकृति, ईश्वर से व्यापत है। मनुष्य, हमेशा ईश्वर के सामने नतमस्तक है। इस अवधारणा की एक झलक इस एक श्लोक में देखी जा सकती है :- 

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।

अर्थात, ‘जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ उनका संग्रह न करे।’ यह भारतीय चित्त का प्रतिनिधि श्लोक है। यह किसी शोध से उद्घाटित हुआ तथ्य नहीं है और ना ही किसी दृष्टि विशेष से प्रभावित है। बल्कि यह सनातन सत्य है। जिसे भारतीय ऋषियों ने तपस्या के दौरान देखा है। कहीं से खोजा नहीं है। इसी प्रकार वेदों में एक अन्य श्लोक है : 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।

अर्थात, ‘यह जगत उस पूर्ण परब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है। इससे यह जगत अपने आप में पूर्ण है। और जिस परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्णता को प्राप्त हुआ हुआ वह परब्रह्म भी अपने आप में परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।’ इस श्लोक के गहन अर्थ हैं जिसे किसी भी शोध से सिद्ध नहीं किया जा सकता। अस्तित्व में कभी भी किसी भी वस्तु का आभाव नहीं होता। यह एक सनातन सत्य है। सभी कुछ, सभी रूपों में परिपूर्ण है। यह समृद्धि की घोषणा है। इसके आधार पर यह सत्य उद्घाटित होता है कि प्रत्येक स्थिति, समृद्धि की स्थिति है। कुछ नया नहीं पाना है। जहाँ हैं, जैसे हैं – वैसे ही समृद्ध हैं, पूर्ण हैं। इसके बाद भी कुछ मिल गया जो कि मिलता ही है तो समृद्ध ही रहेंगे और कुछ चला भी जायेगा तो भी समृद्ध ही रहेंगे। यहाँ किसी भी प्रकार के विकास की परिकल्पना ही नहीं है। जो है जैसा है पूर्ण विकसित है। गीता मे भगवान श्रीकृष्ण स्वयं के बारे में घोषणा करते हुए कहते हैं : 

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।

अर्थात, ‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश – ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार – यह आठ प्रकार के भेदों वाली मेरी ’अपरा’ प्रकृति है। हे महाबाहो! (अजुर्न) इस अपरा प्रकृति से भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी ’परा’ प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।’ यह भगवान श्री कृष्ण की सिर्फ स्वयं के बारे में घोषणा नहीं है बल्कि यह सम्पूर्ण मनुष्यों के सम्बन्ध में घोषणा है। आठ प्रकार की ‘अपरा प्रकृति’ को जानने के मार्ग में अनेक सत्य उद्घाटित होंगे जो एक नवीन व भारतीय अर्थों में आधुनिक विश्व दृष्टि प्रदान करेंगे। हमारा धर्म यही है कि हम इस ओर देखने की जिज्ञासु प्रवृत्ति स्वयं में जागृत करें और फिर उस दृष्टि के अनुसार एक नवीन ‘सैद्धान्तिक ढ़ाचा’ निर्मित करें। हालाँकि यह भी मनुष्य का अपना एक उपक्रम ही होगा। हम सनातन सत्यों को कितना जान पायेंगे यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। लेकिन हमारी चेतना में यह विचार तो आना ही होगा कि मनुष्य को जो कुछ भी जानना है वह इसलिए नहीं कि उसे अपनी सुविधाओं को बढ़ाना है या स्वयं को अमर बनाना है। बल्कि इसलिए जानना है क्योंकि उसे प्रकृति में अपनी भूमिका को समझना है क्योंकि वही उसका धर्म है जिसे धारण करना ही उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। और यही उसके मोक्ष का मार्ग भी है। इस दृष्टि से देखने जायेंगे तो मौजूदा सभी भाषा व परिभाषायें बदल जायेंगी और फिर उसी दिशा में बदलती रहेंगी। एक बार निर्मित हुआ सैद्धान्तिक ढांचा भी इस परिवर्तन के चलते बदलता रहेगा। यह परिवर्तन ही वास्तव में मानव के चित्त, उसकी चेतना और प्रकृति के साथ उसके सम्बन्धों का विकास होगा। इससे प्रकृति भी संपन्न होगी और मनुष्य की चेतना भी सम्पन्नता को प्राप्त होगी। हमारे विश्वविद्यालयों व शोध संस्थानों को सनातन सत्यों पर आधारित विश्व दृष्टि निर्मित करने हेतु कार्य प्रारम्भ करना चाहिए। जानेमाने विद्धान भीखू पारिख ने भारतीय राजनैतिक दृष्टि की दरिद्रता के कारणों का अपने एक लेख में विस्तार से वर्णन किया है। वे कहते हैं ‘किसी भी समकालीन गैर-पश्चिमी समाज ने, यहाँ तक कि जापान ने भी, अधिक मौलिक राजनीतिक सिद्धांत का निर्माण नहीं किया है।’’ भारत के बारे में बात करते हुए वे कहते हैं कि ‘ किसी भी प्राचीन हिन्दू, जैन और बौद्ध द्वारा प्रतिपादित राजनीति पर आधारित साहित्य को पुनर्निर्मित या उसके आधार पर कोई नया सिद्धान्त गढ़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। यहाँ तक कि भारत की राजनैतिक विचार परम्पराओं को संग्रहित करने का भी कोई प्रयास कहीं नहीं दिखता है। पारम्परिक भारतीय राजनीतिक विचार की संरचना और उनकी मान्यताओं पर कहीं कोई विचार हुआ हो व वह किस प्रकार विश्व के अन्य विचारों से भिन्न हैं यह दिखाने का चुनौतीपूर्ण प्रयास भी कहीं हुआ नहीं दिखता।’ भीखू पारिख जी की बात बहुत हद तक सटीक है लेकिन यहाँ हम आनन्द के. कुमारस्वामी, ए.के. सरन, धर्मपाल जी, रविन्द्र शर्मा, सीता राम गोयल, राम स्वरुप आदि विचारकों को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। आज आवश्यकता है इनके द्वारा किये गये कामों के अगले चरण के रूप में भारतीय संस्कृति में निहित सनातन सत्यों पर आधारित एक नवीन ‘भारतीय वैश्विक दृष्टि’ विकसित करने की। जिसमें सम्पूर्ण जीव-जगत का कल्याण समाहित हो और मनुष्य को उसके मूल धर्म का भान हो। उसका जीवन मोक्ष प्राप्त करने की ओर प्रवृत्त हो। इस प्रकार भारतीय दृष्टि अपनाने पर वर्तमान चुनौतियों का मूल ही विनष्ठ जायेगा और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ पर आधारित विश्व का प्रादुर्भाव होगा और भारत को उसकी प्राचीन विश्व गुरु की प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त होगी।

समाप्त |


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