वैश्विक चुनौतियाँ एवं भारतीय मार्ग पर आधारित वैश्विक दृष्टि : भाग (१/३)

वर्तमान विश्व में व्याप्त तमाम तरह की चुनौतियों पर सतही स्तर के कई विचार दिए जा सकते हैं, हालाँकि यदि वास्तव में विवेचना की जाए, तो हम पायेंगे कि ‘मनुष्य की मनःस्थिति’ अथवा ‘दृष्टि’ ही वर्तमान परिस्थितियों की सबसे प्रमुख कारक रही है। धारणाएँ और मान्यताएँ वे प्रमुख तत्व हैं, जिनसे मनोस्थिति निर्मित होती है। दूसरी ओर हमें प्रकृति में स्थापित सनातन व्यवस्थाओं को भी देखना होगा। सम्पूर्ण अस्तित्व में तमाम तरह की प्राकृतिक व्यवस्थाओं में एक प्रकार का अनुशासन व्याप्त है, जोकि पृथ्वी पर जीवन को फलित करने हेतु सर्वानुकूल है और सतत सहयोगी है। प्रकृति की इन्हीं व्यवस्थाओं के अन्तर्गत मनुष्य को यह स्वतंत्रता प्राप्त है, कि वह अपनी इन धारणाओं और मान्यताओं द्वारा निर्मित मनःस्थिति के अनुसार अपने संसार का निर्माण करे। वर्तमान की समस्त वैश्विक चुनौतियाँ, मनुष्य द्वारा निर्मित इस संसार की ही परिणति हैं। अतः विवेचना का प्रारम्भिक बिन्दु संभवतः यह हो सकता है, कि वर्तमान संसार को निर्मित करने वाली मनुष्य की धारणाएँ, मान्यताएँ और उनसे जनित मनःस्थिति को निर्धारित करने वाले आधारों का अध्ययन करने का प्रयास किया जाए।

वर्तमान में हम तथाकथित आधुनिक युग में जी रहे हैं। यहाँ मनुष्य स्वयं को सर्वशक्तिमान मानता है और स्वयं को ‘नियंत्रक’ की भूमिका में देखता है। इस दृष्टि से तो सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण, जीव-जगत का संरक्षण, सम्पूर्ण मानवता का संरक्षण, समय का निर्धारण, सत्य, न्याय, धर्म आदि सभी कुछ का निर्धारण मनुष्य को ही करना है। राष्ट्र, राज्य व विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ मनुष्य की विभिन्न मान्यताओं के आधार पर विकसित हुई हैं। विभिन्न सम्प्रदाय व सभ्यताएँ भी समय-समय पर मनुष्य द्वारा प्रकट हुए विचारों और तत्कालीन भौगोलिक अनुकूलता या प्रतिकूलता के ही परिणाम हैं। ये सब मिलकर ही मनुष्य का आधुनिक संसार बनता है।

आधुनिक दृष्टि से निर्मित तमाम तरह की व्यवस्थाएँ एक प्रकार के भय व असुरक्षा के भाव से घिरी हुई दिखती हैं। वर्तमान में मनुष्य को जीवन के प्रत्येक आयाम में असुरक्षा महसूस हो रही है और उसको लेकर तरह-तरह के सुरक्षा उपाय विकसित किये गये हैं। ‘सुरक्षा’ एक बहुत बड़ा व्यापार भी बन चुका है। इसमें चाहे भौगोलिक सुरक्षा हो, आंतकवाद से सुरक्षा हो, साइबर सुरक्षा हो, पर्यावरण क्षति से सुरक्षा के उपाय हों, सामान्य स्वास्थ्य बनाये रखने हेतु तरह-तरह की जीवन प्रणालियों को अपनाने हेतु किए जा रहे उपाय हो आदि सभी के पीछे मूलतः असुरक्षा और भय की ही भावना है। यह भय की भावना वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी चुनौती है। यह भय किससे है और किसके द्वारा निर्मित है? इनमें से लगभग सभी भय या तो मानव से हैं या फिर मानव द्वारा निर्मित संस्थाओं से हैं। इस स्थिति के लिए मनुष्य की कौन सी धारणाएँ व मान्यताएँ जिम्मेदार हैं उसके बारे में ईमानदारी से विवेचना करेंगे, तो लेखक के अनुसार मानव सभ्यता के कुछ महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को उल्लेख किया जाना आवश्यक होगा।

आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व, मनुष्य जाति की सोच ने बड़ी करवट ली, जिसकी परिणति में ईसाई सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई। ईसाईयत की मूल अवधारणाओं में से एक प्रमुख यह है, कि ईश्वर ने मानवता की कल्पना की और उन्हें सारी पृथ्वी पर अधिकार दिया, जिसमें शामिल है समुद्र की मछलियाँ, आकाश में उड़ने वाले पक्षी, समस्त पालतू जानवर और पृथ्वी पर चलने व रेंगने वाले समस्त जीव। बाइबल के अनुसार भगवान ने मानवता को आशीर्वाद दिया और उन्हें यह निर्देश दियाः फूलोफलो और बढ़ो। पृथ्वी को आबाद करोमैं तुम्हें अपनी संपत्ति (सम्पूर्ण प्रकृति) का ट्रस्टी बनाता हूँ, इसलिए मेरी सृष्टि की देखभाल करो और अपने जैसे सभी निवासियों के साथ पृथ्वी और आकाश पर शासन करो।  पश्चिमी जगत के वैज्ञानिकों की ही माने तो भी ईसा से लगभग 2500 वर्ष पूर्व पृथ्वी पर मानव सभ्यता की शुरुआत हो चूकी थी। (हालाँकि हिन्दु मान्यताओं के अनुसार यह सरासर भ्रमपूर्ण गणना है। वहाँ समय की अवधारणा ही पूरी तरह भिन्न है। हाल ही में शोधार्थी व लेखक निलेश निलकंठ ओक ने अपने वैज्ञानिक अध्ययनों से यह दावा किया है कि राम और रावण का युद्ध ईसा से 12,209 वर्ष पूर्व हुआ था।) उस समय की मानव सभ्यता पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर रही होगी और और स्वयं को उसका अंग मान कर चलती होंगी, लेकिन ईसाई सम्प्रदाय ने इस मान्यता को पूरी तरह से बदल दिया और मानव को यह संदेश दिया, कि तुम समस्त प्रकृति के मालिक हो, स्वामी हो और तुम्हें शासन करने का अधिकार प्राप्त है’। ईसा से लगभग 600 वर्ष बाद, ईस्लाम का उदय हुआ। यहाँ भी मानव को प्रकृति से इतर विशेष गरिमा प्राप्त है। उनके अनुसार ईश्वर ने मानव को अन्य समस्त सृजनों के बीच एक विशेष दर्जा देने का निर्णय किया है। सर्व शक्तिमान परमेश्वर ने मानवों में अपनी दिव्य आत्मा का कुछ हिस्सा दिया है। ज़मीन और आसमान और इनकी तमाम नेअमतें अल्लाह तआला ने इंसानों के लिये पैदा की और यह उसका अपने बन्दों पर बहुत बड़ा एहसान है।’ भले हम आज किसी भी सम्प्रदाय या विश्वास को मानने वाले हों, लेकिन हमारी मनःस्थिति को इन दो सम्प्रदायों के प्रभाव ने पूरी तरह बदल गया। विश्व भर में बड़े जन समुदायों ने इन सम्प्रदायों के विश्वास को अपना लिया और यह दृष्टि विकसित होती चली गयी, कि मनुष्य सर्वोपरी है उसे ही सभी कुछ के उपभोग करने का अधिकार प्राप्त है और वह ही नियंत्रक है। इस मनःस्थिति के चलते उनकी पूर्व की सभी मान्यताओं व धारणाओं में तरह-तरह की विकृतियाँ दिखने लगीं और भले एक बड़ा जनसमुदाय उन्हें अपनाता रहा हो, लेकिन उन पर विश्वास डगमगाने लगा, हालाँकि इस पूरी प्रक्रिया में शताब्दियों तक चले संघर्षों की अनेक गाथाएँ मौजूद हैं – उसके विस्तार में हम यहाँ नहीं जायेंगे। भारत में तो संभवतः यह प्रक्रिया लगभग 500-600 वर्ष पहले ही शुरू हुई। 1000 वर्ष पहले विदेशी आक्रांताओं ने इसकी शुरुआत की व औपनिवेशिक काल ने इसे गति प्रदान कर संस्थागत रूप प्रदान किया। इस दौरान भारत के जनमानस की मान्यताएँ बदलीं और विशेषकर सत्ता प्रतिष्ठानों की मनःस्थिति संकुचित होती चली गयी। परा-अपरा शक्तियों पर विश्वास से इतर मानव दृश्य जगत को सत्य मानने लगा। यहाँ ‘मानने लगा’ यह बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें ‘है’ अथवा ‘नहीं’ का प्रश्न ही नहीं है, जो परिस्थितियों के वश बुद्धि से समझा जायेगा, वही मान लिया जायेगा। ‘सत्य’ क्योंकि दृश्य जगत से परिभाषित होने लगा, इसलिए ‘सनातन सत्य’ को जानने और देखने की जिज्ञासा लगभग समाप्त होती चली गयी।

2000 वर्ष पूर्व हुए वृहद परिवर्तनों से ‘सत्य’ का निर्धारण मानव द्वारा होने लगा। ‘जो है’ उस तक पहुँचने की कोई जिज्ञासा नहीं, बल्कि मानव के विचारों द्वारा एक कल्पित व आभासी संसार का सृजन। इससे मानव स्वयं को सर्वशक्तिमान ‘मानने’ लगा। तथाकथित सर्वशक्तिमान मानव स्वयं को किसके सामने साबित करता। प्रकृति तो स्वयं में व्यवस्थित है, विचारहीन होते हुए भी जीवन्त है। उसके सामने तो मनुष्य आज भी अबोध ही है, इसलिए प्रकृति के सम्मुख तो मानव कुछ साबित नहीं कर सका, लेकिन सबित तो करना था। परिणामस्वरूप मनुष्य के समूहों के बीच संघर्ष बढ़ने लगे। इन संघर्षों ने जन्म दिया विभिन्न विचारधाराओं व सिद्धान्तों को। इन विचारधाराओं व सिद्धान्तों ने विश्व को राष्ट्र और राज्यों की सीमाओं में समेटना प्रारम्भ किया। सीमाओं से भय का वातावरण निर्मित हुआ और विराट सेनाओं की तथा उनके आधुनिकतम हथियारों की अंधाधुंध प्रतिस्पर्धा सामने आयी।

(क्रमश:)


Posted

in

by

Tags:

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.