‘अनुपम’ अनुपम का जीवन वृतांत

“ईश्वर से जो कुछ मांगो, सावधानी से मांगना चाहिए,” अनुपम मिश्र कहा करते थे। “जो आप मांगो वह बहुत बार मिल भी जाता है, लेकिन फिर यह आभास भी होता है कि जो मांगा वह पर्याप्त नहीं था। धन–दौलत और सफलता मांगने से, मेहनत करने से, मिल भी जाती है; फिर उसकी तुच्छता का एहसास भी होता है और शिकायत भी। फिर भांति–भांति के बाबा–गुरुओं के पास जा कर उस शांति को तलाशना भी पड़ता है, जो पहले ही सहज रूप से मिल जाती।”

अनुपम मिश्र कुछ ऐसे इने–गिने लोगों में थे, जिन्होंने ईश्वर से, प्रारब्ध से, जो कुछ मांगा – वह बहुत ऊंँचा था। वह उन्हें मिला भी। उसके साथ उन्हें वह सब हाँसिल हुआ, जिसे पाने के लिए उन्होंने न तो कभी इच्छा की और न कोशिश ही की। क्या मांगा था उन्होंने? अच्छे लोगों से घनिष्ठ संबंध और अच्छे सामाजिक कामों में योगदान। बस, और कुछ नहीं। वे कम साधनों में संतुष्ट रहने वाले व्यक्ति थे।

उन्हें मिला क्या? दुनिया भर में फैले प्रियजनों का एक लंबा–चौड़ा संसार, अपार सम्मान और प्रेम, तरह–तरह की महफिलों का दिल जीत लेने वाले वक्ता की ख्याति, अगणित पाठकों का मन छू कर उसे बदल देने की ताकत, अपने सौंदर्य बोध से बड़े–बड़े कलाकारों को सहज ही रिझाने और अपनी ओर आकर्षित करने की असाधारण क्षमता। बहुत से लोग उन्हें लाखों में बिकने वाली किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लेखक के रूप में जानते हैं, लेकिन यह उनकी शख्सियत का एक पहलू भर था, एक छोटा सा पहलू।

आपको देश के कोने–कोने में ऐसे लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि सामाजिक दृष्टि से पर्यावरण का काम करने की प्रेरणा उन्हें अनुपम मिश्र से ही मिली। ऐसे लोग आपको हिंदी के संसार से दूर, दक्षिण भारत के हिस्सों में भी मिलेंगे, हालांकि अनुपम मिश्र केवल हिंदी में काम करते थे। हमारे यहांँ जल प्रबंध के पारंपरिक तरीकों को जानने वाले और भी हैं, लेकिन उन्हें जैसा अनुपम मिश्र ने समझा वैसा आपको कहीं और नहीं मिलेगा। जैसा वर्णन उसका उन्होंने किया, वैसा वर्णन तो आपको कहीं भी नहीं मिलेगा। 1970 के दशक में उत्तराखंड में उभरे ‘चिपको आंदोलन’ के वे शुरुआती हरकारे थे, जिन्होंने गांँव वालों के संघर्ष और पराक्रम का किस्सा बाकी देश तक पहुंचाया।

जिन आंँखों से अनुपम मिश्र ने पर्यावरण और उसके सामाजिक संस्कार को समझा वह आंँख उनकी अपनी ही थी। वह आंँख किसी ऐसे व्यक्ति की ही हो सकती थी, जिसे कहीं जाने की, कहीं पहुंचने की जल्दी नहीं थी; किसी तरह की हड़बड़ी नहीं थी। जिसमें छोटी–से–छोटी जगह पहुंचने के लिए तैयारी करने का पर्याप्त समय था। जिसमें अपने–आप को किसी भी अच्छे काम में झोंक देने और फिर उसे अच्छे से करने की बाजीगरी थी। फिर उस काम के श्रेय को किसी और को सौंप कर दूसरे लोगों को तैयार करने का अपरिग्रह भी था।

इतने गुण किसी ऐसे ही व्यक्ति में हो सकते हैं, जो बहुत भारी चीजों को भी आसानी से उठा कर अपनी मस्ती में चल सकता है। बात–बात में अनुपम मिश्र लोगों से कहा करते थे, “किसी बात को बोझा मत बनाओ। जो भी करो, खेल–खेल में करो।” वे ऐसे ही, चलते–फिरते, आते–जाते, उठते–टहलते इतना गहरा और गंभीर काम कर गए, कि 19 दिसंबर को हुए उनके देहांत के बाद से श्रद्धांजलियों का तांता लगा हुआ है।

इतना गहरा काम इतने हल्के हाथ से अगर कोई व्यक्ति करे, तो यह निश्चित है, कि उसके अंदर असाधारण संतुलन है। यह संतुलन अनुपम मिश्र में पैदाइशी था। उनके माता–पिता दोनों ही गांधी विचार और देसी सामाजिक जीवन में रमे हुए लोग थे। उनका जनम वर्धा के जिस महिलाश्रम में हुआ था, वह गांधीजी के सेवाग्राम के पास ही है। उनके पिता भवानी प्रसाद मिश्र हिंदी कविता के प्रसिद्ध नामों में से हैं, जिनकी पहचान एक सामाजिक कार्यकर्ता की भी थी और स्वतंत्रता सेनानी की भी।

इस विरासत का अनुपम मिश्र पर असर खूब गहरा था, पर इसका बोझ उनपर एकदम नहीं था। सन् 1969 से ले कर उनकी मृत्यु तक वे गांधी शांति प्रतिष्ठान में ही काम करते रहे। ऐसे आप कितने लोग जानते हैं जिन्होंने एक संस्थान की सेवा में अपना जीवन काट दिया हो? यहां पर उनके दफ्तर में देश भर से आए हुए लोग ऐसे बेबाकी से घुस जाते थे, जैसे उनके अपने घर जा रहे हों। दु:ख–सुख से लेकर देश–दुनिया–ब्रह्मांड तक की बातें होती रहती थीं, अनुपम मिश्र अपने अनेक काम भी साथ–साथ करते रहते थे। किसी उस्ताद कारीगर की कुशलता के साथ, एक हल्के, कोमल हाथ से, जो बहुत गहरे सामाजिक भाव के ईंधन से चलता रहता था। ऐसे न जाने कितने होंगे जो उन पर अपना जन्मजात अधिकार मानते हैं, क्योंकि वे इतने सब संबंध प्यार से निभाते थे।

उनसे मिलने के लिए नियमित रूप से ऐसे मानसिक रोगी भी आते थे, जिन्हें उनके अपने घर–परिवार ने तज दिया था। अनुपम मिश्र उनसे भी ऐसे ही मिलते थे जैसे वे किसी मंत्री या बड़े उद्योगपति से मिलते थे। उन विक्षिप्त लोगों में ऐसे भी हैं, जिन्हें दुनिया में किसी भी दूसरे व्यक्ति पर भरोसा नहीं है, वे अपने मन की बात केवल अनुपम मिश्र से ही कहते थे। गंभीर से गंभीर मंत्रणा को रोक कर अनुपम मिश्र उनसे कुछ खुफिया बात करने बाहर चले जाते थे, जितनी हो सके उतनी मदद भी वे उनकी करते थे, लगातार। वापस कमरे में आ कर सभी को याद दिलाते थे, कि मानसिक असंतुलन एक लॉटरी है, किसी भी दिन किसी की भी खुल सकती है।

कबीर के एक दोहे में पर्यावरण का एक अनन्य पाठ हैः “जो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ के मैली कीनी चदरिया। दास कबीरा जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।” 69 सालों तक अनुपम मिश्र ने दुनिया को एक चादर की तरह ओढ़ा। जब यह चादर उतार कर वे कैंसर के हवाले हुए, तो उनकी चादर पहले से ज्यादा साफ थी, पहले से ज्यादा बड़ी थी, पहले से ज्यादा सुंदर थी। ऐसा आप कितने लोगों के बारे में कह सकते हैं?

[ ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका के 4 जनवरी 2017 के अंक में यह लेख छपा है ]


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