ayodhya

अयोध्या का पुनर्निर्माण?

निर्माण सदा एक चुनौतीभरा कार्य होता है, पुनर्निर्माण उससे भी अधिक। जगत् का निर्माण करने वाले ब्रह्मा भी इसके लिये तप करते हैं और प्रलय के पूर्व की सृष्टि को पुनर्निर्माण का आधार बनाते हैं।

अयोध्या भी इन दिनों पुनर्निर्माण की चुनौतियों का सामना कर रही है। श्रीरामजन्मभूमि के पुनरुद्धार की यात्रा इस देश की अस्मिता, आस्था और सांस्कृतिक मूल्यबोध की यात्रा बनकर पीढ़ियों तक चली है। प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान पर भव्य मन्दिर का निर्माण अयोध्यावासियों के साथ-साथ भारतवासियों के स्वप्न साकार होने जैसा है। इस चिरप्रतीक्षित निर्माण ने देश भर में सनातन धर्मियों का मस्तक गर्व से उन्नत कर दिया है। अयोध्या समेत भारत इसकी सर्वतः अभ्यर्थना कर रहा है, परन्तु इस सपने के साकार होने के क्रम में बैरागियों की इस सराय के कई सपने टूटते से लगते हैं।

यदि मुझे भ्रम नहीं हो रहा है, तो त्याग, वैराग्य और उपासना की राजधानी अयोध्या की जिस चौखट पर भक्त-श्रद्धालु निर्मल मन से माथा टेककर निर्भयता पाते थे, उस पावन चौखट की लकड़ी में भी घुन लगने लगे हैं।

मन्दिर निर्माण के साथ पुनर्निमाण का दंश झेलती रामनगरी अयोध्या की आवाज इतनी दुर्बल है, कि सोच के सन्नाटे में गये बिना इसे सुना भी नहीं जा सकता। यहाँ बहुत सम्भव है, कि अपेक्षित नैसर्गिक आवश्यकताओं और विश्वस्तरीय विकास के ढाँचे के थके और बासी तर्क के साथ लोग इन परिस्थितियों का समर्थन करें। हमें भी कई बार अपनी झेंप मिटाने के लिये ऐसा करना पड़ता है, क्योंकि इस झेंप की स्थिति से निकलने का कोई मार्ग नहीं सूझता। फिर भी, सजनी कहाँ लौं चन्दा हाथनि दुराइबो

यहाँ ये बात भी साफ रहे, कि यह विषय सड़कें चौड़ी होने और निम्न-मध्य आय के लोगों के विस्थापित होने की आर्थिक-सामाजिक चिन्ताओं भर का नहीं है। उसके अनेक विकल्प हैं, जो कभी पहले तो कभी पीछे अपनाये ही जाते हैं।

यह विषय सात मोक्षदायिनी पुरियों में एक, धरती के वैकुण्ठ, मानवता की प्रथम पुरी और महाराज मनु की राजधानी अयोध्या के अचानक पर्यटन केन्द्र में बदल जाने की दुश्चिन्ता की है। एक प्रचलित संस्कृत सूक्ति के आधार पर कहें तो यह “विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम्” (विनायक बनाते-बनाते वानर बना दिया) की आशंका है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामराज्याभिषेक के प्रसंग में वनवास को केन्द्र करके कहा, कि बना तो रहे थे चन्द्रमा पर बन गया राहु-“लिखत सुधाकर लिखि गा राहू।”

नवग्रह वेदिका का निर्माण करने वाले पण्डितजन अवगत हैं, कि दोनों में कितना कम अन्तर है। अयोध्या-विकास पर केन्द्रित एक बैठक में सम्मिलित होने पर एक बार मैंने अपनी अप्रगल्भता का परिचय देते हुए एक प्रश्न पूछ लिया था कि ‘तीर्थ’ शब्द का क्या अर्थ है। क्षण भर में अपने इस प्रश्न का अनौचित्य अनुभव कर लिया था, तबसे कुछ संकोच में ही रहता हूँ।

तथापि यह वेदना असह्य हो रही है, अतः यथासाध्य नम्रता से व्यक्त कर रहा हूँ और जिन्हें ऐसी बातें नकारात्मक और नापसन्द लगती हैं, उनसे क्षमा-याचना करता हूँ, कि ‘छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई।’ दुर्जनों से क्षमा माँग नहीं सकता, वे करने भी क्यों लगे।

सहस्रधारा तीर्थ से एक योजन पूर्व और एक योजन पश्चिम लम्बाई और सरयू से तमसा तक की चौड़ाई वाली अन्तर्गृही अयोध्या को सरयू कितने अंश में प्राप्त हैं, यह इस पर्यटन सिटी की चिन्ता नहीं है।

यमस्थल, चक्रतीर्थ, ब्रह्मकुण्ड, कौशल्या घाट, केकयी घाट और सुमित्रा घाट जैसे तीर्थ कैसे अवैध आबादी बने हुए हैं, यह भी इसकी चिन्ता नहीं है। इस पर्यटन पुरी की निष्ठा अयोध्या की दुर्नियति की भाँति कभी न सुधरने वाली राम की पैड़ी में है, जहाँ सेल्फी खिंचाने के लिये धनुर्धर श्रीराम की प्रतिमा खुले आसमान के नीचे लगी है।

‘रामं छत्रावृताननम्’ कहने वाले आदिकवि महर्षि वाल्मीकि को कदाचित् ये कल्पना भी न रही हो, कि आदर्श मनुष्य कहकर श्रीराम की ईश्वरता छीनने वाले लोग उनके सर से उनका पैतृक छत्र भी उतार लेंगे।

आश्रमों का नगर, साधुओं का नगर, सहज मानवीय मूल्यों का नगर अचानक अप्रासंगिक हो उठा है। बात चल पड़ी है शहरी विकास की, पंच सितारा संस्कृति की और लग्जरी की। मुझे पता नहीं लग्जरी का ठीक-ठीक हिन्दी अनुवाद क्या होगा।

भय और आशंका से भरे हुए लोगों का मौन अनुभव करके श्रीराम के वनवास की स्थितियाँ याद आती हैं, कि “दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं।” यात्री सुविधाओं , मल्टीलेवल पार्किंग, एयरपोर्ट और चौड़ी सड़कों वाली दिलफरेब अयोध्या में यात्री आकर करेंगे क्या ! यह फिलहाल अतिप्रश्न है।

स्वप्नशील होकर देखें, तो सोच सकते हैं कि, ऑनलाइन बुकिंग कर लाइन में लगेंगे, (सरयूतट नहीं) रिवरफ्रण्ट पर सेल्फी लेंगे, क्रूज पर घूमेंगे, होटलों की विश्वस्तरीय सर्विसेज का सुख भोगेंगे और पंचकोसी, चौदहकोसी या चौरासीकोसी की वार्षिक यात्रा वाली अयोध्या के सर पर हेलीकॉप्टर में बैठकर मँडरायेंगे, या शायद कुछ और भी करें , जिसका अनुमान मुझे नहीं हो पा रहा।

अपने जीवन के प्रारम्भिक दिनों से, अर्थात् लगभग तीस वर्षों से अयोध्या में जीते हुए, अयोध्या को जीते हुए मेरी चिन्तायें पर्यटन सिटी से मेल नहीं खातीं, यह मेरी निजी कठिनाई भी हो सकती है, पर क्या ये नहीं सोचा जाना चाहिए, कि बैरागियों, आचारियों, उदासियों, लश्करियों, जमातियों, मधुकरियों और ऐसी दर्जनों अन्य पहचानों का क्या होगा। समय के ताप से सूखती जाती सरयू को बाँध बनाकर लबालब दिखाया जा सकता है, क्रूज चलाया जा सकता है पर उसकी जलधारा को, जो श्रीराम के प्रेम की भी धारा है, अविरल करने का प्रयास नहीं किया जा सकता।

विकसित होता हुआ विश्व जिस युग में पर्यावरण सन्तुलन की बात कर रहा है, हरित ऊर्जा को अपना भविष्य मान रहा है और विश्व की श्रेष्ठतम नौकाओं को सौर ऊर्जा पर निर्भर करना चाह रहा है तब अयोध्या के सरयूतट की मछलियाँ मोटरचालित नावों के पंखों से घायल होकर घबराकर भाग रही हैं और मानसरोवर से आता सरयू का जल, जिसे द्रवरूप श्रीराम कहा गया है उसमें कच्चा और जला हुआ ईंधन घुल रहा है।

विकास की इस दुर्निवार गति में नौकायन के लिये चप्पू वाली नावों की सम्भावना व्यर्थ हो रही है।

वायुयानों से होने वाले प्रदूषण पर जब विश्व चिन्ता कर रहा है तो अयोध्या के आसमान में लोगों को मौज कराने के लिए हेलीकॉप्टर गड़गड़ा रहे हैं। अयोध्या के पक्षियों का आसमान भी अब उनका न रहेगा।

मुझे नहीं पता, कि मैं यह सब किससे कह रहा हूँ, या इस अरण्यरोदन का क्या फल होगा। दोनों ही हो सकते हैं, कोई इस दुःख को दूर करने आ सकता है, या कोई सिंह-व्याघ्र मेरी आवाज से उद्विग्न हो मेरा भक्षण कर सकता है।

मुझे बारम्बार ये सोच घेर लेती है, कि पुनः विकसित होने की साँसत में पड़ी इस अयोध्या के विश्वकर्मा या विक्रमादित्य कौन हैं? किसने उन्हें खोयी हुयी अयोध्या का परिचय कराया है? श्रीरामजन्म भूमि को उन्मत्त लोक की क्रीड़ाभूमि बनाने का दायित्व वस्तुतः किसपर है?

सरयू, सन्त और संस्कृति के विलोपन के बाद जो अयोध्या उभरेगी क्या वो भी रामपुरी ही होगी!

गोप्रतार से बिल्वहरि तक अविरल सरयू, अन्तर्गृही अयोध्या में साधुओं के ठट्ठ, छोटे-बडे़ मन्दिरों की जगमगाती श्रेणियों के बीच नक्षत्रमण्डल में चन्द्रमा की भाँति शोभायमान श्रीरामजन्मभूमि क्या अयोध्या का स्वप्न नहीं हो सकता।

हजारों वर्षों से भिक्षा माँगकर बृहत्तर भारत से आये दर्शनार्थियों को नि:शुल्क भोजन-आवास देते आश्रम, धीरेन्द्र ब्रह्मचारी जैसा शिष्य देने वाले गुरु, राहुल सांकृत्यायन को विद्यार्थी बना कर रखने वाले विद्यालय, स्वामी विवेकानन्द को अभिभूत करने वाले महान्त, कम्पनी सरकार को शरणागत कर लेने वाले साधक, राजाओं को किंकर बना लेने वाले सन्त क्या निर्मित होती अयोध्या का अंग हैं!

सर्वविदित है, कि निर्माण के कुछ मूल्य चुकाने पड़ते हैं, सर्वविदित है, सो मुझे भी पता है, किन्तु मूल्य वही होता है, जिसे चुका कर आप बचे रहते हैं। जिस मूल्य के बदले आप स्वयं चुक जायें, वह मूल्य नहीं अभिशाप है। देवताओं के सम्मुख वाहन पर बैठकर गुजर जाने को जहाँ पाप कहा जाता हो, वहाँ हेलीकॉप्टर से अयोध्या-दर्शन का विचार किसने और क्यों दिया, ये मेरे लिये कल्पनातीत है। अलबत्ता इससे एक चमकता हुआ बाजार उभरेगा।

ठेके और कमीशन की कूटयोजना से डीपीआर बनाने वाले सरकारी गैरसरकारी अभियांत्रिक जगत् को अयोध्या की समझ और चिन्ता कितनी है यह भी एक चिन्ता है।

अयोध्या की परम्पराएँ , उसकी प्रतिज्ञाएँ , उसका अयोध्याशाही मिजाज – सब दाँव पर है और हम रो भी नहीं सकते, उसे असगुन मान लिया जायेगा।

मैं पुनः दोहराते हुए उपराम होता हूँ कि, श्रीरामजन्मभूमि का निर्माण भग्न हुये भारतपुरुष की प्राणप्रतिष्ठा है, किन्तु अयोध्या को अयोध्या न रहने दिया जाय, तो क्या श्रीराम यहाँ रह पायेंगे !

पुनश्च ! सहमति असहमति दोनों का स्वागत है यदि संवाद की मुद्रा में हो। यह किसी पर आरोपण नहीं है और कोई वैचारिक हठ भी स्वीकार्य नहीं।

यदि इस लेख से किसी की भावना आहत होती हो तो पुनः क्षमाप्रार्थी हूँ।


Posted

in

by

Tags:

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.