गरीबी के इतिहास में छिपी समृद्धि की अर्थव्यवस्था (भाग २/३)

आस्था भारद्वाज 

रुपेश पाण्डेय

भाग १ को यहाँ पढ़ें।

आक्रमणकारी मुगलों के साथ आये ‘गरीब’ ने लम्बे कालखंड में निर्धनता को बहिष्कृत कर उसका स्थान लिया, जिसे अंग्रेजी सत्ता ने संस्थागत रूप प्रदान किया। भारत की वर्तमान गरीबी के स्रोत के रूप में हमें 18वीं सदी में बंगाल में आये अकाल को याद रखने की जरूरत है। 1778 में ब्रिटेन के उदारवादी दल के सदस्य एडमंड बर्के ने भारत में तत्कालीन बंगाल के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स और ईस्ट इंडिया कंपनी पर महाभियोग लगाया। सात वर्षों तक इस पर बहस चलती रही। बर्के का आरोप था कि हेस्टिंग ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अव्यवस्थित करने का काम किया है।

इतिहासकारों का मानना है, कि हेस्टिंग और उसके बाद कार्नवालिस ने मुगलों द्वारा शुरू की गयी ज़मींदारी (मनसबदारी) को कंपनी की अर्थव्यवस्था मजबूत करने के नाम पर जिस तरह से संस्थागत रूप दिया उससे बंगाल में भारी अकाल आया जिसका बुरा असर बंगाल ही नहीं पूरे भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। जमीनदारी की यह व्यवस्था ब्रिटिश शासन के अंतिम दिनों तक जारी रही। कारीगरों और किसानों पर भारी लगान (टैक्स) लगाकर अनाजों और धन की जैसी लूट की गयी वह अकाल की दस्तक थी। भारतीय अर्थव्यवस्था में सरकारी तंत्र द्वारा टैक्स वसूली की पद्धति की यह शुरुआत थी। हमें इसे समझने की जरूरत है। वर्तमान की गरीबी का यह इतिहास है। इसी इतिहास में गरीबी दूर करने का समाधान भी है।

अंग्रेजों द्वारा शुरू की गयी टैक्स पद्धति, बैंकिंग व्यवस्था की मजबूती के साथ अनेक रूपों और नामों से आज भी जारी है। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने तीव्र विकास के लिए अर्थव्यवस्था का जो ढांचा बनाया, उसमें बड़े कारखानों के लिए तो जगह थी, लेकिन किसानों और कारीगरों के लिए कोई जगह नहीं थी, आज भी नहीं है।

कारीगरी आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था को तोड़ने का जो सिलसिला 18 वीं सदी में अंग्रेजों ने शुरू किया था, वह 19वीं सदी में एक महामारी का रूप ले चुका था, जिसमें हज़ारों-लाखों नहीं, करोड़ों कारीगरों और उनके परिवारों की भूख के कारण मौत हुई। सबसे ज्यादा मार कपड़ा बनाने वाले कारीगरों पर पड़ी। उसी दौरान अंग्रेजों ने देश के गंगीय क्षेत्रों – पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, आज के झारखण्ड और बंगाल में कपास की खेती करने वाले किसानों को जबरदस्ती नील और अफीम की खेती में लगाया। अफीम के कारखाने लगाये गए, जिसका माल सबसे ज्यादा चीन में निर्यात किया गया। इसी कालखंड में भारतीय अर्थव्यवस्था कारीगरी, उद्योंगों से कृषि की ओर स्थानांतरित हुई।

एक आंकड़े के अनुसार आज भारत में सात करोड़ तीस लाख लोग बेहद गरीब हैं। 2012 में भारत सरकार ने घोषणा की, कि भारत में 22% आबादी यानि लगभग 26 करोड़ दस लाख 83 हजार लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। यह आंकड़ा 2011 की जनसंख्या के आधार पर है। नए आंकड़े 2021 की जनसंख्या के आधार पर आएंगे। वर्तमान में जिस आधुनिक गरीबी की चर्चा होती है, उसको मापने के अनेक तौर तरीके हैं, जिनमें समय-समय पर बदलाव होता रहता है।

गरीबी मापने के इन तरीकों को समझना भी जरुरी है। गरीबी मापने का एक तरीका व्यक्ति या परिवार की क्रय शक्ति है। इसे सबसे नवीन पैमाना माना जा रहा है। 1991 से भारत में भूमंडलीकरण की नीति लागू होने के बाद बाजारीकरण बढ़ा है। जीवन के हर पहलू को बाजार के सन्दर्भ में देखने – समझने की कोशिशें शुरू हुई हैं। जीवन को बाजार के सापेक्ष देखने की इस पद्धति के कारण जीवन को मानवीय सुख के संदर्भ में देखने की भारतीय पद्धति को छोड़ दिया गया है। आज अगर कोई आदमी सुखी हो, लेकिन उसके पास बाजार से क्रय करने की शक्ति न हो तो वह गरीब माना जायेगा। अब केवल धन ही मानव के सुख का एक मात्र पैमाना रह गया है।

व्यक्ति की बाजार में पहुंच का ही परिणाम है, कि अब सरकार गरीबी का आंकलन करते समय इन तथ्यों पर ध्यान देती है, कि परिवार अपने बच्चों की शिक्षा पर कितना खर्च कर रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो परिवार कितना अधिक से अधिक पैसा खर्च करके अच्छी से अच्छी शिक्षा दिला पा रहा है। शिक्षा की खरीद के मूल्यांकन के कारण प्राइमरी स्तर पर शिक्षा के सरकारी उपक्रम अप्रासंगिक हो गए हैं। सरकारी शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चों के परिवार प्राथमिक आंकलन में ही गरीबी के दायरे में आ जाते हैं।

चिकित्सा क्षेत्र में भी यही पैमाना लागू है, यानि जो परिवार अपनी चिकित्सा पर, दवाओं की खरीद और बड़े अस्पतालों में इलाज पर जितना खर्च करता है, उससे उसकी गरीबी और अमीरी का आंकलन किया जाता है। हम स्वस्थ हैं और बाजार से दवा नहीं खरीद रहे हैं, तो संभव है, कि हम बिना किसी आंकलन के ही गरीबी वाली जनसंख्या में शामिल कर लिए जाएँ। व्यक्ति की गरीबी या समृद्धि के आंकलन के ये सभी तरीके आधुनिक और वैज्ञानिक माने जाते हैं और ये बाजार समर्थक हैं। बाजार चाहे शिक्षा का हो या दवाओं का।

(क्रमश:)

Tags:

Comments

One response to “गरीबी के इतिहास में छिपी समृद्धि की अर्थव्यवस्था (भाग २/३)”

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Discover more from सार्थक संवाद

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading