(राम-लक्ष्मण और हनुमान मिलन और अयोध्या लौटने से पूर्व भरत की मनःस्थिति जानने हेतु राम के हनुमान जी को निर्देश)
राम-लक्ष्मण और हनुमान मिलनः वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में राम-लक्ष्मण और हनुमान जी के मिलन का अद्भुत वर्णन ध्यान देने योग्य है। राम और लक्ष्मण को शस्त्र धारण किये हुए ऋष्यमुख पर्वत की ओर आता देख सुग्रीव के मन में यह शंका हुई, कि यह दोनों वाली के भेजे हुए योद्धा हैं और मेरा अहित करने यहाँ आये हैं, हालाँकि हनुमान जो सुग्रीव के सचिव हैं, वे उनसे यह कहते हैं, कि ‘आपके भय का कोई कारण नहीं है, आपके पापाचारी बड़े भाई यहाँ नहीं आ सकते हैं। आप बुद्धि और विज्ञान से सम्पन्न होकर दूसरों की चेष्टाओं के द्वारा उनके मनोभाव को समझें और उसी के अनुसार आवश्यक कार्य करें।ʼ
हनुमान जी के इन वचनों से भी सुग्रीव के मन में वाली का भय समाप्त नहीं होता और वो हनुमान जी को कहते हैं कि ‘तुम एक साधारण पुरुष की भाँति वहां जाओ और उन दोनों वीर बालकों की चेष्टाओं से, रूप से तथा उनके बातचीत के तौर तरीकों से उनके यर्थाथ का परिचय प्राप्त करो। उनके मनोभावों को समझो। तरह-तरह की बातों और आकृति के द्वारा यह जानने का प्रयास करो, कि दोनों कोई दुर्भावना लेकर तो यहाँ नहीं आये हैं।ʼ सुग्रीव जानते हैं, कि हनुमान यह कर सकते हैं।
हनुमान जी राम और लक्ष्मण के समीप जाकर, एक साधारण तपस्वी का रूप धारण कर अत्यन्त विनीत भाव व मधुर वाणी में वार्तालाप प्रारम्भ करते हैं। वे राम-लक्ष्मण से पहली बार मिल रहे हैं। हनुमान जी राम-लक्ष्मण के रूप-रंग, हाव-भाव आदि की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, ‘आपके शरीर की कान्ति बड़ी सुन्दर है। आप दोनों इस वन्य प्रदेश में किसलिये आये हैं? आप दोनों बड़े धैर्यशाली दिखायी देते हैं। आप कान्तिमान् तथा रूपवान् हैं। आप विशालकाय सांड़ के समान मन्दगति से चलते हैं। आप दोनों की भुजाएँ हाथी की सूण्ड के समान जान पड़ती हैं। आप मनुष्यों में श्रेष्ठ और परम तेजस्वी हैं। आप लोग देवताओं के समान पराक्रमी और राज्य भोगने के योग्य हैं। भला, इस दुर्गम वनप्रदेश में आपका आगमन कैसे सम्भव हुआ? आपके नेत्र प्रफुल्ल कमल-दल के समान शोभा पाते हैं। आप में वीरता भरी हुई है। आप दोनों अपने मस्तक पर जटामण्डल धारण करते हैं। आपके कंधे सिंह के समान हैं। आपकी भुजाएँ विशाल, सुन्दर, गोल-गोल और परिघ के समान सुदृढ़ हैं।ʼ इसके साथ ही हनुमान जी ने उन्हें सुग्रीव का परिचय दिया और भाई वाली से उनकी शत्रुता के बारे में भी संक्षेप में बताया। स्वयं के परिचय में वे कहते हैं, कि ‘मैं वानरजाति का हूँ और मेरा नाम हनुमान है, सुग्रीव के भेजने से ही मैं यहाँ आया हूँʼ।
इस दौरान दोनों भाई हनुमान जी को सिर्फ देखते रहते हैं और उनके वचनों को सुनते हैं। उनकी बातों को सुन और उनके व्यवहार का विश्लेषण कर श्रीराम का मुख प्रसन्नता से खिल उठता है और वे अपने बगल में खड़े हुए छोटे भाई लक्ष्मण से इस प्रकार कहते हैं:-
- सुमित्रानन्दन! ये महामनस्वी वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं और उन्हीं के हित की इच्छा से यहाँ मेरे पास आये हैं।
- लक्ष्मण! इन शत्रुदमन सुग्रीव सचिव कपिवर हनुमान, जो बात के मर्म को समझने वाले हैं से तुम स्नेहपूर्वक मीठी वाणी में बातचीत करो।
- हनुमान जिस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप कर रहे हैं, उससे यह ज्ञात होता है कि उन्हें ऋग्वेद की शिक्षा मिली है, यजुर्वेद का उन्होंने अभ्यास किया है और सामवेद के वे विद्वान् हैं।
- निश्चय ही इन्होंने समूचे व्याकरण का कई बार स्वाध्याय किया है; क्योंकि बहुत-सी बातें बोल जाने पर भी इनके मुँह से कोई अशुद्धि नहीं निकली।
- सम्भाषण के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सभी अंगों में किसी भी प्रकार का कोई दोष प्रकट नहीं हुआ।
- इन्होंने थोड़े में ही बड़ी स्पष्टता के साथ अपना अभिप्राय निवेदन किया है। उसे समझने में हमें कहीं कोई संदेह नहीं हुआ है। इन्होंने रुक-रुककर अथवा शब्दों या अक्षरों को तोड़-मरोड़कर किसी भी ऐसे वाक्य का उच्चारण नहीं किया है, जो सुनने में कर्णकटु हो। इनकी वाणी हृदय में मध्यमा रूप से स्थित है और कण्ठ से बैखरी रूप में प्रकट होती है, अतः बोलते समय इनकी आवाज न बहुत धीमी रही है न बहुत ऊँची। मध्यम स्वर में ही इन्होंने अपनी सब बातें कही हैं।
- ये संस्कार (व्याकरण के नियमानुसार शुद्ध वाणी को संस्कार संपन्न (संस्कृत) कहते हैं) और क्रम से सम्पन्न (शब्द उचारण की शास्त्रीय परिपाटी का नाम क्रम है) अद्भुत, अविलम्बित (बिना रुके धारा प्रवाह रूप से बोलना अविलम्बित कहलाता है) तथा हृदय को आनन्द प्रदान करने वाली कल्याणमयी वाणी का उच्चारण करते हैं।
- हृदय, कण्ठ और मूर्धा – इन तीनों स्थानों द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होने वाली इनकी वाणी को सुनकर किसका चित्त प्रसन्न न होगा। वध करने के लिये तलवार उठाये हुए शत्रु का हृदय भी इस अद्भुत वाणी से बदल सकता है।
- जिस राजा के पास इनके समान दूत हो, उसे अपने सभी कार्यों में सिद्धि प्राप्त होगी।
- जिसके कार्य साधक दूत ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हों, उस राजा के सभी मनोरथ दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो सकते हैं।
भरत की मनःस्थिति जानने हेतु श्रीराम के हनुमान जी को निर्देशः इसी प्रकार का एक वर्णन युद्धकाण्ड के अन्त में भी है। श्रीराम, रावण का संहार कर लक्ष्मण, सीता जी और प्रमुख वानर योद्धाओं के साथ पुष्पक विमान से अयोध्या की ओर यात्रा कर रहे थे। विमान को भारद्वाज ऋषि के आश्रम पर उतरना था उससे पहले विमान से अयोध्यापुरी का दर्शन कर श्रीराम के मन में यह विचार आया और वे हनुमान से बोले, ‘तुम शीघ्र ही अयोध्या जाकर यह पता लगाओ कि वहाँ सब सकुशल तो हैं न?
भरत से मिलकर सीता और लक्ष्मण सहित मेरे सफल मनोरथ होकर लौटने का समाचार देना और मेरे 14 वर्ष के वनवास का पुरा वृत्तान्त उन्हें सुनाना। यह बातें सुनकर भरत की जैसी मुख-मुद्रा हो, उस पर ध्यान रखना और उसके मनोभाव को समझने का प्रयास करना। मेरे प्रति भरत का जो कर्तव्य या बर्ताव हो, उससे जानने का प्रयास करना। वहाँ के सारे वृत्तान्त तथा भरत की चेष्टाऐं तुम्हें यथा रूप में जाननी चाहिए। भरत के मुख की कान्ति, दृष्टि और बातचीत से उनके मनोभाव को समझने चेष्टा करनी चाहिए। समस्त मनोवान्छित भोगों से सम्पन्न तथा हाथी, घोड़े और बाप-दादाओं का राज्य सुलभ हो जाये, तो किसी का भी मन पलट सकता है। हो सकता है चिरकाल तक राज्य वैभव का संसर्ग होने से भरत स्वयं बिना रोक-टोक के राज्य पाने की इच्छा रखते हों। इस स्थिति में मैं अयोध्या नहीं लौटूंगा और किसी अन्यत्र स्थान पर रहकर तपस्वी का जीवन व्यतीत करूंगा।’
उपसंहारः वाल्मीकि रामायण का अध्ययन करते हुए अनेकों अवसरों पर ऐसे अनुभव होते हैं, जहाँ हमें उस समय के लोक-व्यवहार, मनोभाव, राजनीति आदि के बहुत से महत्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं। हनुमान, सुग्रीव से कह रहे हैं, आप बुद्धि और विज्ञान से सम्पन्न होकर दूसरों की चेष्टाओं के द्वारा उनके मनोभाव को समझें और उसी के अनुसार आवश्यक कार्य करें। फिर सुग्रीव हनुमान से कह रहे हैं, ‘जाओ और दोनों युवकों की चेष्टाओं से, रूप से तथा उनके बातचीत के तौर तरीकों से उनके यर्थाथ का पता लगाओ’। राम हनुमान की सिर्फ बातचीत सुन उनकी शिक्षा, बुद्धि और सम्पूर्ण व्यक्तित्व का बहुत सुन्दर विश्लेषण करते हैं। राम हनुमान को भरत की मुख-मुद्रा, मुख की कान्ति, दृष्टि और बातचीत के तौर तरीकों से उनके मनोभाव को जानने के लिए कह रहे हैं।
इन दोनों ही प्रकरणों में हम देखते हैं, कि राम इस बात पर जोर नहीं दे रहे हैं, कि उन्हें क्या सूचना मिल रही है, बल्कि वे सूचना देने वाले की मनःस्थिति और उसके उत्पन्न हुए शारीरिक लक्षणों का विश्लेषण कर रहे हैं और हुनमान से भी भरत के संदर्भ में यही कह रहे हैं। वाल्मीकि रामायण में दो पात्रों के बीच के हुए व्यवहार को, उनकी बातचीत को और विभिन्न स्थितियों के वर्णन को यदि हम इस विशेष दृष्टि से विश्लेषित करने का प्रयास करते हैं, तो यह देखते हैं, कि यहाँ शारीरिक लक्षणों को महत्व दिया गया है व उसीके आधार पर गुणों का निर्धारण किया जा रहा है। संचार के यह विशुद्ध कौशल महत्वपूर्ण हैं। इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। भारतीय समाज की संचार सम्बन्धी इस वैचारिक सम्पन्नता को वाल्मीकि रामायण में मौजूद इस तरह के अन्य अनेक प्रकरणों के माध्यम से समझा जा सकता है और भारतीय चित्त, मानस व काल को एक नये सिरे से परिभाषित करने का प्रयास किया जा सकता है।
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