नयी दिल्ली का अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व है। उस पर पंजाबी संस्कारिता की छाप है और उत्तर प्रदेश की सभ्यता का प्रभाव है। दिल्ली की अपनी परम्परागत मौलिक तहज़ीब तो उसके ताने-बाने में बुनी हुई है, परन्तु आजकल ये सारे प्रभाव तिरोहित होते जा रहे हैं और उन पर छा गया है पश्चिम की संस्कृति का चक्रवर्ती साम्राज्य। अब दिल्ली रह गयी है चले जाने वाले अँग्रेज़ों की सभ्यता का खण्डहर और पश्चिम के अर्धदग्ध जीवन का उच्छिष्ट अवशेष। आजकल की दिल्ली और कुछ भी हो, भारतीयता की तो क़ब्र बन कर रह गयी है। कृत्रिमता और दम्भ यहाँ के सबसे अधिक प्रचलित सिक्के हैं। सत्ता इस शहर की सम्राज्ञी है। सौजन्य तिरस्कृत हरिजन के समान माना जाता है। भलाई आदि बातें सिर्फ़ भाषणों के लिए हैं। त्याग और बलिदान सिर्फ़ काव्य के विषय रह गए हैं। सादगी मज़ाक़ का आलम्बन है। सत्य एक असम्भव सपना है।
ऐसा यह बहुरूपी नगर प्रथम दर्शन में बड़ा आकर्षक लगता है। पहली बार आने वालों को झटपट पसन्द आ जाता है, परन्तु जैसे-जैसे हम उसमें रहते जाते हैं, उसके स्वार्थ प्रेरित संघर्षों की टक्करें खाते जाते हैं और उसकी नक़ली सभ्यता का शिकार बनते जाते हैं, त्यों-त्यों यह अद्भूत दिखायी देने वाली नगरी हमारे लिए अप्रिय और असह्य हो उठती है।
आज एक जगह चाय का निमन्त्रण था। मेजबान बड़े अफसर हैं। विशाल बंगला। सुन्दर बाग। बाग में रंग-बिरंगे फूलों का वसन्तोत्सव। गुलाब की खुशबू से वातावरण तरबतर। समय था ढलती हुई दोपहर का जो गुलाबी ठण्ड के कारण प्रभात के जैसी जीवनदायिनी लग रही थी। बाग में कुरसियाँ डलीं। और भी कई मेहमान थे। चाय आयी। पीते पीते बातें होने लगीं। वार्तालाप में नेहरू से लगा कर मेजबान की पुत्री नयना तक विविध व्यक्तियों की चर्चा हुई।
“दिल्ली शासन की विधानसभा के चुनाव में काँग्रेस की धज्जियाँ उड़ गयीं।” एक काँग्रेस विरोधी जनसंधी ने कहा।
“इससे क्या फर्क पड़ता है? सत्ता थोड़े ही उनके हाथ से गयी है। देखिए न. सी.सी. देसाई हाई कमिश्नर बन कर लंका गये, तो उनका बंगला तुरन्त विजयलक्ष्मी पण्डित को मिल गया। अब कोई पूछे, इतने बड़े बंगले का अकेली बुढ़िया क्या करेगी?” मकान के लिए तरसने वाले एक पत्रकार बोल उठे। उनकी कड़वाहट छिपी न रही।
“यह सब तो यूँ ही चलेगा। मैंने रेडियो स्टेशन के संचालक पद के लिए आवेदन किया था, लेकिन पब्लिक सर्विस कमीशन की मेहरबानी, मिनिस्टर साहब की भांजी पर हो गयी।” कॉलेज के एक प्राध्यापक ने दिल का गुबार निकाला।
“लेकिन अपने साहब बहुत अच्छे हैं। जब कहो… तब चाहे जो काम कर देते हैं।… छल-प्रपंच बिल्कुल नहीं।… लीजिए बाबूजी… यह सोंदेश खाइए। ये रसगुल्ले चखिए।… पड़ोस के बंगाली की दुकान से खासतौर से तैयार करवा कर लाया हूँ।” एक स्थूलकाय लालाजी ने हँसते हुए राज खोला। दाने-दाने पर खाने वाले का नाम तो होता ही है। लालाजी ने खिलाने वाले का भी नाम जाहिर कर दिया और पार्टी की अधिकांश चीज़ों पर माले-मुफ्त होने की मुहर लग गयी।
मैं एक तरफ बैठा मेज़बान से बातें कर रहा था। वे बेचैन दिखायी दे रहे थे। किसी का इन्तज़ार कर रहे थे। इतने में एक नेता जैसे दिखायी देने वाले खादीधारी सज्जन आ पहुँचे। क़रीब क़रीब सब लोग खड़े हो गये। मैंने भी वही किया। तिरंगा झण्डा फहराने वाली मोटर ने घोषणा की, कि वे संसद के सदस्य हैं। मेज़बान ने बड़ी तत्परता से उनका स्वागत किया। मानो सुदामा के घर श्रीकृष्ण पधारे हों – इस प्रकार हाथ जोड़े खड़े रहे। परिचय कराया गया। वे हमारे मेज़बान अफ़सर के विभाग के डिप्टी मिनिस्टर थे।
मिनिस्टर साहब संसद के किसी अन्य सदस्य से बातें करने लगे।… “कहिए, आपके प्रश्न का मैंने वहीं उत्तर दिया न, जो आप चाहते थे।”
“जी….जी…आप आजकल बेहद मेहनत कर रहे हैं। काफ़ी रात बीते तक दफ़्तर में बैठे रहते हैं।” संसद सदस्य ने दाँत निपोरते हुए देवताओं को भी प्रिय लगने वाला उपाय आज़माया। पूरे वातावरण के दरमियान रसगुल्ले और सोंदेश बड़ी रफ्तार से उदरस्थ होते रहे।
“अरे साहब हमारी भी कोई ज़िन्दगी है?… मेहनत करके मरें हम, प्रसिद्धि मिले मिनिस्टर को। पारिश्रमिक उनसे आधा भी नहीं मिलता।” डिप्टी साहब ने शिकायत करते-करते सिगार से लम्बा कश खींचा। इतने में एक छोटी मोटर आयी। उसमें से एक युवती दिखने का भरसक प्रयत्न करने वाली प्रौढ़ा उतरी। पोशाक भारतीय पर ठाठ सारा यूरोपीय। मेज़बान की पत्नी थी। सबने खड़े होकर अभिवादन किया। उन्होंने देर से पहुँचने के लिए क्षमा मांगी। मीटिंग देर तक चलने की सफ़ाई पेश की। वे चाय पी रही थीं, कि उनके पति ने कान में कुछ कहा। उन्होंने आया को आवाज़ देकर अपनी पुत्री को बुलवाया। लड़की गुड़िया जैसी सुन्दर थी। उससे नृत्य करवाया गया। उपस्थितों को उस बाल कलाकार में भविष्य की महान् नर्तकी के दर्शन हुए।
चाय पार्टी समाप्त हुई। मेहमान एक-एक करके जाने लगे। सिर्फ दो- चार निकट के स्वजन रह गये। शाम ढल रही थी। श्रीमतीजी सबको भीतर ले गयीं। अब ड्रिंक्स की महफ़िल जमी। मदिरा के प्याले निकले। शराब की बहार ने वातावरण को रसमय बना दिया।
कुछ देर बाद फ़ोन आया। श्रीमतीजी को किसी और मीटिंग में जाना था। कुछ देर बाद एक साहब मोटर में आए और उन्हें ले गये। वे जाते समय आया को बुला कर बच्चों को खिलाने-पिलाने और सुलाने सम्बन्धी सूचनाएँ देती गयीं। अब हम तीन जने रहे। मेज़बान, उनकी कोई मित्र भी और मैं। धीरे से अफ़सर महोदय ने काम की बात छेड़ी। मेरी ओर मुखातिब हुए, “देखिए, आपकी हमारे मिनिस्टर साहब से घनिष्ठता है। हमारी बात उनके कान में डाल दें, तो में जीवन भर आपका आभारी रहूँगा। महकमे में वरिष्ठ जगह खाली होने वाली है। उसके लिए मेरी सिफ़ारिश कर दीजिए। मैं हाँ हूँ करता रहा। उन्होंने मेरा हाथ दबाया और पूरा गिलास गटक गये। वे और वह महिला एक के बाद एक प्याले ख़ाली करते जा रहे थे। उनका आपसी बर्ताव भी घनिष्ठ होता जा रहा था। अब उनके दरमियान तीसरे आदमी का उपस्थित रहना हिमाक़त थी। अतः मैंने जाने की अनुमति चाही। वे बोले, कि मुझे घर छोड़ देंगे। मैंने कहा, कि आज चलना बिल्कुल नहीं हुआ। टहलता हुआ जाऊँगा और मैं चल दिया। रास्ते भर दम घोंटने वाली बेचैनी होती रही। शराब की दुर्गन्ध मानो पीछा करती हुई साथ-साथ चल रही थी।
क्रमशः
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