समाज में आधुनिक व्यवस्था का एक और आयाम आज खुल रहे नए तरह के संस्थानों के रूप में सामने आ रहा है। गौर से देखेंगे, तो पाएंगे, कि भारतीय समाज में वृद्धाश्रम, अनाथालय, गोशालाओं जैसे संस्थानों का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। इस तरह के पुराने से पुराने संस्थान भी 100 – 150 साल से ज्यादा पुराने नहीं है।
इसका अर्थ यह नहीं है, कि हमारे समाज में इस तरह की व्यवस्थाओं का अभाव था। बल्कि, हमारे समाज में इस तरह के संस्थानों की आवश्यकता ही नहीं थी। इसका और अधिक विश्लेषण करेंगे तो यह भी आसानी से सामने आता है, कि ये संस्थान अभी भी ज्यादातर शहरी इलाकों में ही हैं, जहाँ आधुनिकता का प्रकोप अपेक्षाकृत ज्यादा है।
ऐसा नहीं है, कि भारतीय समाज में कभी वृद्ध ही नहीं रहे हैं, या कभी कोई अनाथ ही नहीं हुआ है, या गायें नहीं रही हैं। हुए हैं, मगर उनकी इतनी खराब स्थिति शायद ही कभी रही है। उन सबको समाज में, घरों में, कुटुम्बों में ही व्यवस्थित कर लेने की बड़ी अच्छी व्यवस्थाएँ रही हैं। ‘नौकरशाही’ एवं ‘संचार जाति वाले समाज’ की तरह ‘मिडिल क्लास’ की उपज भी आधुनिकता की ही देन है।
‘मिडिल क्लास’, जिसमें आज दुर्भाग्य से समाज का सबसे बड़ा हिस्सा आता है, समाज का एक अजीब सा वर्ग है। पूरा का पूरा मिडिल क्लास / मध्यम वर्ग आज तथाकथित उच्च वर्ग को अपना आदर्श मानता है, और उसके नक्शे कदम पर चलना चाहता है। उसकी स्वयं की कोई सोच, कोई दिशा परिलक्षित नहीं होती है। नौकरशाही में शामिल लोग ही इसके सबसे बड़े समूह हैं, जिनकी सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति का वर्णन पहले ही किया जा चुका है।
एक और बड़ा रोग जो हमको आधनिकता के कारण लगा है, वह है, ‘स्टेटस (status) का चक्कर’। कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए, तो आज लगभग हर व्यक्ति इस रोग से ग्रस्त है। हर किसी को दूसरों से ‘बड़ी’, ‘ज्यादा’ और ‘मंहगी’ चीज चाहिए। फिर वह चीज चाहे कुछ भी – घर, कार, कपड़े, जूते, साइकिल, मोटरसाईकिल, नौकरी, पढ़ाई, सर्टिफिकेट, recognition आदि – कुछ भी क्यों न हो।
गुरुजी कहते हैं कि जब हमारी सौंदर्य दृष्टि (aesthetic sense) खत्म हो जाती है, तब ही जाकर स्टेटस (status) का चक्कर पड़ता है। यह हमारी ‘सौंदर्य दृष्टि’ ही है, जो हमें बताती है, कि हमें क्या पसंद है और हमें क्या चाहिए। आधुनिकता की मार में हमारी यह सौंदर्य दृष्टि ही लगभग खो गई है। आज हमें खुद पता नहीं होता है, कि हमको क्या अच्छा लगता है और हमको क्या पसंद है।
आज हर चीज में कोई और (अधिकतर कल कारखाने वाले स्वयं, और दूसरे तथाकथित subject matter specialists जैसे architects, interior design experts, fashion designer, car experts आदि) ही बताता है कि किसी व्यक्ति को क्या चाहिए। ये सारे लोग हमको इसी भ्रम में डाले रहते हैं, कि अपनी पसंद का चुनाव हम खुद ही कर रहे हैं। पर वास्तविकता में हमारे पास दिए गए विकल्पों में से चुनने से अधिक कुछ भी नहीं होता। भारतीय समाज में भारतीय तरह की पढ़ाइयों का पहला उद्देश्य लोगों में सौंदर्य दृष्टि को बढ़ाना ही होता था, जो आज की आधुनिक पढ़ाइयों से पूरी तरह से गायब हो गया है।
आधुनिकता का एक और परिणाम, समाज में टूटती आस्थाओं का संकट है। एक ओर विज्ञान के नाम पर आधुनिकता ने हमारी सारी आस्थाओं को, बिना विस्तार से समझे – बूझे, तोड़ने का काम किया है। हमारी सारी मान्यताओं को, आस्थाओं को ‘विज्ञान’ के एक – मात्र पहलू से देख कर तोड़ा है। जबकि हमारी मान्यताएँ न केवल ‘विज्ञान’ पर, बल्कि उसके साथ – साथ ‘सामाजिकता’ एवं ‘प्रकृति प्रेम’ के अन्य पहलुओं पर भी आधारित रही हैं।
विज्ञान के पहलू से देखने पर भी, आधुनिकता ने उसके त्वरित प्रभावों पर ही जोर दिया है, जबकि भारतीय दृष्टि में 8-10 वर्षों से लेकर पीढ़ियों तक पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करके उनको हमारी व्यवस्थाओं में लागू किया गया था। आधुनिकता के प्रभाव में हमारी ये सारी मान्यताएँ, सारी आस्थाएँ बहुत ही तीव्र गति से टूटी हैं। वहीं दूसरी ओर, यह किसी अन्य चीज पर नई आस्थाएँ बना ही नहीं पाया है।
‘विज्ञान’ को सर्वोपरि साबित करने के बाद भी, विज्ञान के नित नए खुलासों और आविष्कारों के कारण, यह ‘विज्ञान’ में भी अपनी आस्था कायम करने में असफल रहा है। आस्था का यह संकट आज भारतीय समाज में एक बहुत बड़ा संकट है।
गुरुजी के साथ कभी भी कहीं भी घूमने के लिए निकलो, तो उन्हें सड़कों के किनारे बेघर लोगों की तरह जीवन जीने वाले समाज को देखकर बहुत ही दु:ख होता है। उनका कहना है, कि आज से 20 – 25 साल पहले तक ऐसे लोगों की संख्या न के बराबर थी। आज तो बहुत ही बड़ी संख्या में लोग विभिन्न तरह के काम – धंधे अपना कर सड़कों के किनारे जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। ये तो पता नहीं कि गुरुजी को कभी महानगरों और अन्य बड़े नगरों की झोपड़ियों वाली बस्तियों में जाने का अवसर मिला है या नहीं, अन्यथा वहाँ भी स्थिति इन्हीं लोगों के जैसी ही है।
अपने – अपने गांवों में कभी परिपक्व जीवन जीने वाले, आज इस तरह का बेघरबार लोगों की तरह जीवन जीने के लिए मज़बूर हैं। आधुनिकता के इन नतीजों को नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता।
आधुनिक व्यवस्था की टेक्नोलॉजी में हर छोटी से छोटी चीज हमारी पकड़ से दूर होती जा रही है। हम लगातार, निरंतर परतंत्र होते जा रहे हैं। किसी नई चीज की बात तो छोड़िए, छोटी – छोटी सी चीजों की मरम्मत के लिए हमको डॉक्टर, मैकेनिक, मिस्त्री आदि की जरूरत होती जा रही है। हर चीज हमारी खुद की और हमारे आसपास, पास-पड़ोस की सामर्थ्य से दूर होती जा रही है।
एक तो समाज के संचार जाति वाले हो जाने के कारण पीढ़ियों का रोज-मर्रा का ज्ञान हमारे लिए ब्रह्म विद्या जैसा होता जा रहा है। यही कारण है, कि मामूली सी सर्दी-बुखार जैसी समस्याओं के लिए हमको डॉक्टर के पास जाना पड़ रहा है। उसी तरह देखेंगे कि आज के उपकरणों में थोड़ी सी गड़बड़ी आने पर हमें सीधे उसको सर्विस सेन्टर ही ले जाना पड़ता है। हमारा खुद का सामर्थ्य एकदम दूर होता जा रहा है। हर चीज के लिए निर्भरता आती जा रही है।
परिवारों में बच्चों की, बुजुर्गों की दुर्दशा, क्रमश: कुटुंब से परिवार, और परिवार से व्यक्ति होता जा रहा समाज, ऊर्जा स्त्रोतों की लगातार बढ़ती जा रही अमिट मांग, शिक्षा व्यवस्था की स्थिति, लोगों के घटते शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति आदि और न जाने कितने और दुष्परिणाम हमारे सामने हैं।
जरूरत है, इन सबकी विस्तार पूर्वक, निष्पक्ष रूप से अध्ययन करने की, ताकि भारतीयता और भारतीय व्यवस्थाओं का और आधुनिकता और आधुनिक व्यवस्थाओं का एक तुलनात्मक अध्ययन समाज के सामने रखा जा सके। और लोग समाज के हिसाब से एक उचित व्यवस्था अपना सकें।
(समाप्त)
Leave a Reply