देवालय निर्माण

एक भव्य देवालय का निर्माण कार्य चल रहा था। अनेक वास्तुविद् , अभियन्ता , श्रमिक और शिल्पी अपनी-अपनी योग्यता से मन्दिर को दिव्य रूप प्रदान करने में लगे थे। लोक में मन्दिर के निर्माण को लेकर उत्साह और आनन्द का वातावरण था। इस पूरे परिदृश्य को देखने-समझने के विचार से एक दार्शनिक मन्दिर परिसर का निरीक्षण करने आया।

निर्माण के अनेक आयामों को देखते हुये उसकी दृष्टि तेज धूप में कार्यरत शिल्पकारों पर गयी। कुछ सोचता हुआ वह उनके समीप गया। देखा कि पसीने से लथपथ एक श्रमिक पत्थर तराशने में व्यस्त है, प्रखर धूप में पड़े पत्थर पर छेनी की चोट से चिंगारियाँ फूट पड़ती हैं। दार्शनिक उसके पास रुक गया ,
उसको आवाज देकर कहा-
“भाई ! तुम्हारा कार्य तो बड़ा कठिन है। इतनी धूप और गरमी के बीच पत्थर काटने का कार्य कैसे कर पाते हो !”
शिल्पी ने हाथ रोक लिये, छेनी-हथौड़ी रख दी , पगड़ी का गमछा उतारकर माथे का पसीना पोछते हुये बोला –
“क्या कहें बाबूजी ! अपना-अपना भाग्य है। मैं पत्थर नहीं अपनी कमाई काट रहा हूँ, मेरे भाग्य में यही लिखा है।”
उसके पीड़ा भरे उत्तर से सहमत होते हुये दार्शनिक आगे बढ़ गया। थोड़ी दूर पर उसने एक अन्य श्रमिक को उसने उसी अवस्था में कार्यरत देखा, पास जाकर अपना पुराना प्रश्न दोहराया। शिल्पी ठिठक गया, उसने दार्शनिक को कुछ झिड़कते हुये उत्तर दिया-
“चलिये-चलिये अपना काम करिये , किसी से भीख माँग रहा हूँ क्या, जो दया दिखा रहे हो ! भगवान् ने बाजुओं में बल दिया है, मेहनत करके कमाता हूँ और चैन से खाता हूँ , इसमें दु:ख कैसा ? धूप क्या अकेले मेरे माथे पर है , सारे संसार पर है, सब सह रहे हैं।”
श्रमिक अपना कार्य करने में लग गया। दार्शनिक मुसकुरा उठा , समान परिस्थिति में असमान अनुभूति। वह आगे बढ़ गया। निर्माण परिसर बहुत विस्तृत था कुछ दूर चलकर वह एक और शिल्पकार के पास रुका। वही धूप , वैसा ही परिश्रम वही कठिनाई। कौतूहल भरे दार्शनिक ने अपना प्रश्न उस तीसरे से फिर दुहराया। पत्थर को सही आकार देने में एकाग्र शिल्पी ने किञ्चित् मुसकुरा कर छेनी-हथौड़ी को माथे से लगाकर रख दिया। दार्शनिक की ओर देखते हुये बोला –
“ भाई साहब ! दुःख-सुख तो जीवन है, इसमें घबराना कैसा। धूप और छाया आती-जाती रहती है। मैं तो अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे तीनों लोकों के मालिक का घर बनाना नसीब हो रहा है। मुझ पर दया दिखाने के बजाय ये सोचिये कि आज जिस पत्थर पर बैठकर मैं इसे अपने छेनी-हथौड़े से गढ़ रहा हूँ , कल आप जैसे लोग इस पर अपना माथा रगड़ने के लिये लाइनों में खड़े होंगे। न मुझे धूप लग रही है और न ही गरमी सता रही है। मैं तो इस सोच में मगन हूँ कि सारे जग को छाया देने वाले प्रभु को छाया देने की सेवा मुझे मिली है।”
दार्शनिक ने आगे बढ़कर उस शिल्पकार के पाँव छू लिये, वह संकोच से प्रतिरोध करते बोला कि अरे आप क्या कर रहे हैं ! दार्शनिक ने समझाते हुये कहा कि
“भाई इस विशाल देवालय के निर्माण में बहुत से लोग लगे हैं, सबकी अपनी भूमिका है, परन्तु इसमें देवत्व की प्रतिष्ठा तुम्हीं से होगी , इसीलिये मैनें तुम्हारे चरणस्पर्श किये।”
शिल्पी ने कहा बाबू जी हम तो बस मूर्ति बनायेंगे , प्रतिष्ठा तो पण्डित-पुरोहित करायेंगे। दार्शनिक ने कहा ये मैं जानता हूँ पर , जो मैं कह रहा हूँ वह समझो।
“पत्थर का कोई भी आकार देवता नहीं होता। न कोई क्रिया विधि पत्थरों को चेतन बना सकती है। परन्तु इस प्रक्रिया में इन पत्थरों से जो तुम्हारा सहज और चिन्मय तादात्म्य स्थापित होता है वह इनको पत्थर नहीं रहने देता, तुम्हारे दुःख-सुख , तुम्हारी अनुभूतियाँ इनमें आकारित हो जाती हैं। जब तुम्हारी चेतना इन पत्थरों में उसे पहचानने लगती है जिसे तुम ईश्वर कहते हो, तो ये तुम्हारे गढ़े हुये पत्थर ईश्वरीय चेतना की अभिव्यक्ति के अधिष्ठान बन जाते हैं।
शिल्पकार ! तुम धन्य हो। तुम्हें पता है, मैनें यह प्रश्न दूसरे शिल्पियों से भी किया है, पर उनके उत्तर तुम्हारे समान न थे। वे देवालय बनाते हुये भी देवत्व के उजाले का स्पर्श नहीं कर पा रहे थे। दार्शनिक ने स्पष्ट करते हुये कहा – मैं यहाँ ईश्वर खोजने नहीं आया, मैं तो बस ये देखने आया कि मनुष्यों के द्वारा रची गयी आकृतियों में ईश्वरता की विराट् अभिव्यक्ति कैसे सम्भव होती है। तुम्हारे उत्तर में मैनें उसका सूत्र पा लिया।”
आज श्रीरामजन्मभूमि पर आकार लेते विशाल मन्दिर के सँवरते प्रस्तर-खण्डों को देखते हुये यह दृष्टान्त विशेष अर्थपूर्ण हो उठता है। छेनी-हथौड़े के आघात से पत्थरों में उभरते मुखड़े , बेल-बूटे और पुष्प इस देश की मनोभूमि में दबे सुप्त बीजों के अंकुरण जैसे लगते हैं। औजारों के साथ सधे हुये हाथ संस्कारों को मानो उनकी पहचान लौटा रहे हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों और अंचलों से आये कुशल शिल्पकार अपना सर्वोत्तम लगा रहे हैं। यह इतिहास बनाना भर नहीं है, यह इतिहास में स्वयं को अमर कर देने का यज्ञ है। यह मात्र भवन निर्माण नहीं है, यह शताब्दियों की पीड़ा, पुकार और प्रतीक्षा का उद्गीथ है। यह सनातनता का अमृत-पर्व है, जिसमें निगमागम की प्रतिज्ञायें फलित हो रही हैं। यह मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा भर नहीं अपितु इतिहास कथाओं की प्राण प्रतिष्ठा है।
यह निर्माण आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की विश्वविश्रुता महापुरी, गोस्वामी तुलसीदास की श्रीरामराजधानी, महाकवि कालिदास और भवभूति के साकेत , स्वामी युगलानन्यशरण जी के प्रियतम पुर और असंख्य श्रद्धालुओं के आह्वान, आन्दोलन, अस्मिता और आस्था का पुनर्प्राकट्य है।
काल के क्रीड़ा-कौतुक की साक्षी बनकर शताब्दियों का अभिशाप भोगने वाली यह पुण्यभूमि पुनः देवत्व की भावभूमि के रुप में उभर रही है। जैसे अहल्या ने श्रीराम की चरणरज का स्पर्श कर अपनी दिव्यता पुनः पायी हो।
हजारों वर्षों तक अपनी जड़ता में डूबी पड़ी शिलाओं को उनके मौन तप का यह देवोपम पुरस्कार है। उनके खिलते हृदयों से प्रणाम , प्रसन्नता और नृत्य की मुद्रायें व्यक्त हो रही हैं।
इन मुद्राओं तक पहुँचने और देवत्व को अभिव्यञ्जित कर पाने तक की यात्रा असाधारण रही है। वंशानुवंश इस यात्रा को संकल्प मानकर जिया गया है। संत-साधक, मुनि-महात्मा, मठ-मन्दिर और बृहत्तर श्रद्धालु-समाज ने अपने को इस एक संकल्प के लिये खपाया है। धृतव्रत मनस्वी महापुरुषों ने अनेक जीवन कृच्छ्र तप किया है। इसके निमित्त हुये बलिदानों की हृदयद्रावक कथायें अभी भी अपने उद्गाता की प्रतीक्षा कर रही हैं। जागरण , यात्रायें , सभायें , आह्वान , अनुष्ठान, आन्दोलन और आत्मार्पण के अनगिनत प्रसंगों ने इस निर्माण को मानों पहले ही जीवन की ऊष्मा से भर दिया है।
घट-घटवासी श्रीराम को अपने पैतृक घर में स्थापित होने में वर्षों लग गये। जैसे उन्होंने प्रण लिया हो कि इसबार का युद्ध अकेले मैं नहीं सम्पूर्ण अयोध्या लड़े और जीते और मानों अपने आराध्य के अभिषेक के लोभ से श्रीराम के बाद यहाँ रुक गये श्रीहनुमान् ने युद्ध में अयोध्यावासियों को विजय दिला दी है।
समय के सरयू-सरित् में तिरती हुई आस्था की यह नाव न्याय, नेतृत्व, नैतिकता, विरोध, विश्वास, धैर्य और बलिदान जैसे अनगिनत घाटों से होकर अब श्रीराम-सुयश के तट पर आ लगी है।
धर्म विग्रह श्रीराम यहाँ प्रत्यक्ष होंगे। यह आभासों पर विश्वास की विजय है। इसकी कथायें आने वाली शताब्दियों को वो उजाला देंगी जिसमें हमारे पुण्य चरित्र धुँधले न दिखाई देंगे।


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