संवाद

धर्म और हमारा साधारण समाज: भारतीय ग्राम व्यवस्था का सैद्धान्तिक आधार

इस ज़माने में क्या काम करने योग्य है और उस काम को कैसे किया जाय? ये दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं। ऐसा सुना है कि लगभग १०० वर्ष पूर्व लेनिन ने भी ये दो प्रश्न पूछे थे – what is to be done और how it is to be done। इन प्रश्नों के उत्तर भी उन्होंने दिए। उनके उत्तर से रूस की क्रांति खड़ी हुई, पूरे यूरोप और पश्चिम की दुनिया में बदलाव भी आया और बाकी दुनिया को भी बदलने का प्रोजेक्ट चल पड़ा।

उनके उत्तर हमारे समाज के लिए लिए कितने सही हैं या नहीं, यह मैं नहीं जानता, लेकिन ये दोनों प्रश्न तो हमारे लिए भी महत्त्व रखते ही हैं। इन प्रश्नों पर सामूहिक विचार-विमर्श होते रहना चाहिए। इस विमर्श में भारत की स्थिति का आकलन करना और भारत की भाषा एवं दृष्टि को पकड़ पाना उपयोगी होगा ऐसा मेरा मत है।

धर्मसंस्थापनार्थाय

मेरी समझ से, महात्मा गांधी के अनुसार भारत की समस्याओं के मूल में है भारत का धर्म-भ्रष्ट हो जाना।1 और अगर मैं उनके सारे प्रयासों को समझता हूँ; चाहे वो स्वदेशी की बात हो, चाहे अहिंसा की, या फिर उनके उपवास की बात, सभी प्रयासों के मूल में जो चिंता नज़र आती है, वह है “धर्म संस्थापनार्थाय” यानि धर्म की स्थापना के अर्थ में कार्य करना। मुझे गांधीजी की यह बात सबसे महत्त्वपूर्ण लगती है। हमें इस पर विचार-विमर्श करना चाहिए।

अगर ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो मानवजाति के समस्त प्रयासों की नाभि में धर्म स्थापना की चिंता ही रहती है।2 हमारी सभी कथाएँ यही बताती हैं कि हर युग में मानव ने धर्म की स्थापना हेतु अनेक प्रयास किए हैं। यह युग भी धर्म की पुनः स्थापना का युग है और हमारे समस्त कार्य इसी चिंता से प्रेरित होने चाहिए।

पारंपरिक सभ्यतागत विचार रहा है कि पशु और मानव के बीच जो मूल भेद है वह ‘धर्म की चिंता’ का भेद है। पशु को धर्म स्थापना की चिंता नहीं होती, केवल मानव को ही होती है। पशु की चिंता आहार, निद्रा और मैथुन (संतान उत्पत्ति) तक ही सिमटी रहती है और इसी लिए पशुओं के जमावड़े के पीछे मूल कारण उनकी सुरक्षा की चिंता मानी गयी है। वहीं मानव को पशु से मौलिक रूप में भिन्न माना गया है। मानव जनों का जमावड़ा सुरक्षा के लिए नहीं माना गया। अगर मानव भी अंततः सुरक्षा के लिए जमावड़ा खड़ा करे, तो शायद उसमें और पशु में भेद करना सम्भव नहीं होगा। हमारे यहाँ पशु और मानव के जमावड़े को हमेशा ही अलग करके देखा गया है; एक को समज कहा और दूसरे को समाज।3

आधुनिक सोसाइटी का यूरोप में उदय

आधुनिक काल में सोसाइटी की शुरुआत यूरोप में प्रॉपर्टी की सुरक्षा की चिंता से हुई। प्रॉपर्टी को शरीर का ही विस्तृत रूप समझा गया; जैसे कपड़े, जूते, टोपी की रक्षा का शरीर की रक्षा से जुड़ाव है वैसे ही बाकी साधन, मकान और प्रॉपर्टी को भी शरीर की सुरक्षा से ही जोड़कर देखा गया। ऐसे में, वे गिने चुने लोग जो प्रॉपर्टी रखते थे, उन्होंने अपनी प्रॉपर्टी की सुरक्षा के लिए अपनी – अपनी सोसाइटी बनायी और इन सोसाइटियों ने इस चिंता को लेकर राजा / रानी पर दबाव बनाना शुरू किया। धीरे – धीरे आधुनिक राज्य प्रॉपर्टी की रक्षा करने में लग गया।

आलम यह है कि आज का राज्य बस इसी में ही लगा हुआ है। अमेरिकी विचारक हैना आरेंडट कहती हैं कि आधुनिक राज्य तो मुख्यतः “mass housekeeping” की संस्था बन गया है।4 जो चिन्ताएँ पहले घर-परिवार की चिंता होती थी, जिसे आम भाषा में रोटी – कपड़ा – मकान की चिंता कहते हैं, वह चिंता सोसाइटियों के माध्यम से आधुनिक राज्यों ने ले ली हैं। फलस्वरूप आम जन-मानस ने भी स्वेच्छापूर्वक ये ज़िम्मेदारी राज्य तंत्र को सुपुर्द कर दी है। हिंदुस्तान में आजकल इस स्थिति को बताने के लिए, राज्य तंत्र को “माई-बाप” कहा जाता है; जो ज़िम्मेदारी परिवार में माता पिता की होनी चाहिए थी, वह राज्य तंत्र ने (ज़बरदस्ती) ले रखी है। आज अगर कोई परिवार – समूह चाहे भी तो स्वतंत्र रूप से अपनी रोज़ी रोटी की व्यवस्था नहीं कर सकता। हालाँकि देश और दुनिया में स्वावलंबन के प्रयास हो रहे हैं, कई जगह परिवार – समूह अपनी रोज़ी रोटी की स्वतंत्र व्यवस्था करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन यह स्वावलंबन राज्य व्यवस्था के अधीन ही रहता है।

मेरे विचार में, हमें सभ्यतागत समाज की जो कल्पना है उसे पकड़ना चाहिए और सोसाइटी और समाज की अवधारणाओं में भेद करना चाहिए। अक्सर अनुवाद में मौलिक त्रुटियाँ हो जाती हैं। आधुनिक सोसाइटी की धर्म – अधर्म की चिंता में कोई रुचि नहीं होती। अब तो धर्म की चिंता सार्वजनिक चिंतन का विषय न रह कर व्यक्तिगत चिंतन में सिमट गई है। सोसाइटी की स्वरक्षा के लिए धर्म को व्यक्तिगत विषय बना दिया गया है। ऐसा नहीं करेंगे तो सोसाइटी के बिखरने का भय है। जबकि समाज की कल्पना इससे बिलकुल विपरीत रही है। समाज के मूल में धर्म – अधर्म की चिंता है और समस्त सामाजिकता धर्म स्थापना के अर्थ में समझी गई है। भारत में तो कम से कम, जो मित्र परिवार – समूह को समाज का रूप देना चाह रहे हैं, उन्हें पारंपरिक समाज की कल्पना को समझने का प्रयास करना चाहिए।

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2 responses to “धर्म और हमारा साधारण समाज: भारतीय ग्राम व्यवस्था का सैद्धान्तिक आधार”

  1. Ajit takke avatar
    Ajit takke

    प्रिय हर्ष जी सस्नेह नमस्कार
    आपका यह लेखन पढा। अच्छा लगा। लेकीन यह लिखने के लिये आपने धर्म और सामाजिकता इन दोनो धारणाओंकी क्या परिभाषा तय की है? क्रुपया मै समझना चाहता हूं।

    अजित टक्के
    नाशिक.

    1. Harsh satya avatar
      Harsh satya

      नमस्कार अजीत जी । समाज की परिभाषा लेख में उल्लेखित है-साथ आ कर धर्म अधर्म पर विचार विमर्श एवं धर्म की स्थापना का प्रयास । धर्म की परिभाषा मुझे ठीक मालूम नहीं है। परन्तु इस शब्द पर विमर्श करना ही चाहिए । जीवन विद्या के अग्रज जन समझ की स्थापना की बात करते हैं ।मुझे लगता है कि धर्म की स्थापना का प्रयास और समझ की स्थापना का प्रयास एक जैसा ही है ।

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