पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका से आने वाले मेरे अनेक मित्रों से मैं वहाँ की आदिवासी वन्य जातियों के विषय में कुतूहलपूर्ण प्रश्न पूछा करता था। उनके रहन-सहन, आदतें, चलन- व्यवहार, विचारसरणी, भावनाएँ आदि में मुझे गहरी दिलचस्पी थी और मैं अनेक प्रकार के प्रश्न पूछता, परंतु किसी भी मित्र ने स्वानुभव की या सुनी हुई कोई निश्चित बात नहीं बतायी थी। पूछने पर मालूम हुआ, कि उनमें से किसी को इन बातों में न तो कोई दिल्चस्पी थी, न इस संबंधी कोई अनुभव। दो-एक मित्रों ने जो थोड़ी-बहुत बातें बताई, उनसे मेरे मन में उन आदिवासियों को देखने की और उनके संबंध में कुछ अधिक जानने की इच्छा तीव्रतर ही हुई। वैसे तो हमारी सारी उत्कट इच्छाएँ फलीभूत होती हों, ऐसा अक्सर नहीं होता, पर यह इच्छा पूरी होने का योग आया।
पूर्वी अफ्रीका में भटकते समय जब भी मौका मिला, मैं वहाँ बसने वाली अनेक आदिम जातियों से मिला। मन में महत्त्वाकांक्षा तो यह थी, कि मानवचेतना की उत्क्रांति की दृष्टि से उनका गहन अध्ययन किया जाय, पर इतना समय मेरे पास नहीं था। सौभाग्य से, इन कबीलों का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन करने वाले एक अंग्रेज सज्जन से मुलाकात हो गयी। उनका नाम है डाक्टर लीको। वे नैरोबी म्यूजियम के क्यूरेटर हैं। उनके सान्निध्य में कुछ घंटे बिताने का मौका मिला। इस दौरान उनके साथ किकुयु आदिवासियों के संबंध में विचारों का आदान-प्रदान करने का जो अवसर प्राप्त हुआ, उससे मन को बेहद आनंद हुआ। इसी बहाने अफ्रीकी प्रश्नों के उस विशेषज्ञ समाजशास्त्री के विचारों को समझने का मौका भी मिला।
अगस्त के दूसरे सप्ताह में मैं नैरोबी से मोम्बासा जाने का विचार कर रहा था। एक मित्र ने सुझाया, कि वाखाम्बा कबीले के लोगों से मिलने का ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। वाखम्बाओं के विषय में जब से कुछ जानकारी मिली थी, तब से उस कबीले के लोगों को देखने की व उनसे मिलने की इच्छा मन में प्रबल हो उठी थी। कुछ समय पहले ही वहाँ की गोरो सरकार ने जब वाखाम्बाओं के जंगलात में बड़ी संख्या में मवेशी अनिवार्य तौर पर कत्लखाने भिजवाने का फरमान निकाला था, तब उस जाति के अहिंसक सत्याग्रह से उसका प्रतिकार किया था। लगभग चार-पाँच हजार वाखाम्बा स्त्री-पुरुष अपने बालबच्चों के साथ नैरोबी में धरना दे कर पड़े रहे। इस अहिंसक सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सरकार को समझौता करना पड़ा था, परंतु उनके मुखिया सेम्युअल मोहिदी को देशनिकाला दिया जाने के काराण असंतोष बना रहा था।
इन हँसमुख, सीधे- सादे और भोले किसानों से मिलने का मौका मिलते ही हम दोपहर के भोजन के बाद गाड़ी से नैरोबी से पचास मील दूर मचाकोस जाने के लिए निकले। मचाकोस की गिरिमालाएँ ही वाखाम्बाओं का निवास स्थान है। कोई पचीस मील जाने के बाद हमने आथी नदी पार की। रास्ते में वन्य पशुओं के झुण्ड के झुण्ड दिखाई देने लगे। शेर छोड़कर सभी अफ्रीकी जानवार दिखाई दिये। जिराफ, जेब्रा और हिरनों के सैंकड़ों के झुण्ड। आथी नदी का पूरा प्रदेश इन पशुओं की नैसर्गिक निवासभूमि है।
मचाकोस गाँव में हमने कार छोड़ दी। वहाँ के एक भारतीय परिचित ने हमारे लिए जीप की व्यवस्था की थी। उसी में हम पहाड़ी पर चढ़े। साथ में उस प्रदेश का जानकार स्थानीय वाखाम्बाओं को नेता फिलिप भी था। उसकी सहायता से वाखाम्बा स्त्री-पुरुषों से संपर्क स्थापित हो सका। बातचीत तीसरे नहीं बल्कि चौथे मुख से पूर्ण होती थी। हमारे साथ के मित्र स्वाहिली जानते थे और फिलिप स्वाहिली एवं वाखाम्बा दोनों भाषाएँ जानता था। अतः क्रम इस प्रकार चला, कि मैं गुजराती में सवाल पूछता, मेरे मित्र उसका स्वाहिली अनुवाद कर के फिलिप से कहते और वह अपनी भाषा में वाखाम्बाओं से पूछ कर हमें समझाता। वार्तालाप का यह तरीका बड़ा मनोरंजक सिद्ध हुआ। वाखाम्बाओं से मिलते-मिलते फिलिप के साथ हम एक ऊँची पहाड़ी पर पहुँच गये। रास्ता खराब था और दिन ढल रहा था, लेकिन जीप चालक की कुशलता के कारण हम सूर्यास्त से पहले ही फिलिप के घर पहुँच गये। प्रदेश की बीहड़ता को देखते हुए यह अच्छा ही हुआ।
मचाकोस की उस पहाड़ी पर से जो सूर्यास्त देखा, वैसा भव्य और काव्यमय दृष्य जीवन में क्वचित ही दिखाई देता है। मेरे मित्र तो मुग्ध हो कर गायत्री मंत्र का उच्चारण करने लगे। फिलिप ने आदमी भेज कर अपनी दोनों पत्नियों को खेत से बुलवाया। पश्चिमी क्षितिज पर आकाश रंगों का क्रीडांगण हो रहा था। फिर चमकीले, तेजस्वी रंग धीरेधीरे धुंधले होते गये और आकाश की सघन नीलिमा ने उन्हें अपने उदर में समा लिया। अंधेरा अभी उतरा नहीं था। तेज-छाया और अंधेरे-उजाले की इस आंख मिचौली का दृष्य और पीठ पर अनाज के बोरे उठाये पहाड़ी चढ़ने वाली फिलिप की पत्नियों की मूर्तियाँ मानस पर सदा के लिए अंकित हो गयी। मानो समस्त पद्दलित मानवजाति के प्रस्वेद ने घनीभूत हो कर उन दो आकृतियों का निर्माण किया हो। इस प्रकार ये दोनों स्त्रियाँ जीवन का बोझ पीठ पर लादे हाँफती हुई, पहाड़ी चढ़ रही थी। उनकी चाल में जिस विवशता, जिस धैर्य और जिस कारुण्य के दर्शन हुए, उसका वर्णन करने की शक्ति मेरी लेखनी में नहीं है। वे ऊपर पहुँची, तब तक अंधेरा हो चुका था। घर में इतने मेहमानों को देख कर वे भौचक्की रह गयी। साथ ही उन्हें आनंद और संतोष भी हुआ।
अंधेरा घना होने से पहले ही हमने पहाड़ी से उतरना शुरू कर दिया। घाटी में पहुँचने पर हमारी जीप के भारतीय चालक ने बताया, कि पास ही के जंगल में एक हिन्दुस्तानी बूढ़ा रहता है, जो पूर्णतः वाखाम्बा बन चुका है। उसका नाम है पूरन। पचास वर्ष से भी अधिक समय से वह यहाँ रहता है। खान-पान, बोली भाषा, रहन-सहन, सब दृष्टियों से वह उनमें घुलमिल गया है। सिर्फ नमक, शक्कर या दियासलाई जैसी चीजें खरीदने के लिए ही वह बस्ती में आता है। मेरे मन में जिज्ञासा जाग्रत हुई। मैने मित्रों से कहा और कुछ देर में ही हम उसके आंगन में पहुँच गये। बिलकुल अफ्रीकी आदिवासियों के से “झुम्बो (झोंपड़े) में वह रहता था। उसकी एक प्रिय गाय और दो बकरियाँ भी उसी झोंपड़ी में साथ रहती थी। पूरन की मातृभाषा हिंदी ही होनी चाहिए, यह मैं तुरंत पहचान गया, पर हिंदी बोलने की उसकी बिलकुल इच्छा नहीं थी। शायद इससे पुरानी यादें जाग्रत हो उठने की संभावना थी, जिसे वह टालना चाहता था। अपनी मरजी से तो यह वाखाम्बा भाषा ही बोले जा रहा था। मैंने उसे धीरे-धीरे और बेमालूम हिंदी के रास्ते पर मोड़ा। बुढऊ बहुत खुश हुआ। मैं भारत से आया हूं, यह जान कर तो वह मुझसे लिपट गया। शीघ्र ही उसे विश्वास हो गया, कि मैं कोई ‘साहब’ या फोटो खींच-खींच करके परेशान करने वाला ‘टूरिस्ट नहीं हूँ, बल्कि उसके साथ मित्रता करने को इच्छुक स्वदेश बंधु हूँ। उसका संकोच दूर हो गया। बातें होने लगी।
बीस-पचीस साल की उम्र में वह यहाँ आया था। इस बात को कितने वर्ष हुए, उसको मालूम नहीं। जानने की इच्छा भी नहीं। अतीत उसका रास्ता नहीं रोकता और भविष्य की उसे परवाह नहीं। इस समय उसकी उम्र अस्सी से भी अधिक होगी। दुनिया की प्रगति की उसे कुछ खबर नहीं थी। नमक या शक्कर खरीदने के लिए मचाकोस गाँव जाने पर भारत या विलायत हो आने वाले जिन लोगों से मुलाकात होती थी, उन्हें देख कर तो उसे अपनी जिंदगी और भी भली लगने लगती थी। पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंग कर क्या पाया इन लोगों ने? उसका जीवन बाह्य दृष्टि से भले ही सुसंगत या प्रगतिशील दिखाई न दे, इतना ही नहीं, वह असभ्य और अधोगति की ओर बढ़ता हुआ दिखाई दे, तो भी उसकी बातों में तथ्य अवश्य था। मुझे उसकी बातें दिलचस्प लगी और उसका व्यक्तित्व आकर्षक। अस्सी नब्बे वर्ष का यह वृद्ध छोटे बालक के समान निर्दोष और निष्छल था। वह साहबी ढंग के कपड़े और बाहरी टीपटाप वाले हृदयहीन मनुष्यों के जैसा छिछला और दम्भी मालूम नहीं हुआ। मैले और नाममात्र के कपडों और जंगली झाड़ी के समान बढ़ने वाली दाढ़ी मूँछों के कारण बदसूरत दिखाई देने वाला यह आदमी भीतर से संतुष्ट और भयरहित मालूम हुआ। मैंने उससे पूछा, कि जेट की रफतार के आगे बढ़ने वाले इस युग में इस प्रकार रहने में उसे क्या संतोष मिलता है। उत्तर में उसने मुझे एक घटना सुनायी।
एक दिन शाम को वह नदीपार से आ रहा था। प्रतिदिन वह जिस प्रकार नदी पार करता था, उस रोज भी उसी प्रकार कर रहा था। पहाड़ी पर जोर की वर्षा हुई थी, यह उसे मालूम नहीं था। वह लगभग नदी के बीच में पहुँचा होगा, कि पानी कमर तक बढ़ गया और प्रवाह का वेग असह्य हो उठा। आगे बढ़ने की तो बात ही छोड़िये, जहाँ खड़ा था, वहाँ जमे रहना भी मुश्किल हो गया। वापस लौटना नहीं था और लौटना संभव भी नहीं था। जाना तो आगे था। अतः पूरी रात वह प्रवाह के बीच में ही खड़ा रहा। पूरी रात प्रवाह के साथ बह जाने से बचने के पुरुषार्थ में बीती। सुबह बहाव का जोर कम हुआ, तब सामने के किनारे पर पहुँचा।
कुछ देर शांत रह कर उसने कहा, “इस दुनिया में अज्ञान के प्रवाह का जोर बहुत बढ़ा गया है, साहब! अभी तो उसमें बह न जाऊँ, इसका पुरुषार्थ करना पड़ रहा है। बहाव की गति कम होने पर पार उतर सकूंगा। बह कर चाहे जहाँ पहुँचना नहीं चाहता। मुझे तो निश्चित दिशा में आगे बढ़ना है। इसके लिए कुछ देर तक रुके रहना पड़े तो कोई हर्ज नहीं।”
इतने में उसकी बकरी मिमियाई। गाय ने भी रंभा कर मानो उसे बुलाया। हमारी अनुमति मांगे बिना और हमारी जरा भी परवाह किये बिना वह उठ कर चला गया। सभ्यता के इन बंधनों को तो वह कभी का तोड़ चुका था। अंधेरे में मैं उसे जाते हुए देखता रहा। मेरे मन में प्रश्न उठा, कि आज का मनुष्य उद्देश्यहीन भटकते हुए चाहे जिस अनिश्चित स्थान पर पहुँच जाने को या अपने ही इर्द गिर्द चक्कर काटते रहने को ही तो प्रगति नहीं मान बैठा? पूरन ने यही प्रश्न उठाया था, जिसका उत्तर वह खुद था।
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