Deconstructing Modernity शृंखला के भाग – १ में हमने देखा कि कैसे भय का वातावरण सब तरफ खड़ा किया गया है।
यहां भय दो प्रकार का है, एक तो कोरोना का भय है और एक भयभीत होने की मनोस्थिति है। दोनों ही तरह के भय से पार पाने की चेष्टा साधारण व्यक्ति की अलग होती है और आजके तथाकथित पढ़ेलिखे, scientific temperament वाले व्यक्ति की अलग होती है।
साधारण व्यक्ति मीडिया को इतना महत्त्व नहीं देता, जितना एक पढ़ा लिखा व्यक्ति देता है, साधारण व्यक्ति के लिए किसी वैज्ञानिक के द्वारा या किसी डॉक्टर के द्वारा कही गई बात उतनी महत्त्वपूर्ण अथवा उतनी भयावह नहीं होती, जितनी एक पढ़ेलिखेे दिमाग के लिए होती है। परंपरा में अनिश्चितता को स्वीकारा जाता है और इसीलिए कुछ नया हो जाना या कुछ अलग हो जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं मानी जाती, उसे भी स्वीकार किया जाता है, जबकि आधुनिक दिमाग अनिश्चितता को समझ ही नहीं पाता, ना तो स्वीकार कर पाता है। व्यक्ति जितना अधिक scientifically tempered, उतना ही वह सबकुछ अपने नियंत्रण में चाहता है, उसके लिए विश्व एक बड़ी यंत्रणा के स्वरूप में है, जिसमें हर क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चित ही होती है और यदि वह प्रतिक्रिया थोडी सी भी बदल जाए, तो आधुनिक दिमाग उसे स्वीकार नहीं कर पाता और अस्वीकार्यता में से ही भय की उत्पत्ति भी होती है। जहां अनिश्चितता का अस्वीकार है, वहां आस्था का भी अस्वीकार है और जहां आस्था का अस्वीकार है, वहां तो भय होगा ही होगा।
सुनिए पवन गुप्त जी की वाणी में Deconstructing Modernity शृंखला का द्वितीय चरण: Fear of Unknown in Modern Mind।
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