किसी भी क्रिया के त्वरित परिणाम भी हो सकते हैं और दूरगामी भी हो सकते हैं। क्रिया के होते ही त्वरित परिणाम तो दिख जाते हैं, किन्तु दूरगामी असरों को जानने के लिए तो समय के साथ उसकी समीक्षा होती रहनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर आज यदि कोई कोरोना की दवाई निकाल कर कहे, कि इससे कोरोना ठीक होता है (और संभवत: होता भी हो) तो लोग फट से उसे लगाने के लिए दौड़ पड़ेंगे। हो सकता है, कि उस दवाई का किडनी पर, लीवर पर, फेफड़ों पर या किसी भी अंग प्रत्यंग पर बुरा असर होता हो, जो कि दवाई की खपत के दस बीस साल बाद ही पता चलता हो, तो नई चीजों के प्रयोग के साथ हमेशा यह खतरा रहता ही है।
जो पारंपरिक है, वह समय की कसौटी पर खरा उतरा है, time tested है और इसीलिए साधारण जनमानस में उसकी स्वीकृति भी है। नया तो कभी time tested हो ही नहीं सकता, अत: उसकी स्वीकृति थोड़ी कम होती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि नया कुछ हो ही नहीं, परंतु नया कुछ भी स्वीकार करने से पूर्व साधारण – पारंपरिक दिमाग में जो एक झिझक होती है, वह बड़ी आवश्यक है।
आधुनिक व्यक्ति लगातार हड़बड़ाहट में ही जीता है, उसके पास समय नहीं होता, अवकाश नहीं होता और चीजों के time tested होने की प्रतीक्षा वह कर नहीं सकता, जिससे वह बहुत नुकसान को भोगता है।
धीमी गति के जीवन को आलस्य के साथ जोड़ दिया जाता है, अप्रगतिशील मान लिया जाता है। परंपरा में धीमी गति को बड़ा महत्त्वपूर्ण माना गया है। धीमी गति के जीवन में सब दृष्टिकोणों से अवलोकन किया जाता है, अवलोकन के आधार पर चिंतन मनन किया जाता है, फिर निष्कर्ष निकलता है, तो अच्छी बात है, नहीं भी निकलता, तो भी कोई परेशानी नहीं है, जबकि आधुनिक दिमाग की चेष्टा रहती है कि अवलोकन के नाम पर प्रयोगशाला में कुछ भी जल्दी से देख लिया जाय और निष्कर्ष तक पहुंचा जाय, फिर चाहे निष्कर्ष की सत्यता कितनी ही संदेहास्पद हो। चिंतन मनन की पूरी प्रक्रिया को तो छोड़ ही दिया जाता है। कृष्णमूर्ति कहा करते थे कि Stay with the question, प्रश्न के साथ समय बिताओ, उसके साथ रहो, उत्तर स्वयं प्रकट होगा, जो प्रमाणित भी होगा।
परंपरा में प्रत्यक्ष रूप से असम्बद्ध लगने वाली व समय के बड़े अंतरालों में होने वाली बातों को जोड़ने की क्षमता रही है, जिसे कोरा तर्क समझा नहीं सकता। होली के समय चलने वाली हवाओं के आधार पर, होली के आसपास बन रहे कौए के घोंसले के स्थान के आधार पर व आसमान में दिखने वाले नक्षत्रों के आधार पर चार महीने बाद होने वाली बारिश की भविष्यवाणी की जाती है, जो सही भी बैठती है। जिस संध्या को जिस गाँव का आसमान रक्तिम दिखे, उस दिन से तिथि के अनुसार बराबर ९ महीने बाद उसी गाँव में वर्षा होती है। यह सब प्रकृति के अवलोकन के आधार से ही संभव होता है, आधुनिक दिमाग न तो यह अवलोकन कर पाता है और यदि कोई इस अवलोकन की उससे बात करे, तो उस अवलोकन का तार्किक आधार खोजने में लग जाता है।
यह आधुनिक दिमाग की क्षमता से परे है कि जो तर्क की सीमा से परे हों, वैसी बातों को वो जोड़कर वो उनका अंतर्संबंध समझ सके। स्विच दबाते ही अंधेरा उजाला होना तो कोई भी देखकर समझ सकता है, किन्तु आज होने वाली क्रिया के आधार पर कुछ महीनों सालों बाद होने वाली क्रियाओं को समझ पाना आधुनिकता के बस में नहीं होता।
आधुनिकता में पुराने का तिरस्कार और नए का स्वागत होता है, जो न केवल हिंसक है, बल्कि स्वयंघाती भी सिद्ध होता है।
परंपरा में नए का विरोध नहीं है। परंपरा एक धारा की भांति है, जिसमें नया पुराने से फलित होता रहता है और नया जो है, वह पुराना बनते बनते सिद्ध भी होते रहता है।
आधुनिक दिमाग किसी एक वस्तु के उपर एकदम ही केन्द्रित होता है, जिसके कारण वह आसपास का सबकुछ देखना चूक जाता है और अपनी सीमित दृष्टि को ही सबकुछ मानकर चलते रहता है। वह केवल utilitarian सोच ही रखता है और उसकी क्रिया का समाज के उपर क्या असर होगा, उससे अनभिज्ञ रहने में ही समझदारी मानता है और इसी सीमित दृष्टि के कारण समाज में द्वेष, प्रतिस्पर्धा, लोभ, हिंसा सभीको बढ़ावा भी मिलते रहता है।
सुनिए पवन गुप्त जी की वाणी में Deconstructing Modernity शृंखला का शष्ठ चरण: Civilizational Reliability on Test of Time।
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