सन 1824 में कलकत्ता के पास बेरेकपुर में भारतीय सैनिकों ने एक सैन्य विद्रोह किया था, जिससे अंग्रेज़ बहुत ही घबरा गए थे, लेकिन उसके चंद सालों में ही तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने लंदन स्थित अपने उच्च अधिकारियों के नाम एक चिठ्ठी लिखी थी, जिसमें उसने लिखा था कि Now there is nothing to worry, because the educated Indian has started imitating our ways and he is leaving his own ways. इस बात का उदाहरण देते हुए वह बताता है कि पढे लिखे भारतीय दान दक्षिणा की अपनी परंपरा छोड़कर बचे हुए पैसों से हमारे (अंग्रेजों के) जैसा बनने का प्रयास कर रहे हैं (हमारी नकल उतारते हैं) या तो फिर उन पैसों से हमें खुश करने का प्रयास करते हैं।
यह दिखाता है कि उस समय दान दक्षिणा की कितनी मजबूत व्यवस्था हुआ करती होगी और अङ्ग्रेज़ी पद्धति की शिक्षा ने पढे लिखे भारतीयों के मन में इस बात को जड़ दिया था कि अंग्रेज़ एक ऊंची नसल के लोग हैं और अपना सबकुछ छोड़कर उनके जैसे बनने में ही श्रेष्ठता समाहित है।
हम उस समय अंग्रेजों की नकल करते थे, आज अमरिकनों की नकल करते हैं, कल किसी और की नकल करेंगे। अङ्ग्रेज़ी शिक्षा से पाई इस आदत को हम छोड़ नहीं पाए हैं। आज किसी भी बड़े नेता या अफसर को देख लिया जाय, तो पहनने के कपड़ों से लेकर, सोचने व बात करने के तरीकों तक वे भारतीयता को बिना जाने समझे तिरस्कृत करते पाए जाएंगे और पश्चिम की बिना सोचे समझे नकल उतारते पाए जाएंगे।
उन्नीसवीं सदी में प्रारंभ हुए कई तथाकथित धर्म सुधारणा अभियानों का प्रारंभ भी स्व के प्रति हीनता बोध से ही हुआ पाया जाता है, अपने धर्म को science की कसौटी के उपर खरा उतारने की चेष्टाएँ की गई, लेकिन तथाकथित science की अपूर्णताओं एवं त्रुटियों के प्रति किसीने कुछ देखा – सोचा ही नहीं।
चार्ल्स ट्रेवेलियन भी वही बताता है कि जब तक वह दिल्ली में रहा कि जहाँ अङ्ग्रेज़ी पद्धति की शिक्षा प्रारंभ नहीं हुई थी, तब तक कभी चैन की नींद नहीं सो पाया, क्योंकि कभी इधर से तो कभी उधर से विद्रोह की खबर आ जाती, जबकि कलकत्ते में कि जहाँ अंग्रेजों की पद्धति की शिक्षा प्रारंभ हो चूकी थी, वहाँ उसने अंग्रेज़ सत्ता को दिल्ली की तुलना में सुरक्षित पाया।
कुछ ऐसे भारत अपने विगत से कटा और लघुताग्रंथि का शिकार बन गया व अपने इतिहास को जानना उसने जरूरी नहीं समझा।
शब्द लिखा या बोला या पढ़ा या सुना जाता है, संवाद की इंद्रियों से ग्रहण व अभिव्यक्त किया जाता है, जबकि उस शब्द का अर्थ संवाद की इंद्रियों से परे है, वह अनुभूति से समझा जा सकता है। शब्द का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, वह तो अर्थ का वाहक मात्र है, परंतु चूँकि शब्द दृश्य होता है और अर्थ अदृश्य होता है, शब्द की नकल करना सरल है और शब्द की नकल करने वाले कभी अर्थ की अनुभूति नहीं कर सकते।
नकल करने वाला व्यक्ति प्रवाहों के साथ बहते जाता है, उसका ना अपना कुछ सोचना होता है, ना अपना कुछ समझना होता है, ना अपना कुछ करना होता है और ऐसे लोगों को मानसिक गुलाम बनाना बड़ा आसान होता है। ये केवल trend के अनुसार चल पड़ते हैं, किसीने फटे हुए कपड़े पहनने का trend निकाला, तो वो पहनने लगे, किसीने बालों में कुछ ऊटपटाँग करने का trend निकाला, तो वो करने लगे, किसीने IIT IIM में जाने का trend निकाला, तो वहाँ जाने लगे, किसीने सॉफ्टवेयर का trend निकाला, तो उसमें जाने लगे, किसीने organic farming का trend निकाला, तो उसमें जाने लगे। इनका स्वत्व क्षीण हो चूका होता है।
जब शब्द की अर्थात् बाह्य दृश्यमान चीजों की नकल होती है, तो तुलना ही श्रेष्ठता का पैमाना बन जाती है और तुलना ही भौतिकवाद को भी जन्म देती है, जबकि आनंद, संतोष, विश्वास, आस्था इत्यादि भावों से ध्यान हटने लगता है। अंग्रेजों के शासन काल में भी कुछ इसी तरह से भौतिकवाद को भी बढ़ावा मिला। भौतिकवाद उससे पहले भी रहा होगा, किन्तु वह मर्यादित रहा था, जबकि अंग्रेजों के समय में भौतिकवाद को अत्यंत पोषण मिला और जो भारतवासी अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए शिक्षा रूपी चंगूल में जितने अधिक फँसे, उतने ही वे नकलची भी बनते गए और स्वयं से कटते भी गए।
सुनिए पवन गुप्त जी की वाणी में Deconstructing Modernity शृंखला का सप्तम चरण: Colonial Making of Contemporary Indian Mind।
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