आधुनिकता – गुरूजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी की दृष्टि से (२/५)

‘विविधता’ हमारी व्यवस्था में स्वाभाविक रूप से पोषित होती है। तथाकथित भौगौलिक परिस्थितियों में विविधता के अलावा भी भारतीय समाज में व्यवस्था-जनित अन्य ढेरों चीजें थीं, जिनके कारण हमारा समाज विविधतापूर्वक जीता था। आजकी आधुनिक व्यवस्था, भौगौलिक परिस्थितियों में पहले की तरह की ही विविधता होने के बावजूद भी, सब कुछ एक जैसा, एक समान बनाने में लगी हुई है।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक आज लगभग सब कुछ – भाषा, वेष – भूषा, भोजन, भवन, इमारतें, पूरा का पूरा architecture, रहन-सहन, तीज-त्योहार, शादी-ब्याह, फसलें, सब्जियां, बीमारियाँ, दवाईयाँ, हर सारी चीज की डिजा़इनें आदि – सब कुछ एक समान होता जा रहा है, एक रूप होता जा रहा है।
जबकि भारतीय व्यवस्था में आज की तरह के बड़े – बड़े कारखाने के बदले छोटी टेक्नोलॉजी होने के कारण हर क्षेत्र में हर चीज की अपनी अलग डिजा़इन हुआ करती थी। हर क्षेत्र का रहन-सहन, खान-पान, भाषा, भवन, वेष-भूषा सब अलग-अलग होता था, जो कि आज हर जगह एक जैसा होते जा रहा है। आधुनिक व्यवस्था पूरी तरह से एकरूपता की पोषक है, जबकि भारतीय व्यवस्था में विविधता सहज रूप से समाज में व्याप्त थी।

भारतीय जीवनशैली में हर चीज की अपनी एक गति रही है, जबकि आधुनिकता में हर चीज बहुत ही गतिशाली है। जब जीवनशैली की गति धीमी होती है, तो उसमें बहुत कुछ पनपता है। यह बहुत कुछ हमारी हवाओं और नदियों की तरह ही होता है। जब नदी धीमी गति से बहती है, तो उसमें और उसके आसपास बहुत कुछ पनपता है। इसी तरह जब हवाएँ मंद-मंद बहती हैं, तो उस अवस्था में भी वातावरण में बहुत कुछ पनपता है, परन्तु जब यह दोनों ही तेज गति से बहकर बाढ़ या तूफान का रूप ले लेती हैं, तो अपने आसपास का सब कुछ नष्ट करते चलती हैं।

भारतीयता और आधुनिकता में भी यह अंतर दिखाई देता है। धीमी गति से जीवनशैली होने से मनुष्य के मन में बहुत सोच चलती है। यही कारण है, कि इस जीवनशैली में साहित्य, संगीत, डिजा़इन, आध्यात्मिकता, सामाजिकता आदि बहुत कुछ पनपता है। वहीं तेज गति वाली जीवनशैली में व्यक्ति इतना व्यस्त होता है, कि उसमें इन सारी चीजों को लेकर कोई सोच नहीं चल पाती है। उसकी सारी सोच दैनिक जीवन की व्यवस्तताओं में ही सिमट के रह जाती है।
भारतीय सभ्यता में छोटी टेक्नोलॉजी का ही महत्व रहा है, जबकि आधुनिक व्यवस्था में बड़ी टेक्नोलॉजी बहुत महत्वशाली हो गई है, जिसके अपने ढेरों तरह के नतीजे सामने हैं। हमारे लोग चाहते तो हमारा समाज भी बड़ी-बड़ी टेक्नोलॉजी बना सकता था, मगर छोटी टेक्नोलॉजी के दर्शन को समझकर उन्होंने छोटी टेक्नोलॉजी को ही महत्व दिया।

भारतीय सभ्यता में भिक्षावृत्ति पर जीने वाले लोग हमेशा से पूजनीय, वंदनीय रहे हैं। आधुनिक व्यवस्था में इस तरह के सारे लोग ‘भिखारी’ का तमगा पाकर एकदम निकृष्ट जीवन जी रहे हैं। हालाँकि भिक्षावृत्ति एक सुंदर व्यवस्था थी, जिसे आज तो कदाचित ही कोई समझता होगा।
आधुनिक व्यवस्था और हमारी भारतीय व्यवस्था में, आधुनिकता और भारतीयता में यही कुछ अंतर है। दोनों एक दूसरे से एकदम उल्टी है। इस अंतर को हम जितने गहरे से, जितने अच्छे से समझ लें, आधुनिकता और आधुनिक व्यवस्थाओं की भी उतनी गहरी समझ हमको होती जाएगी।

इसी संदर्भ में गुरूजी अपने साथ घटी एक घटना सुनाते हैं। एक बार, उनके क्षेत्र में, कुछ लोगों ने औरतों को भोजन करने वाली पत्तल बनाने का प्रशिक्षण दिलवाया। एक पत्तल बनाने वाली मशीन लगाकर उनको पत्तल बनाना सिखाया गया। उसके समापन कार्यक्रम में गुरूजी को भी बुलाया गया। उस समापन कार्यक्रम में औरतें प्रशिक्षण देने वाले अधिकारियों से पूछ रही थी कि
“ये पत्तल जो हम लोग बनाएंगे, उसको आप किस कीमत में लेंगे।”
वो बोले कि “एक पत्तल हम 20 पैसे में लेंगे।”
“मगर हम जो हाथ वाली पत्तल पहले से बनाते आए हैं, वो तो बाजा़र में 40 से 60 पैसे में बिकती है। हम बच्चों को दूध पिलाते हुए पत्तल बना लेते हैं, खाना बनाते हुए कुछ पत्तल बना लेते हैं, ऐसे ही और कुछ – कुछ काम करते हुए कुछ – कुछ पत्तल बना लेते हैं। यहाँ मशीन में पत्तल बनाने के लिए तो हमको अपने वो सारे काम छोड़कर आना होगा। दूसरे सारे काम करते हुए ये पत्तल तो नहीं बनाए जा सकते।
और दूसरा हमको पता है, कि किस त्योहार में किस पत्ते की पत्तल में खाना खाया जाता है, क्योंकि अलग –अलग त्योहार में, अलग – अलग महीनों में अलग – अलग तरह की पत्तल लगती है। एक ही तरह की पत्तल में बारहों महीने खाना नहीं खाया जाता है। चैत्र और बैसाख मास में तो पत्तलों में खाना ही नहीं खाया जाता है।
यहाँ की ये सारी पद्धतियाँ तो हमको मालूम हैं। मगर ये तो हमको पता नहीं है कि इन मशीनों में बनाई गई पत्तलों पर खाना कौन खाएगा। क्योंकि यहाँ के लोग तो इन पत्तलों में खाना नहीं खाएंगे और फिर ऊपर से तुम 20 पैसे में एक पत्तल खरीदने की बात कर रहे हो। हम भला इतना नुकसान भोग कर ये काम क्यों करें।”
वो बोले कि “तुम्हारी बनाई पत्तलों में लोग फाईव स्टार होटलों में खाना खाएंगे।”
“कोई भी खाए, कहीं भी खाए, पत्तलें तो उसमें खाना खाकर फेंकने की चीज ही हैं। खाना खाकर ये भी फेंकी ही जाएगी। हमको भला उससे क्या फायदा! हमारे लिए तो हमारी रोजी़ – रोटी की बात है। हमको तो अपने बच्चे छोड़कर, अपना बाकी काम – धाम छोड़कर, यहाँ सेंटर पर आकर पत्तल बनाने के बाद भी जब एक पत्तल का 20 पैसा ही मिलना है, तो उसमें भला हमारा क्या फायदा!”
इतनी सब बात सुनकर, वहाँ के अधिकारी लोगों को थोड़ा गुस्सा आ गया। वो बोले, कि “तुम लोग कुछ तो आधुनिक बनो। आधुनिक बनने के लिए कुछ तो नुकसान भोगना पड़ेगा। इतना भी नुकसान नहीं भोगोगे, तो कब आधुनिक बनोगे!!!”
गुरूजी कहते हैं, कि आधुनिक बनने के लिए हमको थोड़ा नहीं, बहुत नुकसान भोगना पड़ता है। बहुत नुकसान भोग कर ही हम आधुनिक बनते हैं। एक बार हमको आधुनिकता से होने वाले इन सारे नुकसानों का जायजा भी ले लेना चाहिए। गुरूजी की नज़र से देखने पर आधुनिकता के कुछ नुकसान, कुछ दुष्परिणाम बड़ी आसानी से दिखाई दे जाते हैं।


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