धर्मपाल – रवीन्द्र शर्मा गुरुजी – आधुनिकता: भाग ५

धर्मपाल – रवीन्द्र शर्मा गुरुजी – आधुनिकता: भाग ५

गुरुजी के अनुसार भारत में गलियाँ एक दूसरे को सीधे नहीं काटती। उनकी एक जटिल घुमावदार टेढ़ी-मेढ़ी संरचना होती है। वृन्दावन-बीकानेर अथवा पुरानी दिल्ली या फ़िर किसी भी पुराने शहर में घूमने वाले लोग इसे सहज ही अनुभूत कर सकते हैं।

यूरोप के पुराने शहर मस्लन विएना अथवा प्राग या फ़िर ग्रीस के पुराने शहर भी सीधी गलियों से निर्मित नहीं हैं। ईरान लेबनॉन अथवा सुदूर कोलंबिया के पुराने मोहल्ले भी उसी प्रकार के हैं, हालाँकि इसमें एक पेंच भी है। सिंधु घाटी सभ्यता के सबसे महत्त्वपूर्ण गुणों में एक है उसकी सड़कों का एक दूसरे को 90 degree पर सीधे काटना। ऐसा उसमें सब जगह नहीं है, परन्तु ये उस सभ्यता के डिज़ाइन का एक प्रमुख अवयव है। क्या सिंधु घाटी सभ्यता का तत्त्वदर्शन हमसे कुछ कह रहा है। उन्होंने 90 degree वाली सड़कें निर्मित किस कारण से की होंगी! गुरुजी होते, तो इसकी कुछ तात्त्विक व्याख्या हो सकती थी, परन्तु हम सभी को इसपर ठहरकर विचार अवश्य करना चाहिए, कि भारतीय उपमहाद्वीप के अब तक के ज्ञात सबसे पुराने अवशेष एक भिन्न डिज़ाइन पर आधारित कैसे रहे !

श्री गुरुजी अक्सर उल्लेख करते थे कि वर्णों के भीतर वर्ण होते हैं। अर्थात एक ही वर्ण में भिन्न भिन्न पेशे वाले लोग रहते हैं। यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण बिंदु है। उदाहरण के लिए ब्राह्मणों में ही भूमिहार-त्यागी-गौड आदि कृषि से जुड़े रहे हैं। मोह्याल कान्यकुब्ज आदि का एक बड़ा भाग सेना में भी रहा है। उस सिलसिले में परशुराम द्रोणाचार्य जी के आख्यान को देखना एक आवश्यक संकेत है। वैद्य एक प्रमुख उपनाम रहा है।पौरोहित्य तो ख़ैर हम सब जानते ही हैं। नृत्य-संगीत में भी उपस्थिति रही, जिसका प्रमाण पंडित रविशंकर, पंडित बिरजू महाराज आदि हैं ही।इसके अलावा भी दर्जनों प्रभेद हैं। किसी अलग आलेख में उन पर भिन्न चर्चा हो सकती है।

साफ़ है कि मनुस्मृति के आधार पर जो सरलीकरण किया जाता है, वो यथार्थतः वैसा नहीं है। उनके पेशे भिन्न-भिन्न रहे हैं। ये एक उदाहरण मात्र है। दूसरे वर्णों की तस्वीर भी ऐसी ही है। महाभारत का एक अध्याय जो ‘श्राद्ध में निमंत्रण योग्य’ ब्राह्मणों की चर्चा करता है – उसमें एक ही वर्ण के भीतर भिन्न भिन्न पेशों की चर्चा एक एक अच्छा उदाहरण है। महाराष्ट्र में ब्राह्मणों के भीतर कृषि को लेकर वर्ण संबंधी एक बहस कुछ सदियों पहले चली थी, जिसपर क्रिस्टोफर मिन्कोवस्की ने कार्य किया है। इन सारी बहसों को पढ़ने के बाद हम ये देख पाते हैं, कि गुरूजी की बात कितनी सत्य थी। अधिक विस्तार न हो, इसलिए संक्षेप में एक और बात का ज़िक्र उचित होगा।

भारत में कितने ही समुदाय ऐसे हैं, जिनके धार्मिक स्थलों पर आध्यात्मिक मार्गदर्शन हेतु उसी समुदाय के महंत होते हैं। कोई पश्चिमी व्यक्ति इसे सामुदायिकता का सीमित स्वरूप मान सकता है, लेकिन दूसरी नज़र से यह उस समुदाय की आध्यात्मिक ‘Autonomy’ अर्थात स्वायत्तता का प्रतीक है, या यूँ कहें, कि एक समुदाय के नीजि ‘ब्राह्मण’ वर्ण की रचनात्मक संरचना कर लेना। ऐसे ही कई वर्ण के भीतर चातुर्वर्ण्य का रोचक उदाहरण हो सकता है।

गुरुजी एक अन्य बात का भी ज़िक्र किया करते थे, कि भारत में आहार तथा समुदाय के लिए आवश्यक गरिमा का प्रबंध उसके परिवेश के भीतर ही हो जाता है। अतः कोई समुदाय बगैर किसी संकट -युद्ध अथवा आपदा के कहीं अन्यत्र जाना पसंद नहीं करेगा। यह बात भी भारत की समझ के लिए बहुत गहरा संकेत है। यहाँ सैंकड़ों वर्ष पुराने गाँव इसकी जीती-जागती मिसाल हैं।आदिवासी इलाकों में तो हज़ारों वर्षों से समुदाय एक ही परिवेश में रह रहे हैं। परन्तु इसके साथ ही समुदायों का एक जगह से दूसरी जगह जाना भी एक आवश्यक घटक है। उदाहरण के लिए स्वयं गुरुजी के ही पूर्वज पंजाब से आदिलाबाद गए।

जाति – कथाओं के अनुसार पूरे उत्तर भारत के अग्रवाल अग्रोहा से निकलकर बाकी भारत में फैले। स्वयं हमारे समुदाय की उत्पत्ति कथाओं में गौड़ ब्राह्मण बंगाल से आये। उनका ताल्लुक जन्मेजय के नाग यज्ञ में पौरोहित्य से भी जोड़ दिया जाता है। व्यापारी समुदाय विकसित होती मंडियों में शिफ्ट होते रहे। मुग़ल काल में जब आगरा और लाहौर मंडियों तथा व्यापार केंद्रों के रूप में विकसित हुए तो वहाँ समुदाय किस प्रकार आकर रहने लगे, उसपर विचार आवश्यक है। इसके अलावा भी बहुत से आख्यान हैं। कृषक समुदाय तो गोत्रों के हिसाब से अपने मूल स्थानों की स्मृति संजोये हुए हैं, जहाँ से उन्हें सूखे अथवा उपजाऊ भूमि की खोज में स्थानांतरित होना पड़ा।

गुरुजी द्वारा दिए विचार को मूल में रख हमें स्थायी निवास तथा स्थानांतरण दोनों पर एक साथ विचार का मार्ग मिल सकता है।

गुरुजी के चिंतन से गुज़रते हुए सबसे बड़ी कठिनाई उनके कहे हुए को मानने को लेकर नहीं होती, चूँकि अविश्वास का कोई कारण नहीं है। कठिनाई होती है, उनके कहे हुए तथ्यों के ‘रिट्रीवल’ अर्थात पुनर्प्राप्ति की। गुरुजी जब किसी पशु के अपशिष्ट उत्पाद से एक ख़ास रसायन प्राप्त करने की विधि का उल्लेख करते हैं अथवा मनुष्य के बालों से कोई विशेष धातु निष्कर्षित करने की बात – तो उसे पुनर्प्राप्त कैसे किया जाए, वहाँ उलझाव होता है। ये तो एक दो उदाहरण मात्र हैं। ऐसे अनेकानेक उदाहरण गुरुजी अपने व्याख्यानों में देते हैं।

कुछेक शोधार्थियों के मन में ये बात अवश्य उठेगी कि सुन लेना भर तो पर्याप्त नहीं हो सकता। भारत में उन सब विधियों को पुनर्प्राप्त करने के प्रयास हुए हैं। ‘Indian Journal of History of Science’ सरीखे शोध – उपक्रमों द्वारा भारतीय विज्ञान को अभिलेखित करने के गंभीर प्रयास हुए हैं। प्रफुल चंद्र रे सरीखे वैज्ञानिकों ने हिन्दू कैमिस्ट्री पर अध्यवसायपूर्ण कार्य किया और भी न जाने कितने ही उदाहरण हैं, परन्तु आज भी वह सब पूरी तरह पुनरुत्पादित नहीं हो पाया है। निश्चित ही कुछ विद्यार्थियों ने गुरूजी के साथ उनके आश्रम में रहकर उन विधियों के बारे विस्तारपूर्वक सीखा होगा। समय आने पर उनमें से कोई उन्हें विस्तारपूर्वक लिखेगा तो वो सब प्रक्रियाएँ अधिक स्पष्ट हो पाएंगी।

[क्रमशः]

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