21वीं सदी का सबसे बड़ा व्यापार, हथियारों व अन्य युद्ध सामग्रियों से जुड़ा हुआ है। संयुक्त राज्य अमेरिका का सबसे बड़ा सैन्य बजट है, जिसमें प्रतिवर्ष 876.9 अरब डॉलर का खर्च होता है। उसके बाद सबसे बड़ा सैन्य व्ययकर्ता चीन है, जो प्रतिवर्ष 292 अरब डॉलर खर्च करता है। चीन के बाद नम्बर आता है रूस का, जिसका सैन्य बजट प्रतिवर्ष 86.4 अरब डॉलर है। भारत और सउदी अरब भी शीर्ष पांच सैन्य बजटों वाले देशों में शामिल हैं, जिनके प्रतिवर्ष बजट क्रमशः लगभग 81.4 अरब डॉलर और 75 अरब डॉलर हैं। SIPRI (स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट) द्वारा 5 दिसम्बर, 2022 को जारी किए गए डेटा के अनुसार विश्व में हथियार और सैन्य सेवाओं की बिक्री के उद्योग से जुड़ी 100 सबसे बड़ी कंपनियों का कुल व्यापार 2020 की तुलना में 1.9 प्रतिशत वृद्धि दर से वर्ष 2021 में 592 अरब डॉलर तक पहुँच गया है। हथियारों के वैश्विक व्यापार में यह वृद्धि दर पिछले सात वर्ष निरन्तर दर्ज की जा रही है। हालाँकि, 2020-21 में वृद्धि की यह दर 2019-20 (1.1 प्रतिशत) की तुलना में अधिक थी, लेकिन यह कोविड-19 महामारी के पहले के चार वर्षों में यह दर औसतन 3.7 प्रतिशत प्रति वर्ष की रही है। राष्ट्र के बीच संघर्ष वर्तमान समय की एक बड़ी चुनौती है। मनुष्य ने अपनी विकृत मनःस्थिति के चलते ऐसे-ऐसे हथियार ईजात कर लिए हैं, जिनके चलते देश के देश मात्र एक गलत निर्णय से हमेशा के लिए समाप्त किये जा सकते हैं।
आधुनिक मनुष्य स्वयं को इस पूरी धरा का उपभोगकर्ता मानता है, इसलिए उसे हर वो सुख-सुविधा चाहिए, जो वो सोच सकता है। इस सोचने की कोई सीमा नहीं है और इसके केन्द्र में है – मनुष्य जाति का लालच। अपने इस लालच के चलते मनुष्य ने प्रकृति को इस कदर हानि पहुँचायी है, कि अब प्रश्न यह उठने लगे हैं, कि कितने और समय तक मनुष्य अपने अस्तित्व को इस धरा पर बचा पायेगा। पृथ्वी पर ह्रास होता पर्यावरण एक दूसरी बहुत बड़ी चुनौती है। आधुनिक वैज्ञानिकों के ही आंकड़े हमें बताते हैं, कि प्रतिवर्ष, हम पृथ्वी से अनुमानित 55 बिलियन टन फॉसिल ऊर्जा, खनिज, धातु और biomass का दोहन कर रहे हैं। हमनें अपने वनों को लगभग 80 प्रतिशत तक खो दिया है और हम रोज़ाना 375 किमी प्रतिदिन की दर से उन्हें खो रहे हैं। वैज्ञानिकों की गणनाएँ हमें बताती हैं, कि वनों की जैव विविधता 5-10 प्रतिशत प्रति दशक की दर से लुप्त हो रही है। हर घंटे 1,692 एकड़ उपयोगी भूमि रेगिस्तान में परिवर्तित हो रही है। भारत, यूरोप और मेक्सिको के कुल भूभाग के क्षेत्रफल के बराबर प्लास्टिक कचरे की द्विप हम समुद्र में बना चूके हैं। हम पृथ्वी से मौजूदा प्राकृतिक संसाधनों से 50 प्रतिशत अधिक का उपभोग कर रहे हैं। हमारी मौजूदा जनसंख्या में हमें 1.5 पृथ्वी की आवश्यकता है, जो हमारे पास नहीं है।
एक ओर पर्यावरण का ह्रास और दूसरी ओर अंधाधुंध तकनीकों का विकास। तकनीकों के इस विकास से मुनष्य द्वारा निर्मित की गयी व्यवस्थाओं पर ही प्रश्न उठने लगे हैं। इजरायल के विश्व प्रसिद्ध लेखक एवं विचारक युवाल नोआ हरारी ने अपने पिछले एक लेख में कृत्रिम बुद्धिमत्ता से जुड़े खतरों से विश्व को आगाह करते हुए कहा है, कि प्रजातंत्र एक ऐसी भाषा है, जिसमें मायनेदार बातचीत होती है, लेकिन अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता इस भाषा को hack कर सकती है और इससे यह तकनीक भविष्य में प्रजातंत्र को पूरी तरह नष्ट भी कर सकती है। लेखक ने कहा है, कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उदय समाज पर गहरा प्रभाव डाल रहा है; यहाँ तक, कि आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और मानसिकता के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित कर रहा है। उनका कहना है, कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता मानवों के साथ गहरे संबंध बना सकती है और उनके निर्णयों और दृष्टिकोण पर प्रभाव डाल सकती है; यहाँ तक, कि उन्हें बदल भी सकती है।
युद्ध, हथियार, पर्यावरण और तथाकथित सूचना तंत्र वर्तमान समय की सबसे प्रमुख चुनौतियों में से कुछ हैं और इसके अतिरिक्त गिरते मानव मूल्य, शिक्षा का गिरता स्तर, राष्ट्रों के बीच व स्थानीय स्तर पर समुदायों के बीच बढ़ता तनाव, राजनैतिक अस्थिरता, अनिश्चित भविष्य आदि अनेक अन्य वैश्विक चुनौतियाँ हैं, जिनका सामना 21 वीं सदी के मनुष्य को करना पड़ रहा है। इन सभी समस्याओं के मूल में मनुष्य की बदली हुई मनःस्थिति है, जिसकी चर्चा हम शुरु में कर चूके हैं। क्या मानव इन चुनौतियों से बाहर निकल सकता है? वर्तमान में हम बड़े स्तर पर यह देख रहे हैं, चारों ओर अनेक प्रकार के समाधानों पर विमर्श चल रहा है। यहाँ तक, कि यह विमर्श भी अब एक आकर्षक व्यापार बन चूका है। मनुष्य स्वयं में कोई परिवर्तन नहीं चाहता, जबकि इस पूरी स्थिति के लिए उसके सिवा दूसरा कोई भी जिम्मेदार नहीं है। अपनी मनःस्थिति की विवेचना किये बिना सभी प्रस्तावित समाधान और उन पर होने वाली राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर की चर्चाएँ सिर्फ एक व्यापार मात्र ही नहीं है, बल्कि इस पूरी परिस्थिति को दिया जा रहा एक प्रकार का अपरोक्ष समर्थन ही है।
इस पूरे माया जाल से बाहर आने के लिए भारतीय सभ्यता के मूल में छिपे कुछ सूत्र अत्यन्त सहायक हो सकते हैं। इन सूत्रों के आधार पर यदि हम अपनी मान्यताओं और धारणाओं को विकसित करने का प्रयास करते हैं, तो हमारी मनःस्थिति अपने मौलिक स्वरूप को प्राप्त होगी। इसकी शुरूआत सिर्फ भारत से ही संभव है। प्रसिद्ध इतिहासकार धर्मपाल जी अपने एक लेख में कहते हैं, कि ‘‘हमारे पैरों के नीचे अपनी कोई जमीन नहीं है। अपने चित्त व काल का अपना कोई चित्र नहीं है। अपनी कोई विश्वदृष्टि नहीं है। इसलिए ठीक-ठाक चलने वाले समाजों के लोग जो बातें सहज ही जान जाते हैं, वही बातें हमें भूल-भूलैया में डाले रखती हैं। राज, समाज व व्यक्ति के आपसी संबंध क्या होते हैं? किन-किन क्षेत्रों में इनमें से किस-किस की प्रधानता होती है? व्यक्ति-व्यक्ति के बीच संबंधों के आधार क्या हैं? शील क्या होता है? शिष्ट आचरण क्या होता है? शिक्षा क्या होती है? सौंदर्य क्या होता है? इस प्रकार के अनेक प्रश्न हैं, जिनके उत्तर एक स्वस्थ समाज में किसी को खोजने नहीं पड़ते। अपनी सहज परंपरा से जुड़े और चित्त व काल के अनुरूप चल रहे समाजों में ये सब बातें अपने आप परिभाषित होती चली जाती हैं। पर हम क्योंकि अपने मानस व काल की समझ खो बैठे हैं, अपनी परंपरा के साथ जुड़े रहने की कला भूल गए हैं, इसलिए ऐसे सभी प्रश्न हमारे लिए सतत खुले पड़े हैं।’ यह प्रश्न तभी उत्तरित होंगे, जब हम ऐसी मेधा विकसित करने के बारे में विचार करेंगे, जो सम्पूर्ण अस्तित्व में सनातन मूल्यों को देखने में सक्षम होगी और फिर उनके अन्तर्निहित एक नवीन विश्वदृष्टि विकसित करेगी। सनातन मूल्यों पर आधारित वैश्विक दृष्टि का किसी भी सम्प्रदाय या समुदाय से कोई विशेष सीधा सम्बन्ध नहीं होगा। इस तरह के किसी सम्बन्ध को देखने से यह विराट दृष्टि अन्य दृष्टियों के समान संकुचित हो जायेगी। यह दृष्टि सम्पूर्ण अस्तित्व को धर्म के मानकों पर देखेगी और उसके अनुसार प्रकृति में मानव की भूमिका तय करेगी। इस दृष्टि में मानव केन्द्रिय भूमिका में नहीं होगा। बल्कि वह प्रकृति का एक अंश मात्र होगा और अपनी भूमिका के अनुसार अपने धर्म का निर्वाह करने के लिए कर्म करेगा, लेकिन कर्ता भाव से मुक्त होकर। इससे उसका अहंकार तिरोहित होगा और उसमें श्रद्धा और आस्था का भाव जागृत होगा। यह स्पष्टता हमें शुरुआत से ही रखनी होगी।
(क्रमश:)
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