शिक्षा, अर्थ व्यवस्था और स्वतन्त्रता (२/२)

आर्थिक क्षेत्र के हर मोड़ के साथ शिक्षा का मोड़ साथ साथ चलता है और इसका सबसे घातक असर हमारे मूल्यों के ह्रास में दिखाई देता है; हमारे नैतिक पतन में दिखाई पड़ता है और किसी भी तरह से पैसा कमाने वाली प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलने में दिखाई पड़ता है। यदि सट्टा और जुआ खेलना वैध क़रार हो जाए (एैसा प्रस्ताव सरकार के सामने रखा जा चुका है), तो वह दिन दूर नहीं जब शिक्षा प्रणाली एक ‘कैसीनो’ प्रबंधन कोर्स शुरू कर दे, यह दिखाने के लिए, कि जुए को पेशा कैसे बनाया जा सकता है!

अभी तक, विशेषकर वैकल्पिक स्कूलों में, विद्यार्थी में आध्यात्मिक विकास के अर्थ में प्रयास अवश्य हुए हैं, लेकिन चरमराते हुए आर्थिक परिवेश के बारे में उन्होंने कुछ भी नहीं किया है। मैं फिर से वही बात दोहरा रहा हूँ, कि स्कूल उसके आर्थिक परिवेश से अलग नहीं है। एक वैकल्पिक आर्थिक परिवेश में हम अपनी भागीदारी निभाएँ, यह वैकल्पिक शिक्षा का ही भाग है, उससे अलग नहीं है।

2. ऐसा करने के लिए, शिक्षक को देखना पड़ेगा, कि सही आजीविका क्या है, एक सामाजिक अर्थ-व्यवस्था क्या है और साथ में आधुनिक आर्थिक शक्तियों को भी भली भाँति समझना होगा। आज की अर्थ व्यवस्था किन नियुक्तियों पर आधारित है? ये हैं: ‘Monetized Economy’ यानि वस्तु विहीन मुद्रीकरण, बडे उद्योग द्वारा केन्द्रित उत्पादन, बड़ी मात्रा में ऊर्जा की खपत, निरर्थक आयात-निर्यात और परिवहन का दुरुपयोग और नौकरी आधारित आजीविका। इन कारणों से फैली अव्यवस्था से ग्राम समाज टूट रहा है और बहुत बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है; अनैतिक व्यापार करने के हथकंडे बढ़ रहे हैं; पर्यावरणीय अधःपतन और प्रदू्षण फैल रहा है और एक ऐसा नागरिक बन रहा है जो परतंत्र और लाचार है, जिसकी रोज़मर्रा की आवशयकताओं का उपलब्ध होना उसके अपने नियंत्रण में नहीं है।

यदि हमको इस समस्या का समाधान चाहिए, तो एक वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था का कया प्रारूप होगा? ऐसे प्रारूप में मूलस्त्रोत नागरिक और उसका समुदाय होगा, जिनका स्थानीय संसाधन और उत्पादन के तरीकों पर पूरा नियंत्रण हो। इसमें स्वावलंबन के उद्देश्य से एक स्व-रोज़गार आधारित अर्थ व्यवस्था होगी; एक ग़ैर-मुद्रीकृत अर्थ व्यवस्था होगी, जिसमें वस्तु के आदान-प्रदान की प्राथमिकता हो; एक विकेंद्रित उत्पादन व्यवस्था जिसमें क्षेत्रीय आवशयकताओं की अधिकतम आपूर्ति उसी क्षेत्र से हो और एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें न्यूनतम ऊर्जा और न्यूनतम परिवहन का इस्तेमाल हो। जहाँ आधुनिक व्यवस्थाएँ स्थानीय समुदाय को नष्ट कर रहीं हैं, वहीं वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्थाएँ आत्म निर्भर समुदायों को प्रोत्साहित और सहायता करेगी। इस प्रकार व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर सही आजीविका और उससे न्याय, सामाजिक तालमेल, परिवेश में सामंजस्य और मानसिक तृप्ति और परिपूर्णता से सम्बन्धों की जाँच हो सकती है।

3. मैं यह प्रस्ताव रखना चाहता हूँ, कि स्कूल के अंदर से शिक्षा को रूपांतरित करने का काम, समाज और समुदाय के आर्थिक व्यवस्था को रूपांतरित करने के काम के साथ-साथ ही संभव हो सकता है। स्कूल समुदाय की इकाई है, उसके लक्ष्य और आकांक्षाएँ समुदाय से अलग नहीं हैं: दोनों को शिक्षा, स्वतन्त्रता, सुख, शांति, समृद्धि और परस्पर तालमेल चाहिए। स्कूल में यदि मानसिक स्वतन्त्रता के लिए कोई कार्यक्रम हो, तो उसे समाज में और समाज के लिए एक मानवीय, सामाजिक अर्थ व्यवस्था के कार्यक्रम के साथ अवश्य जुड़ना चाहिए। एक संवेदनशील शिक्षाविद वह है, जो सही आजीविका और एक ‘sustainable’ ग्राम व्यवस्था की जरूरतों के प्रति चिंतित व सतर्क रहता है और वह समाज में रह कर, समाज के लिए भी कुछ करता है। ऐसे कार्य में वह स्थानीय शासन और राजनैतिक व्यवस्था के भी संपर्क में आता है। शिक्षाविद और स्कूल को मिलकर सही आर्थिक व्यवस्था पर अपना अभिप्राय रखने की आवश्यकता है, और आवश्यकतानुसार संशोधन की मांग करने की भी आवश्यकता है। स्कूल का कार्य और समाज का कार्य साथ साथ ही होना चाहिए।

4. यदि ऊपर लिखे बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाए, तब वास्तव में यह संभावना बनती है, कि हमारे स्कूल, विशेषकर हमारे वैकल्पिक स्कूल, समुदाय के साथ एकाकार हो जाएँ और उसका मार्गदर्शन करें, ताकि समुदाय एक नियति सहज व्यवस्था का, यानि ‘sustainable living’ का एक द्वीप बन सके। तब वास्तव में हमारे स्कूल में फिर से रचनात्मक काम हो पाएगा; ऐसा उत्पादन कार्य होगा, जो स्कूल की जरूरतों को पूरा कर पाएगा; छात्र और शिक्षक मिलकर सही आजीविका की शोध कर पाएंगे; उपयोगी हुनर को सीखेंगे और उसका अभ्यास कर पाएंगें और इस प्रक्रिया में, इस बात की भी खोज कर पाएंगे, कि स्वतन्त्रता का वह कौन सा आयाम है, जो ज़िम्मेदार आजीविका से प्रभावित होता है और जिसके बिना स्वतन्त्रता पूरी नहीं हो सकती।

‘sustainable living’ सिर्फ ‘पेड़ बचाओ’ या ‘बाघ बचाओ’ जैसे अभियान की तरह नहीं है, वह परस्पर और प्रामाणिक सम्बन्धों के बारे में है। यदि स्कूल एक ऐसी जीवंत इकाई है, जहाँ नियति सहज ‘sustainable’ व्यवस्था का अध्ययन और अभ्यास हो, तब वह समुदाय को दिशा निर्देश देने के लिए एक आलोक भी बन सकता है, क्योंकि उसका समुदाय के लक्ष्य और आकांक्षाओं के साथ एकीकरण भी है।

इस एकीकरण के बिना स्कूल अपने में अलग थलग पड़ जाता है और चाहे कितना भी वह आर्थिक परिवेश के असर से अपने आप को अछूता समझे, वह उससे निश्चित रूप से प्रभावित होता है। जो कुछ भी स्कूल के बाहर समाज में घट रहा है, यदि छात्र उसका अनुकूल उत्तर देने में असमर्थ है, तो इसका यही मतलब निकलता है, कि वे न तो सही आजीविका के बारे में कुछ सीखे हैं और न कुछ अनुभव कर पाए हैं। शायद इसी वजह से उन छात्रों के लिए, स्कूल छोड़ने के बाद आर्थिक स्वावलंबन भी अप्राप्य होगा।

लेकिन यदि ऐसा एकीकरण संभव हो सके, तो वह विकल्प, वास्तविक विकल्प होगा; अध्यात्म और सही आजीविका, यानि शांति और समृद्धि का मिलाजुला एक गतिमान बहाव, एक आंदोलन होगा। तब यह अवश्य संभव है, कि स्कूल अपने समुदाय का एक अर्थपूर्ण और उपयोगी अंग साबित हो सकेगा।

(excerpted from the author’s book बो़धशाला, published by SIDH, Mussoorie)


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