शिक्षा, अर्थ व्यवस्था और स्वतन्त्रता (१/२)

मैं समझता हूँ कि शिक्षा और अर्थ व्यवस्था के संबंध को पूरी तरह से समझना बहुत ज़रूरी है न कि सिर्फ़
शिक्षक या शिक्षाविदों के लिए, लेकिन हम सबके लिए भी। ‘अर्थ व्यवस्था’ शब्दों से मैं शिक्षा के नाम पर हो
रही व्यापार या बिसनेस की बात नहीं कर रहा; मगर मैं उम्मीद करता हूँ, कि जब हम शिक्षा, अर्थ शास्त्र
और स्वतन्त्रता के मुद्दों की जाँच करेंगे तो उस विडम्बना को भी समझ पाएंगे।

संक्षेप में, जाँचनें के बिन्दु मेरे अनुसार इस प्रकार है:
1) शिक्षा का, समाज के आर्थिक ढाँचे के साथ गहरा संबंध है।
2) इसीलिए ये समझना बहुत ज़रूरी है, कि सही अर्थ व्यवस्था क्या है? और सही आजीविका क्या है?
3) शिक्षा को रूपांतरित करने का कार्यक्रम और आर्थिक ढाँचे को व्यवस्थित करने का कार्यक्रम, यह दोनों
साथ-साथ ही हो सकता है।
4) फ़िर यह वास्तव में संभव है, कि स्कूल और समुदाय एक हो जाएँ और स्कूल समुदाय को एक नियति
सहज जीने की व्यवस्था के रूप में, यानि ‘सस्टेनेबल’, होने और रहने में मदद करे।
इन बिन्दुओं को थोड़ा और गहराई से जाँचें, तो देख सकेंगे, कि:

1) आज का आधुनिक आर्थिक ढाँचा और उसका उद्देश्य, शिक्षा के उद्देश्य और विषय वस्तु को तय करता है।
हो सकता है, हम ना चाहते हों, कि ऐसा हो, हम ये भी सोच सकते हैं, कि हमारा वैकल्पिक स्कूल इस
आर्थिक गठबंधन से बहुत दूर है, लेकिन हम देख सकते हैं, कि यह वास्तव में एक यथार्थ है। वैकल्पिक स्कूल
के बच्चे भी उसी आर्थिक व्यवस्था में लौटने के लिए बाध्य हैं। उनको भी नौकरी मिलने के बारे में; पैसा
कमाने के बारे में और उसी आर्थिक ढाँचे की श्रेणीबद्ध संस्था में पद व धन आधारित प्रतिष्ठा प्राप्त करने के
बारे में; वही चिंताएँ सताती हैं।

हम जितने अधिक पश्चिम के आर्थिक तरीकों को अपनाते हैं, हमारी शिक्षा प्रणाली भी उसी प्रकार से बन
जाती है। हम देख सकते हैं, कि हमारा पाठ्यक्रम खंडित हो गया है। जिस रास्ते आधुनिक शिक्षा जा रही है,
हमें साफ़ दिखाई दे रहा है, कि शिक्षा कैसे छोटे छोटे टुकड़ों में कट कर, कितने बेतुके ढंग से विशेषज्ञता की
ओर बढ़ते हुए, वास्तविकता से पूरी तरह कट चुकी है। आधुनिक आर्थिक व्यवस्था तो यही चाहती है, कि
उसके कर्मचारी मात्र उत्पादन की इकाई के रूप में उपलब्ध हों – उनको अकेला व्यक्ति चाहिए। स्कूल का
ढाँचा भी इस बात को अपना रहा है; हर छात्र एक अलग-थलग और अकेली इकाई है, यहाँ तक, कि भाई
बहन भी परस्परता में नहीं, अलग और अकेले ढंग से पल बढ़ रहे हैं।
आधुनिक आर्थिक व्यवस्था ने पैसे को ऐसी जगह बैठा दिया है, कि वह साधन और साध्य दोनों ही बन गए हैं
और इस वजह से शिक्षा के ढाँचे में, बड़े सूक्ष्म रूप से ही सही मगर, पैसे बनाने वाली मानसिकता प्रवेश पा
चूकी है। हमारे छात्र, ख़ासकर प्रबंधन (मैनेजमेंट) के छात्रों को बताया जाता है, कि बाज़ार एक युद्धभूमि है
और उनको माल बेचने और ज़िंदा रहने के लिए हर प्रकार का छल, कपट का इस्तेमाल करना पड़ेगा;
इसीलिए आज की शिक्षा ने जिस हुनर को अन्य सभी से ऊपर रखा है, वह है चालाकी।
ऐसा करने में आज की आर्थिक व्यवस्था ने अपने आपको अत्यधिक उपभोग के ऊपर खड़ा किया है, जिसमें
‘सेल्स और मार्केटिंग’ यानि कि माल बेचने की सारी प्रकार की दुष्ट गतविधियों को बढ़ावा दिया जा रहा है।
हमारी शिक्षा प्रणाली ने इसका प्रत्युत्तर, ‘सेल्समेन’ या विक्रेता के पेशे को प्रोत्साहन देकर किया है। चाहे वह कक्षा 10 पास हो, या आई.आई.एम. का स्नातक हो, वे दोनों ही साबुन, चॅाकलेट या बीमा (इन्शुरंस) बेचने
का काम ही कर रहे हैं।

आधुनिक आर्थिक तंत्र सुविधाओं और विलासिता की पूजा करता है और उनको इनाम या प्रोत्साहन के रूप
में इस्तेमाल करता है। इसके प्रत्युत्तर में, कई शहरी स्कूल भी अपने यहाँ वातानुकूलित बस व कक्षाएँ और
‘फास्ट –फ़ूड’ वाली कैंटीन बनाकर इसकी नक़ल कर रहे है । इस नयी आर्थिक अव्यवस्था ने वास्तविक काम
को छोड़ डाला है। इसी वजह से हमारे स्कूलों में भी आज अपने हाथों से कोई रचनात्मक काम नहीं होता;
यहाँ कोई भी काम ऐसा नहीं होता जो स्कूल व्यवस्था को पोषित कर सके, कुछ निर्माण कर सके, या अपने
लिए या स्कूल के लिए कोई उपयोगी वस्तु का उत्पादन कर सके।

इस आर्थिक तंत्र को तो एक संचार जाति वाला कर्मचारी चाहिए, जो स्थानांतरण के लिए तैयार हो, ऐसे
लोग जिनकी कोई भौगोलिक या सांस्कृतिक जडें न हों, जिन्हें आसानी से कहीं भी भेजा जा सके। हमारे
स्कूल यही कर रहें हैं, बच्चों को उनके पारम्परिक समुदाय से उखाड़, उन्हें विशिष्ट बनाकर, उस वैश्विक
आर्थिक ‘एंजिन’ की भेंट चढ़ाते रहते हैं। कई स्कूल जिनका आधार कोई दर्शन या जीवन विद्या होता है, वे
भी अनजाने में बच्चों को अपने समुदाय से उखाड़ने में सहायता और सहमति दोनों करते है, क्योंकि वे
परंपरा के संदर्भ को पूरी तरह से नकार देते हैं। मैं उनसे नम्र निवेदन करना चाहता हूँ, कि वे अपने पाठ्यक्रम
को दोबारा देख, परंपरा को नकारने के स्थान पर, ‘परंपरा को समझना’ शुरू कर दें।

ग्राम समाज या समुदाय को तोड़ देने से, आधुनिक अर्थ शास्त्र ने आत्म निर्भरता को एक चहीते उद्देश्य के रूप
में नकार दिया है। अफ़सोस है, कि हमारे स्कूलों ने इसे पूरी तरह से अपना लिया है। हमारे पाठ्यक्रम में
आत्म निर्भरता की कोई बात नहीं आती, हमारे स्कूल स्वयं ही, बाज़ार के सबसे स्थूल उपभोक्ता हैं; वे स्कूल
जिनके अहाते में काफ़ी मात्रा में उपजाऊ ज़मीन हैं, वे भी कोई उत्पादन नहीं करते, और कुल मिलाकर इसी
आर्थिक ढाँचे को आगे बढ़ाते हैं। हमारी वैकल्पिक सकूलें जहाँ स्वतन्त्रता का अध्ययन और उसे समझने के
कार्य को महत्व दिया जाता है, वहाँ भी उनकी स्थिति अंततः आर्थिकपरतन्त्रता की ही होती है।

(क्रमश:)

(excerpted from the author’s book बो़घशाला, published by SIDH, Mussoorie)


Posted

in

,

by

Tags:

Comments

One response to “शिक्षा, अर्थ व्यवस्था और स्वतन्त्रता (१/२)”

  1. रवीन्द्र कुमार पाठक avatar
    रवीन्द्र कुमार पाठक

    मैं भी बहुत दिनों से in मुद्दों से जूझ रहा हूं । चालाकी को सर्वोपरि मानने की समस्या बहुत गहरी और विराट है I यह उस बहस तक जाती है कि प्रकृति में चालाकी की स्वीकृति कितनी है और उसके सन्दर्भ क्या-क्या हैं?

    मैं एक प्रयोग कर रहा हूँ I बाजार के लिए hypnosis के tricks का उपयोग आजकल हो रहा है I किशोर वय में अतीन्द्रिय क्षमता विकास की दुकानें खुली हैं I यहां तक का ज्ञान बाजार के हाथ लग गया I मेरा प्रयोग कुछ ऐसी विद्या और कमाने के तरीके ढूंढने का है, जो सत्य, प्रेम और परस्पर पूरक भाव में ही विकसित हो सके I जो बाजार व्यवस्था में विकसित ही नहीं हो सके I
    देखूँ क्या परिणाम आता है ??

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.