मेरा भरोसा तो इस तथाकथित लोकतंत्र से लगभग उठ सा गया है। यह तो नशेड़ी लोकतंत्र है, जहाँ पहले शिक्षा के मार्फत सबको भांग पिलाओ, उसकी लत डलवाओ और फिर भांग का वादा करके सत्ता हाँसिल करो। यही है आधुनिक लोकतंत्र। कोई जिम्मेदारी नहीं, कोई कर्तव्य बोध नहीं, कोई संयम नहीं, बस consumption और sensory gratification। यहीं बात खत्म। इसमें अधिकार ही अधिकार और अधिकार की दिशा consumption ओर gratification।
पवन कुमार गुप्ता
उक्त कथन के आलोक में:-
पिछले 500 वर्षों में फलीभूत हुई आधुनिकता में मुख्यतः पश्चिम जगत ने यह तय किया, कि मानवता के व्यवस्थित रहने का सबसे बेहतरीन विकल्प ‘लोकतंत्र’ ही है। यह एक तरह का सार्वभौमिक काल्पनिक मूल्य बन गया। इसके आलोक में विशेष तौर पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका की अगुवाई में तमाम तरह की अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने अपना स्वरूप प्राप्त किया। इसके पीछे यह धारणा भी रही, कि पूरी दुनिया एक ही तरह से चलेगी या चलायी जायेगी।
लोकतंत्र में संविधान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अर्थात सभी देश अपने बनाये कुछ लिखित नियम या कानूनों के आधार पर ही चलेंगे। (अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ भी इसी तरह कुछ तय नियम व कानूनों पर ही चलती हुई दिखना चाहती हैं।)
भारत के संविधान के पहले पृष्ठ में उद्देशिका के रूप में लिखा हैः-
हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एक्ता और अखंडितता सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई॰ (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
संविधान की इस उद्देशिका के जो पहले शब्द हैं ‘हम, भारत के लोग’ उन लोगों के मानस का निर्माण कैसे होगा, इस पर बहुत विचार ना तो संविधान में दिखता है और ना ही उसके बाद इसके बारे में कोई विमर्श कहीं होता दिखता है।
‘सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता’ आदि शब्दों के जो अर्थ भारतीय मानस में हैं क्या संविधान में भी उनका प्रयोग उन्हीं अर्थों में हुआ है? इस पर भी हमें थोड़ा विचार करना चाहिए।
उदाहरण के लिए समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य आदि सभी शब्द भारतीय मानस में जन्मे शब्द नहीं दिखते हैं। अगर सिर्फ ‘समाजवाद’ शब्द को ही थोड़ा विस्तार से समझना चाहें, तो यह दिखता है, कि यह अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द ’सोशलिज्म’ का हिंदी रूपांतरण है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग उन ‘विचारों’ के प्रतिपादन के लिए किया जाता था, जो ‘व्यक्तिवाद’ का विरोध करते थे और जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था। पश्चिम में ‘व्यक्तिवाद’ अधिनायकवाद से निकला दिखता है, जहाँ एक व्यक्ति को बिना किसी धार्मिक नियंत्रण के शासन करने की तमाम शक्ति मिल जाती है। वह शासन राष्ट्र का हो, समुदाय का हो या अपने परिवार का ही हो। अधिनायकवाद, एक तरह का मानस ही है।
भारत में कभी भी इस तरह का अधिनायकवाद नहीं दिखता है। यहाँ राजा और प्रजा दोनों धर्म से नियंत्रित हैं। व्यक्ति का अपने धर्म व जाति से संबध है, वही उसकी पहचान भी है। ‘समाजवाद’ जब भारत आया होगा, तो ‘व्यक्तिवाद’ को धर्म व जाति से जोड़ कर देखा गया होगा।
पश्चिम में जन्मा ‘समाजवाद’ जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने का विचार है। पश्चिम में यह ‘व्यक्तिगत नियंत्रण’ अधिनायकवाद से जुड़ा है। भारतीय सन्दर्भ में यह ‘धर्म व जाति’ से सम्बध व्यक्ति से जोड़ दिया गया होगा। अतः भारत में समाजवाद की पृष्ठभूमि में ‘धर्म व जाति’ से विलग एक समाज की कल्पना है।
समाजवादी व्यवस्था में धन, सम्पत्ति का स्वामित्व और संसाधनों का वितरण समाज के नियंत्रण में रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक प्रत्यय के तौर पर समाजवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है।
इस पूरी परिभाषा/विश्लेषण के मूल में ‘समाज’ शब्द है, क्योंकि यहाँ सभी कुछ समाज के लिए ही है। भारत के सन्दर्भ में यह समाज निर्मित कैसे होगा? ‘समाज के नियंत्रण’ का धरातल कैसे तैयार होगा? उस नियंत्रण को क्रियान्वित करने वाले विचार कैसे पैदा होंगे? उन विचारों पर आधारित व्यवहार कैसे अपना आकार लेगा? इन मूलभूत प्रश्नों को देखे बिना समाज की यह पूरी अवधारणा कुछ काल्पनिक मूल्यों पर आधारित दिखती है।
धरातल महत्वपूर्ण है। बिना धरातल के सभी कुछ हवा में है। भारतीय सन्दर्भ में यह धरातल विचारों से निर्मित नहीं होता होगा। यह तो अस्तित्व के वास्तविक स्वरूप को देखने से दिखता होगा। यहाँ देखने से ही सत्य उद्घाटित होता होगा। इस सन्दर्भ में सत्य को खोजा या निर्मित नहीं किया जा सकता। सत्य तो होता है और यही सत्य धरातल है। इसमें मनुष्य की कोई विशेष भूमिका है ही नहीं – उसे यह ऐसे ही दिखा है।
समाज को नियंत्रित करने वाली अवधारणाएँ या मान्यताएँ यदि सत्य के इस मजबूत धरातल पर नहीं खड़ी होंगी तो ही उससे निर्मित व्यवस्थाएँ भी प्राकृतिक नहीं होंगी अर्थात मनुष्य के सहज मानस से कभी जुड़ेगीं नहीं। वह व्यवस्थाएँ कभी भी मनुष्यता, प्रकृति और जीव जगत का सही सम्बन्ध जो है – उसे देख नहीं पायेंगी; जैसा हम आज अपने चारों ओर अनुभव कर ही रहे हैं। मनुष्य ने जो विचार किया, कि समाजवाद ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए, बराबरी होनी चाहिए, न्याय होना चाहिए, अधिकार होना चाहिए यह सभी कुछ कोरी कल्पनाएँ हैं, सत्य नहीं है। आधुनिक मस्तिष्क, विचारों की इन कोरी कल्पनाओं (ऐसा होना चाहिए) द्वारा निर्मित हैं, बल्कि इससे इतर हम जो आज अनुभव कर रहे हैं, वह सत्य है। उसको थोड़ा देखना चाहिए।
संविधान की उद्देशिका में उपयोग किये गये अन्य शब्द / अवधारणाएँ भी इसी तरह धरातल विहीन हैं। धरातल विहीन अवधारणाओं पर आधारित इस आधुनिक लोकतंत्र ने कमजोर, भ्रष्ट और विकृत मनःस्थिति वाले ‘मानवों’ या ‘जनता’ को तैयार किया है। पवन जी सही ही कह रहे हैं, कि यह लोकतंत्र नशेड़ी है। इस आधुनिक लोकतंत्र से जो इस ‘जनता’ का मानस निर्मित होता है, वह नि:संदेह भांग के नशे में डूबे हुए जैसा व्यवहार करता है। इस प्रकार की ‘जनता’ के व्यक्तिगत और सामूहिक निर्णयों में जटिलता स्वाभाविक है। परिणाम स्वरूप यह पूरी व्यवस्था बहुत जटिल और उलझी हुई बन गयी है। मानवीय जीवन में बहुत ही सहज हो जाने वाले कर्म जैसे जन्म, स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा, संस्कार आदि को भी लोकतंत्र के आधीन आने वाली व्यवस्था ने बहुत अधिक जटिल बना दिया है। पूर्व में यह सभी कर्म मनुष्य के अनुभवों से अर्जित ज्ञान पर आधारित रहे होंगे, लेकिन अब यह सभी कर्म व्यवस्था पर निर्भर हैं। इससे मनुष्य कमजोर हुआ दिखता है और व्यवस्थाएँ उत्तरोत्तर मजबूत होती चली गयी।
अनिल मैखुरी
सिद्ध, Mussoorie
19 जनवरी, 2025
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