क्या आयुर्वेद वस्तुतः कोई गुप्त या गोपनीय शास्त्र है? (भाग १/२)

क्या आयुर्वेद वस्तुतः कोई गुप्त या गोपनीय शास्त्र है? (भाग १/२)

आयुर्वेद के विषय में एक विचित्र आरोप-प्रत्यारोप चलता रहा है। यह वैसा ही आरोप है, जैसा आज से पचास – सौ वर्ष पहले योग एवं तंत्र पर लगा करता था और आज भी लगा करता है, जैसे कि; आयुर्वेद के ग्रंथ गोपनीयता की वकालत करते हैं। वैद्य अपनी विद्या को गुप्त रखते हैं। अनेक वैद्य अपनी विद्या को दूसरे को बताए बगैर ही मर गए। इससे विद्या भी नष्ट हुई और शास्त्र का भी अहित हुआ, आदि।

उपर्युक्त आरोप को ठीक से समझे बिना आयुर्वेद के प्रति नाहक विरोध एवं भ्रम फैला है, आयुर्वेद केवल कुपात्र को विद्या देने का विरोधी रहा है। ऐसा वर्णन नहीं मिलता, कि इस विद्या को केवल अपने कुल या जाति के लोगों को सिखाना चाहिए। अपात्र हैं – अयोग्य, कृतघ्न, जड़बुद्धि, लालची, निर्लज्ज एवं निर्मम। क्या इन दुर्गुणों से युक्त चिकित्सकों से आज भी जनता पीडि़त नहीं है? इसी कारण पात्रता परीक्षा के लिए शर्त रखी गई कि शिष्य बनाने के पहले छ महीने तक उसे सेवा में रखकर उसे अंतर्वासी (साथ में रहनेवाला) बनाकर उसके गुण-दोष की परीक्षा करनी चाहिए। यह परीक्षा संतुष्टिजनक होने के बाद ही उसे शिष्य बनाना चाहिए। पात्रता की इस परीक्षा में जाति, लिंग, देश आदि का कोई भेद नहीं है, जिससे कि गोपनीयता को लेकर के निंदा की जाए।

गुरू परंपरा एवं कुल परंपरा में बंधा हुआ आदमी धर्म, लोक लज्जा, प्रतिज्ञा और अंतत: सहपाठियों के सामाजिक बहिष्कार के भय से गुरु के प्रति केवल कृतज्ञ ही नहीं होता था, अपितु की गई प्रतिज्ञा के पालन का भी भरसक प्रयास करता रहता था। प्रतिज्ञा के अंदर विद्या की रक्षा एवं सेवा की शर्तें होती थीं। आज एलोपैथी में भी यह परंपरा चलन में है ही।

कुल परंपरा यदि ज्ञान पर अधिकार देती थी, तो उस ज्ञान के रक्षा की जिम्मेवारी भी साथ ही में रहती थी। मन-बे-मन ही सही कुल की विद्या को सीखना एवं नियमों का पालन करना आवश्यक होता था। इसके लिए रक्त संबंधों का बंधन उसे विकट एवं विपरीत स्थिति में भी विद्या से अलग नहीं कर पाता था। बचपन से सहज सन्निकटता विद्या को सुगम भी बनाती थी। यह परंपरा सामाजिक व्यवस्था का भाग थी, न कि केवल आयुर्वेद पर यह बात लागू थी।
ज्ञाान के साथ-साथ उस विद्या या शिल्प की सहायक सामग्री का संरक्षण भी परंपरा में अनिवार्य होता था। हल्दी की खेती करने के लिए यह अनिवार्य था, कि जो भी व्यक्ति हल्दी की खेती शुरू करेगा, उसे बारह वर्षों तक लगातार हल्दी की खेती करनी ही होगी। चाहे हल्दी की कीमत घटे या बढ़े।

बाजारवादी दृष्टि से ये सब बातें उटपटांग लगती हैं। हल्दी भारत में एक अपरिहार्य खाद्य पदार्थ है। हल्दी न खाना अशुभ है। यदि उत्पादन को अनिवार्य न बनाया जाए, तो कोई भी व्यक्ति हल्दी की मनमानी कीमत वसूल कर सकता है और हलदी की इतनी अधिक आवश्यकता भी नहीं होती, कि बहुत अधिक उत्पादन किया जाए। अनिवार्यता के कारण परंपरा में हल्दी की खेती स्थानीय आवश्यकता भर ही होती थी। समाज की इस अंतर्दृष्टि को समझे बिना हल्दी उत्पादन संबंधी नियम को सही या गलत कहना संगत नहीं है। यदि हल्दी एवं पान का पौधा कोई दूसरे को नहीं देता एवं उसके परिष्करण की जानकारी नहीं देता, फिर भी आप हल्दी या पान की कीमत में आज भी अनाप-शनाप उछाल या गिरावट नहीं पाएंगे।

आज परिस्थितियाँ बदल रही हैं। सभी जाति के लोग पारंपरिक पेशे के बंधन से मुक्त होकर किसी भी विद्या के प्रति बचनबद्धता एवं कृतज्ञताहीन विकास करना चाहते हैं। जो जितनी ही ऊँची डिग्री हासिल करता है उसकी नीयत में उतनी ही लालच पाई जा रही है। ब्रेन ड्रेन शब्द प्रतिष्ठित हो रहा है। विदेश भागना आम बात है। खर्च देश का, लाभ विदेशी उठाएँ या भगोड़े विद्वान।

(क्रमश:)

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