भारत और भारतीयता के व्याख्याता

बुद्ध पूर्णिमा मेरे लिए मिश्र स्मृतियाँ लेकर आती हैं, गौतम बुद्ध के उदय को सूचित करती है, और साथ ही एक और विभूति के विलय को भी। वह विभूति थे श्री रवीन्द्र शर्मा जी, जिन्हें प्यार से लोग गुरुजी कहकर पुकारते थे। आज गुरुजी की द्वितीय पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी बातों को, कथाओं को, सूत्रों को स्मरण करना व वर्तमान कोरोना संकट के परिपेक्ष्य में नवसामाजिक संरचना के मुद्दों पर उन सूत्रों – कथाओं से सीख लेना ही कदाचित उनको अर्पण की जा सकने वाली श्रेष्ठ श्रद्धांजलि होगी।

तेलंगाना के आदिलाबाद को आज भी देश के कई सारे लोग गुरुजी के संदर्भ से ही जानते हैं। गुरुजी आदिलाबाद की मिट्टी में पले बढ़े, उनहोंने आसपास के गांवों को देखा, समाजों को देखा, उनके रीति रिवाजों को देखा, बाहर की दुनिया को भी देखा, लाठी चलाना भी सीखे, लाठी चलाना सैंकड़ों को सिखाया भी, कारीगरी का काम भी खूब सीखे और किया भी। ये सब करते करते गुरुजी ने भारत के साधारण व्यक्ति के मानस को, समाज के संचालन के तरीकों को व ईस संचालन के पीछे छिपे गूढ़ तत्त्व को आत्मसात किया और उससे फलित व्यवस्था को सूत्रबद्ध भी किया।

गुरुजी के द्वारा स्थापित कला आश्रम एक इतनी सुंदर (भौतिक व आधिभौतिक दोनों ही स्वरूपों में) संगमस्थली है, जहाँ भारत के अतीत और भारत के वर्तमान की भेंट होती है, वाम और दक्षिण की भेंट होती है, आस्तिक व नास्तिक की भेंट होती है, विज्ञान व आत्मज्ञान की भेंट होती है और नजाने और भी कितनी ही परस्पर द्वंद्व या मैत्री रखनेवाली विचारधाराओं की, उनके वाहक विचारकों की, कलाकारों की, कारीगरों की, विद्यार्थीओं की, शिक्षकों की, जिज्ञासुओं की भेंट होती है।

गुरुजी को लोग भिन्न भिन्न स्वरूपों में देखते हैं। कोई जांबवंत के रूपक का सहारा लेकर कहता है कि अपनी शक्तिओं को भूल चूके ईस हनुमान रूपी समाज को गुरुजी उसका सामर्थ्य याद दिलाते हैं; तो कोई उन्हें स्मृति जागरण का हरकारा कहकर एक दूत के स्वरूप में उन्हें देखते हैं, जो अतीत का संदेश वर्तमान के पास लेकर आया है, जिसका उपयोग भविष्य की संरचनाओं के लिए हो सके; तो कोई उन्हें विशुद्ध कला साधक के स्वरूप में देखता है; तो कोई उन्हें रसिक कथाकार के स्वरूप में देखता है, तो कोई उन्हें अपने गुरु के स्वरूप में भी देखता है। हालांकि गुरुजी स्वयं के बारे में की जा रही ईन बातों को सुनकर हँस देते थे।

गाँव व ग्रामीण समाजों की रचनाएँ; संस्कृति व सौंदर्यद्रष्टि के आंतरसंबंध; सभ्यता व अर्थव्यवस्था के आंतरसंबंध; परम्पराएँ व उनके पीछे छिपे उद्देश्य; समाजों की स्वयं को व्यवस्थित करने की गज़ब की क्षमता; जातियाँ और उनका महत्त्व, उनके कर्तव्य उनका जाती पुराणों के स्वरूप में जीवंत ईतिहास; छोटी बनाम बड़ी टेक्नोलोजी; वास्तु और सौंदर्यद्रष्टि; शिल्प और सामर्थ्य; जीवन जीने के ढंग में ही बुने हुए प्रकृतिप्रेम, ऋतुचर्या, अध्यात्म जैसे पहलू; विज्ञान, कला, अध्यात्म और सामाजिक अर्थव्यवस्था के ऊपर टिके गांवों की संकल्पना; सबके आहार की सुरक्षा और सबके सम्मान की व्यवस्था को आश्रित करते गाँव की परिभाषा, परंपरागत काम और उनके सामानों के वितरण की प्रणालियाँ; आय प्रधान नहीं अपितु व्यय प्रधान अर्थव्यवस्था; संस्कार व उनके साथ जुड़ी दिनचर्या, ऋतुचर्या और अर्थव्यवस्था; भारतीय मानस जैसे अनेकों विषयों पर गुरुजी के सूत्र आज भी कई समस्याओं के समाधान की कूञ्जी अपने भीतर सँजोये हुए हैं।

हम ईस शृंखला में प्रयास करेंगे कि समयान्तर में ये सूत्र व सूत्रों से जुड़े किस्से कहानियाँ आप तक प्रेषित करते रहें और उनके ऊपर हम सार्थक संवाद साध सकें।

Comments

One response to “भारत और भारतीयता के व्याख्याता”

  1. rupeshpandeyvns avatar
    rupeshpandeyvns

    शानदार लेख।

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