भाषा का प्रश्न, भारत में अंग्रेजी : तमस की भाषा भाग (४/५)

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तमस के फैलाव की भाषा

यूरोप में अपनी जरूरत के हिसाब से रेनेसां हुआ, जिसे वे enlightenment कहते हैं, लेकिन वास्तव में वो अन्धकार युग का उद्घाटन था। उसके हिसाब से जीवन दृष्टि और विश्वदृष्टि को प्रतिपादित करने वाले प्रत्ययों को ठीक विपरीत अर्थ दे दिया गया। दूसरे शब्दों में कहें, तो इन और ऐसे प्रत्ययों को सेक्युलर अर्थ दे दिया गया। उदाहरणार्थ: ट्रुथ (सत्य), फ्रीडम (स्वतंत्रता), लिबरेशन (मुक्ति), मैन (मानव), नॉलेज (ज्ञान), सिविलाइज़ेशन (सभ्यता), रिलिजन (धर्म), प्रोग्रेस (प्रगति), मोरालिटी (नैतिकता और नीति), जस्टिस (न्याय) इत्यादि।

जब इन शब्दों का हम उपयोग करते हैं, तब उनका वही अर्थ समझा जाता है, जो आधुनिक अंग्रेजी भाषी प्रजा ने दिया है। हम अनर्थ को अर्थ समझ कर सोचते हैं, कि हमने अपनी बात कह दी! जिससे अंधकार युग का उद्घाटन हुआ, उसे ही वे जब ज्ञानोदय कहते हैं, तो स्पष्ट है, कि तबसे अंग्रेजी भाषा तमस के फैलाव, प्रचार का वाहन बन गयी। अंग्रेजी भाषा उनकी आधुनिक, विश्व के प्रति पदार्थवादी, प्रकृति और समस्त जगत के प्रति विकार युक्त दृष्टि में से स्थापित ‘ज्ञान’ परम्परा भारत में स्थापित करने हेतु लायी गयी।

सेक्युलर अर्थात भौतिकतावादी अर्थात रेनेसां और एनलाइटनमेंट से जिस नयी ‘वैज्ञानिक’ कही जाती विकार-दृष्टि का विकास, प्रतिपादन और प्रतिष्ठा हुई, उसका शायद सबसे उत्तम दृष्टांत आधुनिक विज्ञान का पिता कहे जाने वाले फ्रांसिस बैकन के कथन में है। उसने आधुनिक विज्ञान और आधुनिक मानव के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश दे दिया, कि उसे प्रकृति के साथ कैसा सम्बन्ध रखना है, कैसी दृष्टि से और कैसी भावना से देखना है, कैसा व्यवहार करना है। उसका यह प्रसिद्ध वाक्य है, कि “प्रकृति को इतना सताओ, इतना उस पर अत्याचार गुजारो, उसे इतना मारो, कि वह अपना रहस्य उगल दे। इन्द्रियगम्य को ही सत्य ‘ट्रुथ’ और इन्द्रियगम्य ज्ञान को ही ज्ञान मानने वाले वैज्ञानिक युग की दृष्टि लेकर अंग्रेजी भारत लायी गयी। इस लेखक के अनुसार इसी सेक्युलर दृष्टि से सृष्टि के प्रति किये गए दुराचार की सजा प्रकृति ने कोरोना भेज कर दी, आधुनिक मानव को चेतावनी के रूप में।

इसीसे विपरीत, प्रकृति के प्रति भाव-दृष्टि ईशावास्य की दृष्टि है, जो हमारी सभी भाषा के साहित्य संस्कार में ओतप्रोत रही है, लेकिन व्यवहार में हमने भी सेक्युलर दृष्टि अपना ली। अंग्रेजी ने इस देश की बौद्धिकता को वह पढ़ाया, लिखवाया और बुलवाया है, जिससे भारत का बौद्धिक – राजनैतिक वर्ग अपनी ज्ञान परंपरा को छोड़कर आसुरी सभ्यता की ज्ञान परम्परा का दलाल बन गया है। (‘आसुरी’  और ‘दलाल’ – इन दोनों शब्दरूपों का उपयोग गांधीजी ने आधुनिक सभ्यता और उसके प्रति आसक्त भारतीयों के लिए किया है।)

परिणाम स्वरुप ‘अनपढ़’, ‘रुढिचुस्त’, गाय और तुलसी को पूजने वाले समाज के प्रति हमारे पढ़े लिखे वर्ग का व्यवहार भी तुच्छभाव से भर गया। सम्पूर्ण बौद्धिक क्रिया कलाप जो अंग्रेजी या उसकी अनुवादित हिंदी और अन्य भाषाओं में चलता है, वह हमें अनजाने में ही सेक्युलर (तामसिक, आध्यात्मिक भूमि से काट कर भौतिकवादी/भोगवादी) अधोमानव या आसुरी सम्पद में लिप्त बनाती है। एक अर्थपूर्ण जीवन दृष्टि की समाप्ति और शरीर सुख के साधनों का अम्बार लगाने की दौड़ में केवल व्यक्तिवादी, वर्तमानजीवी बना देती है। ऐसे में स्वाभाविक ही ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का नियम आर्थिक राजनैतिक जीवन में स्थापित रहता है।

आधुनिक अर्थशास्त्र को इसी कारण गांधीजी ने अनर्थ शास्त्र कहा। बलिष्ठ का बल निर्बल पर बढ़ता ही जाता है। इस अधर्म को, अन्याय को अनेक विचारवादों और अवधारणाओं से महिमा मंडित किया गया है, जिस सबके सम्मुच्चय रुपी ‘प्रोग्रेस’ की अवधारणा यूरोप ने अठारहवीं शताब्दी में खोजी। अधर्म, अन्याय के सारे पाप इस ‘प्रोग्रेस’ की वेदी पर धुल जाते हैं, बता दिया जाता है, कि कैसे अन्याय से पीड़ित व्यक्ति खुद उसके लिए जिम्मेदार है। इस विचार के छल की शक्ति का इसीसे अंदाज लगाया जा सकता है, कि एक दूसरे के दुश्मन माने जाते पूँजीवादी और मार्क्सवादी ‘प्रोग्रेस’ पर एक हैं; यहाँ तक, कि मार्क्सवादी खुद को कहते ही हैं ‘प्रोग्रेसिव’!

इसी क्रम में जरूरी है, कि ‘प्रोग्रेस’ के विचार ने हमारे साथ क्या किया, क्या कर रहा है उसे देखें। इसका सबसे बड़ा नुक्सान हमारे लिए यह है, कि भारत की तमस की दृष्टि से समझ बनाकर तैयार हुए लोग नए आजाद हुए भारत का उपचार करने लग गए। नतीजे हमारे सामने हैं। एक नयी तथाकथित ऋषि परंपरा आधुनिक भारत की तपोभूमि समान स्वनाम धन्य विश्वविद्यालयों से खड़ी हुई। उनका शास्त्र भारत को समझने और बनाने का आधुनिक  शास्त्र बना। यूरोप – अमेरिका की मंशा पूरी हुई, कि भारत उनके प्रभाव और आधिपत्य के क्षेत्र से स्वतंत्र न हो जाए और बौद्धिक जगत वही भाषा बोले और आने वाली पीढ़ियों को सिखाये, जो हमारी (यूरोप – अमरिका) कोख से निकली है। इन तथाकथित ऋषि मुनियों और उनके आराध्य देवतातुल्य नायक को यूरोप से प्राप्त हुई दृष्टि ने दिखा दिया था, कि  भारत एक पिछड़ा और अज्ञान में डूबा हुआ राष्ट्र है। प्रोग्रेस में बाधा रूप हिन्दू धर्म और उनके प्रतीकों से जब तक नफ़रत नहीं सिखाएंगे, उनकी मुक्ति संभव नहीं है। (यह कथन जवाहरलाल नेहरू के विषय में है।)

क्रमश:

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