हमारे प्रयास और ईश्वरीय हस्तक्षेप (भाग – 1)

हमारे प्रयास और ईश्वरीय हस्तक्षेप (भाग – 1)

हम सभी को लता मंगेशकर को सुनना पसंद है। मुझे तो उनके गीत बहुत ही प्रिय हैं। कुछ दिनों पहले मैं यूट्यूब पर एक युवा गायिका को सुन रहा था। वह बहुत सुंदर तरीके से लता जी का गाया हुआ गाना प्रस्तुत कर रही थी। गाने के बाद उनसे पूछा गया, “आपने लता जी का गाना इतनी खूबसूरती से गाया, आप उस महान गायिका से क्या प्रेरणा लेती हैं?”

युवा गायिका कुछ देर रुकी, थोड़ा सोचा, और फिर हृदय की गहराई से उत्तर दिया, “लता ताई जब भी गाती थीं, वह ‘effortless’ गाती थीं। उन्हें किसी भी गाने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता था।” उसने आगे कहा, “मैं भी स्वयं को उसी स्थिति में देखना चाहती हूँ, जब गाना मेरे द्वारा गाया जाए, लेकिन ऐसा लगे कि ‘मैं’ नहीं गा रही।”

‘Effortless’ शब्द पहले भी मैंने कई बार सुना था, लेकिन उस दिन यह शब्द मेरे मन में ठहर गया। और जब कोई शब्द आपके भीतर ठहर जाता है, तो उसका अर्थ आपके भीतर से ही उद्घाटित होने लगता है। हालाँकि, इसके लिए धैर्य रखते हुए कुछ समय उस शब्द के साथ रहना होता है। यहाँ भी प्रयास नहीं करना पड़ता; यह प्रक्रिया स्वतः ही आपके भीतर होने लगती है। यदि आप इसे शांति से स्वीकार करें…

आज हमारे मानस का ऐसा स्वरूप हो गया है, जिसमें ‘प्रयास’ यानी ‘कुछ करना’ अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है। हम ऐसी किसी स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकते, जहाँ हम कोई प्रयास न करें या कुछ भी न करें। आधुनिक व्यक्ति यह मानता है कि उसके किए बिना कुछ नहीं होगा। वह ईश्वर को एक शब्द के रूप में तो जानता है, लेकिन उसके अर्थ को अपने भीतर देखने का प्रयास कभी नहीं करता। क्योंकि ये दो विचार एक साथ नहीं चल सकते—एक तरफ आप यह मानें, कि ‘सब कुछ आप कर रहे हैं’ और दूसरी तरफ यह भी मानें, कि ‘ईश्वर है’; क्योंकि यदि ‘ईश्वर है’, तो आप कुछ नहीं कर रहे हैं। सब कुछ वही कर रहा है, अर्थात् सब कुछ ‘effortless’ है। ऐसी स्थिति में, हर चीज लता ताई के गाने की तरह सुंदर होती है — लय में, प्रवाहमय। फिर, आपका ‘करना’ भी उसी लय के साथ एकात्म हो जाता है। संभवतः ऐसी स्थिति में आप किसी परिणाम या लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ते, बल्कि बस प्रवाहित होते रहते हैं।

लेकिन आज का आधुनिक मनुष्य हमेशा किसी परिणाम को प्राप्त करना चाहता है, कुछ बनना चाहता है, या किसी लक्ष्य तक पहुँचना चाहता है। हमें लगता है कि यदि हम प्रयास नहीं करेंगे, तो ठहराव में फँस जाएंगे। हम सभी के पास एक लक्ष्य की कल्पना होती है, जिसकी ओर हम लगातार प्रयासरत रहते हैं। यह प्रयास हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है।

लेकिन यदि हम प्रकृति को देखें, तो वहाँ कहीं ‘प्रयास’ नहीं है। सब कुछ ‘effortless’ है, स्वाभाविक है। नदी बिना किसी प्रयास के बहती है और वह बेहद सुंदर है। प्राकृतिक वन बिना किसी प्रयास के उग जाते हैं और वे भी उतने ही सुंदर हैं। फूलों के रंग, जानवरों के अंग, समुद्र की मछलियाँ, पर्वतों की स्थिरता — ये सब बस ‘हैं’। और यही उनकी सुंदरता है।

अपने अनुभव से मैंने यह देखा है, कि जीवन के सभी आयाम जो वास्तव में अर्थपूर्ण हैं, वे भी सहजता से आते हैं। उदाहरण के लिए, क्या खुशी और आनंद प्रयास से आते हैं? कभी – कभी हम बिना किसी कारण के खुश हो जाते हैं और कभी-कभी सारी कोशिशों के बावजूद खुश नहीं हो पाते। जब – जब ‘सहजता’ जीवन में घटती है, वह अपने साथ प्रसन्नता लेकर आती है। यही सहजता जीवन को सुंदर और अर्थपूर्ण बनाती है।

मेरी बेटी सुंदर चित्रकारी करती है। मैंने देखा है, कि उसके लिए यह कोई विशेष प्रयास नहीं है; उसके भीतर यह गुण नैर्सगिक रूप से मौजूद है। उसे चित्रकारी करने में आनंद मिलता है।

इसके विपरीत, यदि मुझे चित्रकारी करनी पड़े, तो उसमें मेरा आनंद का कोई जुड़ाव नहीं होगा। इसलिए मुझे वह करना पड़ेगा और परिणामस्वरूप, वह सुंदर भी नहीं होगी। जब ‘आनंद’ का आपके ‘करने’ से जुड़ाव हो जाता है, तो सहजता घटती है। यह एक ईश्वरीय घटना है, जो आपके हाथ में नहीं होती।

लेकिन मैंने यह भी देखा है, कि कलाकारों में अक्सर यह अहंकार आ जाता है, कि वे खुद कुछ कर रहे हैं — वे गा रहे हैं, अभिनय कर रहे हैं, लिख रहे हैं, चित्रकारी कर रहे हैं या किसी और रूप में अपनी कला प्रस्तुत कर रहे हैं; जबकि मुझे लगता है, कि कला किसी भी प्रकार की हो, वह तो ईश्वर के द्वरा किसी व्यक्ति माध्यम से अभिव्यक्त होती है। व्यक्ति यहाँ निमित मात्र है। यह दिखने पर कृतज्ञता का भाव स्वतः ही जागृत होगा।

लता ताई के भीतर भी गाने का गुण नैर्सगिक रहा होगा। ठीक है, उन्होंने साधना और अभ्यास से उसे तराशा होगा, लेकिन मूल में वह नैर्सगिक ही था। यही आधार रहा होगा, जिससे वह आगे बढ़ सकीं और इससे उनका आनंद भी जुड़ा रहा होगा। यही कारण है, कि वे बहुत कठिन गानों को भी इतनी सहजता से गा पाती थीं। उनके गानों में कोई प्रयास नहीं, सिर्फ सहजता थी और इसीलिए, वे हमें भी इतने सुंदर लगते हैं।

‘करना’ अपने आप में संघर्ष है, जबकि जीवन का आनंद संघर्ष से परे है। जीवन में ‘सृजन के क्षण’ संघर्ष से नहीं, बल्कि प्रेम और ईश्वरीय हस्तक्षेप से उत्पन्न होते हैं। इसी तरह, कला भी ईश्वरीय हस्तक्षेप है। और इसलिए, जीवन सुंदर है और कला भी।


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