हमारे प्रयास और ईश्वरीय हस्तक्षेप (भाग २)

हमारे प्रयास और ईश्वरीय हस्तक्षेप (भाग २)

(इस आलेख का प्रथम भाग पढने के लिए https://saarthaksamvaad.in/hamare-prayas-aur-ishwariya-part1/ पर क्लिक करें।

कुछ दिनों पहले, मैं एक बहुत बढ़िया फिल्म देख रहा था। उसमें कलाकारों ने अद्भुत अभिनय किया था और निर्देशन भी उत्कृष्ट था। अभिनय वास्तव में एक अद्भुत कला है। जब किसी मँझे हुए कलाकार से अभिनय हो रहा होता है, तो उसके शरीर और मन का हर अंश उस आनंद के क्षण में शामिल रहता होगा और यही कारण है, कि उसका अभिनय हमें सुंदर और सजीव लगता है। जब मैं यह सोच ही रहा था, तो मेरे मन में हमारी फिल्म इंडस्ट्री की एक बहुत ही बीभत्स तस्वीर उभरने लगी। मैंने खुद से यह सवाल करना शुरू किया, कि कलाकारों से भरा यह क्षेत्र इतना विकृत क्यों है?

आधुनिक युग में हमने हर चीज को व्यापार से जोड़ दिया है। इसी क्रम में सफलता और प्रतिष्ठा को भी धन से जोड़ दिया गया है। यदि ध्यान से देखा जाए, तो यह स्पष्ट होता है, कि यदि कला व्यापार का साधन बन जाएगी, तो उसे धारण करने वाला मानस विकृत हो जाएगा; क्योंकि वह कला का मूल्य मुद्रा में तय करने लगेगा। ऐसा मानस ईश्वरीय हस्तक्षेप को पूरी तरह अनदेखा कर देगा और उसके भीतर कृतज्ञता का कोई भाव नहीं रहेगा। वह यह मानने लगेगा, कि सब कुछ वही कर रहा है—वह गा रहा है, वह अभिनय कर रहा है, वह रच रहा है। यह एक बहुत ही सूक्ष्म भाव है, जिसे समझने के लिए गहराई से देखना होगा।

जब मनुष्य यह मान लेता है, कि वही सब कुछ करने वाला है, तो परिणाम (चाहे अच्छा हो या बुरा) आने पर उसे लगता है, कि वही इसका कारण है। और इसी सोच के चलते वह अपने आसपास की हर चीज को भी ऐसे ही देखता है—या तो वह कर रहा है, या कोई और (मनुष्य) कर रहा है। इस प्रकार की स्थिति में संघर्ष और विकृति स्वाभाविक हो जाती है। धीरे-धीरे यह विकृति हमारा स्वभाव बन जाती है।

दूसरे शब्दों में, कला और व्यापार के घालमेल से जो स्वभाव निर्मित होता होगा और उसके आधार पर जो अनुभव होते होंगे और उससे जो संसार निर्मित होता होगा, वह विकृत हो ही जाता होगा।
शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी यही हुआ होगा। ये दोनों ही क्षेत्र मूल रूप से ‘करने’ के नहीं, बल्कि ‘होने’ के क्षेत्र रहे होंगे। इनमें व्यापार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता था। बहुत अधिक जानकारी तो नहीं है, लेकिन सुना है कि भारत में कलाकार, ऋषि (शिक्षक) और वैद्य समाज के संरक्षण में रहते थे। समाज उनका सम्मान करता था और उन्हें जीविका और प्रतिष्ठा सहज ही प्राप्त हो जाती थी। यह सब कुछ सेवा और आराधना का हिस्सा था, न कि किसी व्यापार का। रवींद्र शर्मा जी के वृत्तांतों में इस विषय पर बहुत विस्तार से सुनने को मिलता है। जब यह क्षेत्र व्यापार से जुड़ गए—कलाकार, शिक्षक, और वैद्य को स्वयं पैसे कमाने पड़े, या व्यापारिक लोगों ने उनके माध्यम से पैसे कमाने शुरू कर दिए — तो ये पवित्र क्षेत्र विकृत हो गए और आज, हम उसी विकृति का परिणाम कई रूपों में अपने सामने देख ही रहे हैं।
प्रश्न यह उठता है, कि फिर क्या किया जाए? आज जिस तरह का संसार बन गया है, उसमें व्यापार को पूरी तरह नजरअंदाज करना संभव नहीं है, तो फिर इस तरह के पवित्र क्षेत्रों की पवित्रता कैसे लौटाई जाए? यह हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन जैसे ही यह प्रश्न हमारे भीतर आता है, हम अक्सर फिर से आधुनिकता के जाल में फँस जाते हैं। हम एक व्यावहारिक समाधान की तलाश में लग जाते हैं और मूल प्रश्न को भूला बैठते हैं।

हमनें बात शुरू की थी ‘effortless’ से। फिर हमनें बात की थी स्वयं के ‘effort’ अर्थात प्रयास की या ईश्वर की स्वीकार्यता की। श्रीमद्भगवद्गीता के 10 वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अपने दिव्य गुणों का वर्णन करते हैं। वहाँ वे कुछ महत्वपूर्ण घोषणाएँ करते हैं, जो इस विषय से गहराई से जुड़ी हैं। उन घोषणाओं को समझने से हमें इस प्रश्न के उत्तर की ओर एक दिशा मिल सकती है।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।

उक्त श्लोक की स्वामी रामसुखदास जी द्वारा की गयी हिन्दी व्याख्या इस प्रकार है कि ‘हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।’
इसके बाद अध्याय 15 के 15 वें श्लोक में भगवान फिर कहते हैं

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।

स्वामी रामसुखदास जी इस श्लोक की हिन्दी व्याख्या इस प्रकार करते है, ‘ मैं सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषों का नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के तत्त्व का निर्णय करनेवाला और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।’

उक्त श्लोकों का स्मरण मैंने यहाँ इसलिए किया, क्योंकि जब सब कुछ का बीज ईश्वर स्वयं हैं और सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में वही स्थित है, तो हम ‘करने वाले’ कौन होते हैं? दरअसल, सब कुछ तो वही कर रहा है। यह कहना आसान है, लेकिन इसे वास्तविकता में मानना बहुत मुश्किल है, खासकर आज के परिवेश में। क्योंकि यदि आप यह मान लेंगे, तो आपके माध्यम से ईश्वर स्वयं कुछ करने लगेंगे। आपके स्तर पर तो वह ‘effortless’ (सहज) स्थिति ही होगी, लेकिन वास्तविकता में, अस्तित्व की लयबद्धता में धर्म के अनुसार कुछ सार्थक घटित हो रहा होगा। यह विश्वास हममें रहा है, इसे फिर से स्वयं में देखना होगा।


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