गांधी जी के सभ्यतागत विचारों को जानने की दृष्टि से सीधे-सीधे एक लाइन में कहा जाय तो कह सकते हैं कि हिंद स्वराज को पढ़ लेना चाहिए। जिसमें गांधी जी ने पश्चिमी (ईसाई) सभ्यता को शैतानी सभ्यता घोषित किया है और उसकी अनुगामी संसदीय लोकतंत्र प्रणाली की बांझ और वैश्या से तुलना की है। हिंद स्वराज, एक तरह से पश्चिमी सभ्यता और तात्कालिक औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन पर एक आरोप पत्र था जिससे पश्चिम का कथित आधुनिक समाज बुरी तरह तिलमिलाया। पश्चिम का बौद्धिक जगत इस पर विमर्श करने या इसका जवाब देने से हमेशा बचता रहा। लेकिन केवल हिंद स्वराज पढ़ने से गांधी जी के सभ्यतागत विचारों को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता।
समझने की बात है ये है कि गांधी जी की यह दृष्टि कैसे बनी और वह खुद सभ्यतागत दृष्टि से कौन-कौन से कार्य कर रहे थे। स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष को वे कैसे सभ्यता के संघर्ष का विमर्श बना रहे थे, इसे समझने की जरूरत है।
स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी जिन विचारों को केंद्र में रखकर अपनी गतिविधियां कर रहे होते हैं क्या वे विचार नए हैं या स्वयं गांधी जी द्वारा प्रतिपादित कोई नवीन सिद्धांत हैं या किसी गैर भारतीय समाज और सभ्यता से उधार लिए गए हैं? इसे समझने की जरूरत है। क्या, बंग-भंग आंदोलन के पश्चात अरविंद घोष का महर्षि अरविंद होकर भारतीय सभ्यता की आध्यात्मिक चेतना से सम्पूर्ण विश्व को सिंचित करने का प्रयास, वैश्विक सभ्यता विमर्श का हिस्सा नहीं है।
क्या, महात्मा गांधी के ‘हिंद स्वराज’ लेखन से लगभग डेढ़ दशक पूर्व शिकागो में दिया गया स्वामी विवेकानंद का भाषण, भारतीय सभ्यता का वैश्विक दर्शन नहीं है। क्या स्वामी दयानंद सरस्वती का गौ रक्षा और स्वदेशी अभियान भारतीय सभ्यता का विमर्श प्रस्तुत नहीं करता। दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद और अरविंद घोष का उल्लेख यहाँ इसलिए जरुरी था कि जब, वैश्विक लूट के पश्चात औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू हुए यूरोपीय-अमेरिकी नवजागरण से उत्प्पन आधुनिकता की चकाचौंध में सम्पूर्ण विश्व चौंधियाया हुआ था तब भी भारत दुनिया को सभ्यतागत धरातल पर ही समझने-समझाने का कार्य कर रहा था। अपनी ज्ञान परंपरा,मेधा और आध्यात्मिक चेतना से संतृप्त भारतीय मनीषा लोक कल्याणकारी भारतीय सभ्यता के दर्शन को ही विभिन्न रूपों में प्रस्तुत करने का कार्य कर रही थी। क्योंकि, भारतीय मनीषा मनुष्य के भौतिक उत्थान को जीवन का एक अनिवार्य अंग मानते हुए भी केवल भौतिक उत्थान को ही मानवीय उत्थान का उत्कर्ष नहीं समझती। महात्मा गांधी ने उस पूरे भारतीय सभ्यता विमर्श को तात्कालिक जरूरतों के मुताबिक बेहद सरल ढंग से ” हिंद स्वराज” में प्रस्तुत किया। स्वदेशी, स्वशासन और स्वधर्म का सभ्यतागत दर्शन ही दरअसल गांधी जी का मूल विचार है। जिसकी स्पष्ट झलक “हिंद स्वराज” में दिखती है।
विज्ञान सर्वकालिक,सार्वदेशिक सच होकर भी सार्वभौमिक सत्य के रूप में लागू करने की चीज नहीं है। इसके प्रभाव विभिन्न समाजों में उनकी अपनी मान्यताओं और व्यवहारों के अनुरूप दिखाई देते हैं। यह एक सभ्यतागत समझ है जिसे गांधी जी के जीवन में देखा जा सकता है। गांधी जी आधुनिकता और विज्ञानवाद के सहारे बढ़ रही पश्चिमी सभ्यता को नए ढंग से परिभाषित करते हैं। पश्चिमी सभ्यता को ख़ारिज करते हुए गांधी जी भारतीय सभ्यता,संस्कृति और परंपरा के बेहद सधे हुए कदमों से अपना जीवन और स्वतंत्रता संघर्ष, दोनों को आगे बढ़ाते हैं। भारतीय सभ्यता के जीवन मूल्यों को एकादश व्रत के रूप में स्वीकार करते हुए गांधी जी ने सभ्यतागत विमर्श की चर्चा किये बिना ही उसे व्यावहारिक स्वरुप प्रदान किया।
भारतीय सभ्यता को जिन-जिन उपक्रमों व आचार-व्यवहारों से देखा-समझा जा सकता है गांधी जी अपने जीवन में वह सब करते हुए दिखाई देते हैं। यही नहीं वे विभिन्न विश्व दृष्टियों को ध्यान में रखकर भारतीय सभ्यता की उपयोगिता और उसके लोककल्याणकारी उद्देश्यों की चर्चा करते हैं। गांधी जी अपने सभ्यतागत विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए जरूरत पड़ने पर गैरभारतीय सभ्यताओं पर सीधा हमला भी करते हैं। चाहे वह हिंद स्वराज में शैतानी सभ्यता के रूप में हो या फिर 1916 में मद्रास में ईसाई मिशनरियों की सभा में धर्मांतरण के सवाल पर हो या फिर 1931 में लंदन में भारतीय शिक्षा को नष्ट करने के सन्दर्भ में लगाया गया आरोप हो। गांधी जी पूरे सद्भाव के साथ इन बातों को कहते हैं और इसे समझने की जरूरत बताते हुए कहते हैं कि भारतीय सभ्यता का दर्शन केवल भारत भूमि के मानव के लिए नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के मानव और सम्पूर्ण सृष्टि के लिए कल्याणकारी है।
गांधी जी जब स्वतंत्रता आंदोलन को स्वदेशी मार्ग पर अग्रसारित करते हैं तो वह स्वदेशी केवल भौतिक जीवन को सुलभता प्रदान करने वाली वस्तुओं तक सिमित नहीं है। “स्वदेशी” का वह दर्शन, स्वतंत्रता संघर्ष के “स्वधर्म” के रूप में परिभाषित होता है। जिसमें गौ रक्षा-गौ सेवा, हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में व्यापकता प्रदान करना, स्वच्छता का सौंदर्य बोध, स्वावलम्बी शिक्षा और ग्रामोद्योग, कृषि, ग्रामीण जीवन और उसकी लोक परंपराएं और विभिन्न रूपों में प्रकृति संरक्षण, सब शामिल है। वैश्विक सभ्यता विमर्श के केंद्र में गांधी जी जिस “स्वदेशी” को स्थापित करने का काम कर रहे हैं वह किसी विदेशी विचार या चिंतन से निकला दर्शन नहीं है। वह विशुद्ध भारतीय सभ्यता के मूल में निहित आध्यात्मिक अधिष्ठान का दर्शन है जिसमें दुनियां के किसी भी मनुष्य का उत्थान निहित है।
गांधी जी के 150वें जन्म वर्ष में हमें गांधी जी को उनके इन विचारों के आलोक में देखते हुए सभ्यता विमर्श को आगे बढ़ने की जरूरत है। यही भारत का स्वधर्म है।
(पुस्तक- भारतीय सभ्यता : गांधी व धर्मपाल का चिंतन, का अंश )
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