भूमिका:
भारतीय शिक्षा भारतीय समाज से विच्छिन्न परिघटना नहीं है। शिक्षा समाज के लिए और समाज के भीतर ही होती है। अतः भारतीय शिक्षा के स्वरूप को भारतीय समाज के स्वरूप से तोड़कर देखना जानना संभव नहीं है। भारतीय शिक्षा पद्धति के सिलसिले में आधुनिक चिंतन धाराओं द्वारा की जाने वाली आलोचना दरअसल उस वक़्त के भारतीय समाज में मौजूद स्तरीकरण के प्रभावों की आलोचना है। जब कोई यह कहे कि अमुक वर्ग को शिक्षा का अधिकार नहीं था तो वह एक ढंग से शिक्षा पर नहीं वरन उस वर्ग की सामाजिक हैसियत पर टिप्पणी करता है। अब क्योंकि पिछले सवा सौ बरस में भारतीय समाज में जातिभेद को लेकर इतना आलोचनात्मक विमर्श हुआ है सो उस विमर्श से पैदा हुई दृष्टि ने परम्परागत शिक्षा संबंधी मूल्यांकन को भी प्रभावित किया ही है। बिना घुमाये फिराए कहा जाए तो इस आलोचना का केंद्रीय तत्त्व यह है कि जातिभेद से ग्रसित समाज में समतामूलक शिक्षा हो ही नहीं सकती थी। उनके अनुसार एकलव्य से लेकर स्त्री-शूद्र को वेद न पढ़ाये जाने के किस्सों तक भारतीय शिक्षा का आख्यान सामाजिक भेदभाव का अकादमिक-संस्करण मात्र है।
ऐसा नहीं है कि पिछली सदी में आयी इस आलोचना ने हमें प्रभावित ही न किया हो। हममें से कमोबेश सभी इस आलोचना से जूझते रहे हैं। कुछ विद्वान पूरी तरह इसे स्वीकार कर भारतीयता के विचार को ही निरस्त कर बैठे। कुछ इस विषय में मौन धारण कर गए और कुछ ने इस आलोचना को विदेशी प्रभावमिश्रित कहकर विचारयोग्य ही न माना।
भारतीय परम्परा में जातिभेदमूलक भेदभाव के नैरेटिव ने सर्वाधिक ज़ोर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पकड़ा जब गांधी-आम्बेडकर बहस हुई। दक्षिण में पेरियार सरीखे विचारकों के प्रभाव में उभरे आंदोलन ने गैर-ब्राह्मण अस्मिता का निर्माण शुरू किया। इनसे पहले ये बीज फुले के चिंतन में भी ढूंढे जा सकते हैं। ये सब धाराएं एक जैसी नहीं थीं। इनके बीच में कुछ सूक्ष्म भेद अवश्य थे लेकिन ये अभी एक बात पर सहमत थीं और वह ये कि भारतीय समाज अपने मूलाधारों में अन्यायपूर्ण स्तरीकरण पर आधारित है और इसलिए पूर्ण-ध्वंस द्वारा पुनर्रचना योग्य है।
इन सभी आलोचनाओं से उस दौर के विचारक अपने अपने ढंग से निपट रहे थे। उत्तर से लेकर दक्षिण तक उथल-पुथल जारी थी।
इन सबके बीच गांधीजी ऐसे चिंतक के रूप में उभरे जिन्होंने ‘सम्पूर्ण ध्वंस’ के विचार को स्वीकार नहीं किया। ध्यान रहे कि पश्चिम से आयी ‘क्रान्ति’ की अवधारणा में एक बिंदु यह भी था कि ‘नवीन’ की रचना के लिए ‘पुरातन’ को विदा करना पड़ता है और वह पुरातन ‘ध्वंस’ के रास्ते सबसे तेज़ी से जाता है। इस विचार में गज़ब का सम्मोहन था और बहुत से लोग इसकी गिरफ्त में आये भी (और आज भी हैं)! लेकिन गांधीजी के अनुसार हमें देश-काल के संदर्भ में जहाँ आवश्यक हो, वहाँ अपेक्षित सुधार तो करने होते हैं, लेकिन ‘सम्पूर्ण ध्वंस’ जैसी अवधारणाओं से कुछ ज़्यादा नहीं निकलता।
इस बात को बहुत ध्यान से देखने की आवश्यकता है, कि जो प्रगति है वह परम्परा के ध्वंस से नहीं आती। वह परम्परा के भीतर से ही आती है। परम्परा का विपरीत-विचार ‘आधुनिकता’ है – प्रगति नहीं। इसलिए गांधीजी परम्पराभंजक नहीं बनते। वह विरोध करते हैं – तो आयातित आधुनिकता का। ‘हिन्द स्वराज’ उसी यांत्रिक आधुनिकता की आलोचना का दस्तावेज़ है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि उस ‘हिन्द स्वराज’ को रूपाकार देने के औजार टॉलस्टॉय-रस्किन-थोरो सरीखे पश्चिमी विचारकों से आये जो पश्चिम के होते हुए भी उस आधुनिकता को स्वीकारने से इन्कार करते हैं जो इधर भारत में भी लादी गयी।
गांधीजी जब दक्षिण में गए तो वहां के कुछ जिज्ञासुओं ने ‘गैर-ब्राह्मण’ अस्मिता आंदोलन के बहाने उन्हें कुरेदना चाहा, लेकिन गांधीजी ने एक बार भी किसी एक जाति-वर्ण विशेष के विरुद्ध कोई विचार प्रकट नहीं किया। गांधीजी का समाज के घटकों के प्रति ये संतुलन-भाव ही उन्हें भारतीय शिक्षा के परम्परागत ढांचों के प्रति जल्दबाज़ी भरी आलोचना से बचाता है। वे ‘नयी तालीम’ की बात तो करते हैं, लेकिन वह ‘नयापन’ पुरातन के आधार से ही निर्मित है।
गांधीजी ज़रूर यह देखते रहे होंगे कि भारतीय समाज में मौजूद लोकगीतों-संस्कारों-कलाओं और विश्वासों में यह जो अद्भुत ठहरावभरा प्रशांत भाव है उसका कोई आधार तो होगा! ऐसा कैसे सम्भव है कि अपने सामूहिक अवचेतन में द्वंद्व और टकरावों से भरा समाज इतने लम्बे समय तक न सिर्फ़ टिक पाए बल्कि वहाँ के साधारण ग्रामीण शिल्पी-कलाकार सदियों तक उच्चकोटि का कला-सृजन भी करते रहे। ऐसा कैसे सम्भव है कि संतपरंपरा के भीतर नाथपन्थी निर्गुणपंथी धाराओं और लोकदेवियों के स्थानों पर गैर-ब्राह्मण को भी उतना ही मान सम्मान मिल जितना दूसरे मंदिरों में मौजूद किसी ब्राह्मण पुजारी को।
भारतीय समाज की आलोचना करने वाली धाराएँ इस बात की व्याख्या कैसे करेंगी कि एक लोकदेवी के मंदिर में दलित पुजारी के समक्ष पूरा समाज अपना सिर श्रद्धापूर्वक कैसे झुकाता है! किसान परिवारों के व्यक्ति नाथपन्थी मठों के महंत होते हैं। निर्गुण धारा के डेरों में तो सर्वत्र गैर-ब्राह्मण महंत ही दृष्टिगोचर होते हैं। उत्तर भारत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा-राजस्थान के इलाकों में सर्वखाप की सैद्धांतिक व्याख्याओं में दलित-किसान-द्विज एक ही धरातल पर कैसे खड़े हैं!!
बात कुछ ऐसी है कि भारतीय समाज में भेदभाव ढूँढने वाले विद्वान अपनी शिकायत को इतना दूर ले जाते हैं कि वह शिकायत अपना वैध तत्त्व भी खो बैठती है। अहर्निश ‘साझी संस्कृति’ का मंत्रजाप करने वाले विद्वान जातीय समस्या के समय सारा ‘साझापन’ भूलकर केवल टकराव का आख्यान कैसे रचते हैं! क्या ‘साझी संस्कृति’ का तर्क धार्मिक झगड़ों के वक़्त इस्तेमाल किये जाने वाला महज़ ताश का एक पत्ता भर है! क्या भारत की जातियों में कोई साझापन नहीं! भारत में कई हिस्सों में शूद्र-दलित के साथ जो अनपेक्षित अन्याय हुआ उससे किसी को इंकार नहीं है। गांधीजी का हरिजन-उद्धार कार्यक्रम समाज के भीतर आयी बुराईयों को समाप्त करने का ही एक प्रयास था। लेकिन समाज में आयी किसी समस्या को हम सुलझाएँ या कि पूरे समाज का ही विध्वंस करने पर तुल जाएँ।
गांधीजी की दृष्टि समाज में आयी जातीय समस्या से भागती नहीं! लेकिन वह समाज के प्रति एक स्थायी नकारात्मक दृष्टिकोण लेकर तोड़फोड़ पर उतारू भी नहीं होती। पुराने भारतीय ढाँचे में वह क्या तत्त्व थे जिनसे समाज में आये गतिरोध को दूर किया जाता! पुराने भारतीय समाज के भीतर शिक्षा इस सबमें क्या भूमिका अदा करती थी! वह शिक्षा ही क्या जो मात्र आजीविका कमाने के आगे हमें कोई दृष्टि न दे! हमारे समाज में द्वंद्व हैं – ये बात ठीक है। लेकिन शिक्षा उस द्वंद्व का समाधान सुझाएगी या फ़िर समूचे भारतीय भूतकाल के प्रति एक नकार का भाव पैदा करेगी!
इस लम्बी चौड़ी भूमिका का उद्देश्य यही है, कि हम यह समझें कि पुराने भारत में द्वंद्व के साथ साथ कुछ बेहद प्रशंसनीय आयाम भी थे। उन आयामों को खोजने का कार्य वही कर सकता था जिसके पास गांधीजी की तरह भारत के प्रति एक गहन श्रद्धा का भाव हो। यही श्रमसाध्य काम धर्मपाल ने किया। धर्मपाल की विचारभूमि गांधीजी की चिंतनधारा और उस विराट भारतीय दृष्टि पर स्थित है जो टकराव के बाद समन्वयात्मक-अंतर्भुक्ति को अपने में समेटे है।
(क्रमश:…)
अक्तूबर २०१९ के सभ्यता-संवाद में पूर्वप्रकाशित
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