मध्यप्रदेश राज्य की सीमा पर ‘रतलाम’ और गुजरात राज्य की सीमारम्भ पर ‘दाहोद’ स्टेशन के बीच में एक स्टेशन पड़ता है – मेघनगर। बहुत ही छोटा सा स्टेशन है। मध्यप्रदेश राज्य में ही आता है। प्रदेश के झाबुआ जिले में जाने के लिए यहीं उतरना पड़ता है। परसों रात, या यह कहिए कि कल भोर में चार बजे यहीं उतरा था। झाबुआ के गोपालपुरा, हवाई पट्टी पर ‘ग्राम समृद्धि के नवकुम्भ’ का आयोजन था। दिन भर के कार्यक्रम में शामिल होकर, युवाओं की ऊर्जा से अपने को रीचार्ज करके, देर रात की ट्रेन पकड़ने फिर मेघनगर आ पहुँचा।
ट्रेन आने में थोड़ी देर थी। बाहर बैठने की कुछ जगह न थी। तभी एक कमरे के आगे ‘उच्च श्रेणी प्रतीक्षालय’ लिखा देखा। कमरे की स्थिति का आकलन करने की मंशा से दरवाजा धकेलकर अंदर घुसा। कमरा छोटा था, पर बढ़िया साफ सुथरा था। अंदर तीन बेंचनुमा कुर्सियाँ लगी थीं। एक कुर्सी में तीन लोग आराम से बैठ सकते थे। इनमें से एक कुर्सी में एक व्यक्ति बैठा था। दूसरी कुर्सी पर मैं पसरकर बैठ गया और आदतन अपने मोबाइल पर लग गया।
ट्रेन आने का जब पहली बार एनाउंसमेंट हुआ, तो मैं अपने मोबाइल को बंद करके उठ खड़ा हुआ। बाहर जाकर देखा। चूँकि छोटा ही स्टेशन था, तो अपने प्रतीक्षालय के बाजू से ही लगे स्टेशन मास्टर के कमरे में जाकर ट्रेन की, और ट्रेन में अपनी बोगी की पोजिशन ली। और फिर अपना सामान लेने के लिए लौटकर प्रतीक्षालय में पुनः दाखिल हुआ। चूँकि अभी भी ट्रेन आने में थोड़ा समय था, तो इस बार उस कमरे का पूरा मुआयना किया। उसमें एक ओर चंदेरी के किले की एक फोटो मढ़वा के लगाई गई थी।
दूसरी ओर जो था, वही इस पोस्ट की मुख्य सामग्री है। उस ओर श्रीकृष्ण ‘सरल’ जी की एक कविता थी — ‘कहो नहीं, करके दिखलाओ’!
कहने को तो यह एक बहुत ही सरल सामान्य सा विषय है। पर उस वक्त मेरे लिए वह बहुत ही विशेष बन गया था। क्योंकि, पिछले तीन-चार दिनों से लगातार इसी विषय पर चिंतन चल रहा था।
दरअसल, अभी तीन-चार दिन पहले, एक चिंतनशील समूह में भारतीयता, भारतीय व्यवस्थाएँ आदि के संबंध में ऑनलाइन पाठ्यक्रम आदि आरंभ करने के विषय में चर्चा चल रही थी। चर्चाओं के मध्य किसी ने जैसे मेरे विचारों को बढ़िया शब्द दे दिये — कर तो हम जो चाहे कर सकते हैं, पर ‘फसल तो खेत जोतने और खेत में काम करने से ही आयेगी’।
गाँधी जी का यही विचार – Be the change you want to see – न जाने कब से एक मार्गदर्शक के रूप में मेरे साथ चल रहा है।
इसी बात का जिक्र आज नवकुम्भ के चर्चा सत्रों में भी आया। झाबुआ के भील समाज की समृद्ध हलमा परम्परा के शिवगंगा प्रकल्प में शामिल होने की पृष्ठभूमि समझाते हुए आदरणीय श्री महेश शर्मा जी बता रहे थे कि एक बार उन्होंने पानी के महत्व को लोगों तक पहुँचाने के लिए गाँव वालों के साथ मिलकर एक बहुत विशाल गैंती रैली निकाली। प्रचलित मापदंडों के अनुसार तो रैली बहुत सफल रही। पर रैली के बाद गाँव वाले उनसे पूछने लगे कि रैली करने से कौन सा पानी आयेगा? या कौन सा पानी बचेगा? तभी से हलमा कार्यक्रम वर्तमान रूप में चालू हुआ। इसमें आसपास के गाँवों से एक साथ हजारों की संख्या में लोग आकर जल संरक्षण के विभिन्न कार्य एक ही दिन में करके चले जाते हैं।
दिमाग में सब चल ही रहा था कि उसी कड़ी में ‘सरल’ जी की यह कविता भी अचानक से मिल गई। इस पूरी पृष्ठभूमि में आप भी नीचे दी गई छवि से इस कविता को पढ़कर आनंद लीजिये।

रही बात मेरी, तो मेरा चिंतन थोड़ा आगे भी चला।
‘फसल पाने के लिए खेत जोतने’ की आवश्यकता तो है ही। पर समाज में ‘स्मृति जागरण’ का भी उतना ही महत्व है। ये दोनों कोई mutually excluded कार्य नहीं है, अतः दोनों ही कार्यों के किये जाने की आवश्यकता है।
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श्री आशीष कुमार गुप्ता जी की फेसबूक वॉल पर 2 मार्च को पूर्व प्रकाशित
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