आस्था भारद्वाज
रुपेश पाण्डेय
भारत में आज जो गरीबी दिख रही है, उसका एक इतिहास है। ठीक वैसे ही, जैसे गरीब शब्द का। गरीबी को परिभाषित करने वाला यह शब्द, आज हिंदी शब्दकोष में भले ही अपना स्थान बना चुका है, लेकिन यह मूल हिंदी का शब्द नहीं है।
भारत से हज़ारों किमी. दूर अरब से लम्बी यात्रा कर यह गरीब शब्द भारत पहुंचा है। जैसे अरब के आक्रमणकारियों ने लूट-पाट के साथ धीरे-धीरे भारत में अपनी गहरी जड़ें जमा लीं उसी तरह गरीब शब्द ने भी बड़ी मासूमियत और सदासयता के साथ हिंदी शब्दकोष में घुसपैठ कर कब्ज़ा जमा लिया।
भारत में आज जिस गरीब और गरीबी की चर्चा होती है, दरअसल वैसी कोई चीज भारत में रही हो, इसका कोई इतिहास नहीं है। आज अगर इसके समानांतर हिंदी का कोई शब्द ढूंढेंगे, तो निर्धन या विपन्न को इसका समानार्थी कहा जा सकता है, लेकिन वास्तविकता में निर्धन और विपन्न, गरीब के समानार्थी नहीं हैं – यह गरीब के इतिहास से ही पता चल जाता है।
एक शोध के अनुसार ग़रीब मूलतः सेमेटिक भाषा का शब्द है। हिब्रू, अरबी भाषाओं में इसके अनेक रूपांतर मिलते हैं। दिलचश्प बात यह है कि आज जिन अर्थों में गरीब शब्द का प्रयोग होता है, इसकी मूल भाषा में इसका अर्थ भिन्न है। प्राचीन हिब्रू भाषा में गरीब, गर्ब के रूप में है जिसका अर्थ होता है: अंधकार, कालापन, पश्चिम का व्यक्ति और शाम का भाव।
गौरतलब है कि अरब के पश्चिम में अफ्रीका के मूल निवासी निग्रो, जिन्हें हब्शी भी कहा जाता है, का रंग भी काला है। प्राचीनकाल से ही अफ्रीका के हब्शी अरब में गुलामों की तरह से खरीदे-बेचे जाते रहे। गर्ब शब्द में इन्हीं नीग्रो का अभिप्राय है। ये गुलाम, मालिकों से सिर्फ भोजन और वस्त्र ही पाते थे, जाहिर है इन्हें गरीब अर्थात पश्चिम से आया हुआ कहा गया।
वर्तमान में गरीबी का सन्दर्भ आर्थिक है। यानि,आर्थिक रूप से कमजोर होना।
भारत में गरीब का अपने मूल से बिछड़ा हुआ वर्तमान सन्दर्भ अरबी आक्रांताओं के साथ आया है। अरबी, फारसी और उर्दू में पश्चिम दिशा को मग़रिब कहते हैं। आक्रांताओं के साथ आये हुए लोग गरीब कहलाये, जो बाद में आदमी की समृद्धि से जुड़ गया। भारतीय समाज में गरीब शब्द और उसका किसी प्रकार कोई अर्थवान चरित्र नहीं रहा। यहाँ, निर्धन रहा है। सत्यनारायण की कथा से लेकर पंचतंत्र और पुराणों तक में निर्धन शब्द का ही प्रयोग हुआ है।
निर्धन केवल अर्थचेतना से जुड़ा शब्द नहीं है। सामान्यतः यह ब्राह्मण धर्म का निर्वाह करने वालों के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। गरीबी गुलामी का प्रतीक है और निर्धनता, ब्राह्मण की श्रेष्ठता का प्रतीक है। निर्धनता अभिशाप नहीं है, आभूषण है। यह एक सामाजिक व्यवस्था है। श्रेष्ठता यानि मनुष्य में भेद नहीं। श्रेष्ठता यानि लोक कल्याण का जीवन। ब्राह्मण धर्म का पालन करने वालों के लिए निर्धनता ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है।
एक कथा आती है कि श्रेष्ठ ब्राह्मण कौन? तो, रवींद्र शर्मा गुरुजी बहुत सुंदर ढंग से यह कथा सुनाते थे, कि जिस ब्राह्मण के घर में तीन सप्ताह के भोजन की व्यवस्था हो वह अच्छा ब्राह्मण है। जिसके घर में तीन दिन के भोजन की व्यवस्था हो वह श्रेष्ठ ब्राह्मण है और जिसके घर में तीन समय के भोजन की व्यवस्था हो वह सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण है।
निर्धन अर्थात जिसके पास कोई धन न हो। भारतीय परंपरा में आठ प्रकार के धन (लक्ष्मी) माने गए हैं। कहावत है-
गौ धन गज धन बाज धन और रतन धन खान
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान॥
स्त्री भी एक धन है, कन्या धन। धन का ही दान होता है, इसलिए विवाह में कन्या के पाणिग्रहण संस्कार को कन्या दान भी कहा गया। दान किये गए धन को वापस नहीं लिया जाता, इसलिए भारतीय समाज में तलाक जैसी कोई परंपरा नहीं बनी। विद्या भी एक धन है। रत्न भी एक धन है। पशु (गौ, गज आदि) भी एक धन है। धैर्य भी एक धन है। धान्य भी एक धन है। ब्राह्मण के बारे में कहा गया कि उसका धन विद्या है। वह अपरा विद्या हो या परा विद्या। निर्धन ब्राह्मण वही कहलाता रहा, जिसके पास कोई विद्या न हो।
समाज में हर एक के पास कोई न कोई धन होता ही था, वह उसी धन से धनवान कहलाता था। आज हमारे पास सौ भेड़-बकरी हो लेकिन जेब में सौ रुपये नहीं हो, तो हम गरीब कहे जायेंगे। करेंसी (नोट) व्यक्ति के अमीरी-गरीबी का मापक बन गया है। सामाजिक प्रतिष्ठा में आये इस बदलाव की वजह औद्योगिक क्रांति और उससे निकली बैंकिंग प्रणाली है। जिसमें करेंसी ही एक मात्र आर्थिक व्यवहार का जरिया है।
(क्रमशः)
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