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हमारी ग्रामीण महिलाएँ इसी बीमारी को या इसी दोष को अपने अंदाज़ में हमें बता रही थी, जब उन्होंने कहा “उन्हें होना सिखाओ, दिखना/ दिखाना नहीं”। हमारे लिए तो यह एक मंत्र भी और सूत्र भी जैसा बन गया, जिसने आगे की हर दिशा का मार्गदर्शन किया। इस एक सूत्र ने बहुत सी परतें खोलने का काम किया।
हमने देश में अलग अलग शिक्षा व्यवस्थाओं के अंतर्गत चलने वाली पाठ्यपुस्तकों का बारीकी से अध्ययन किया और पाया, कि अनजाने में ही उनमें ऐसी बातें भरी पड़ी हैं, जिनसे हीनता और नकल करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले। इससे फर्क नहीं पड़ता, कि वे किताबें एनसीआरटी की हैं या आईसीएससी या शिशु मंदिर की।
मसलन कक्षा 3 की हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में एक पाठ सरोजिनी नायडू पर था, जिसमें शुरू की ही पंक्तियों में कुछ ऐसा लिखा था, “सरोजिनी नायडू बहुत होशियार थीं। पाँच वर्ष की उम्र में वे अंग्रेजी में सुंदर कविता लिखती थीं”। इसे उदाहरण के तौर पर दे रहा हूँ। यह उत्तर प्रदेश के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली किताब की बात है।
उत्तर प्रदेश में बच्चा घर पर अवधी, भोजपुरी, ब्रज, कौरवी इत्यादि अपनी बोली बोलते होंगे। कक्षा तीन में आम तौर पर बच्चे की उम्र लगभग 8 से 9 वर्ष की होती है। इन बच्चों ने पहले से ही अंग्रेजी को लेकर पता नहीं क्या – क्या सुन रखा होगा! पता नहीं इस भाषा से वह कितना आतंकित होंगे, कितनी दूर की कौड़ी उसे समझते होंगे! इसका तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।
जब 8/9 साल का बच्चा हिन्दी की पुस्तक में यह पढ़ता है कि सरोजिनी नायडू बड़ी होशियार थी, तो उसको उनके अंग्रेजी ज्ञान से ज़रूर जोड़ता होगा और फिर यह, कि सरोजिनी जी तो पाँच वर्ष में ही अंग्रेजी में कविता लिख लेती थी और यह बच्चा तो अभी a, b, c भी ठीक से नहीं जानता, तो यह तो अपना पूरा आत्मविश्वास ही खो देता होगा। इस बात को समझने के लिए कोई बड़ा मनोवैज्ञानिक होने की ज़रूरत नहीं। इस तरह की तमाम बातें जो अनजाने ही बच्चे का मनोबल तोड़ देती हैं हमारी पाठ्यपुस्तकों में भरी पड़ी हैं।
धीरे धीरे यह बात समझ आने लगी, कि हमारी किताबें मनोबल तोड़ने के काम के साथ साथ, गाँव और गाँवों से, भारत (इंडिया से अलग) से जुड़ी, साधारण आदमी की मान्यताएँ, स्थानीय भाषाएँ, उनकी पोशाक, उठने-बैठने के तरीके, काम करने के तरीके, उनकी पारंपरिक ज्ञान पद्धतियाँ – सभी को ‘पिछड़ेपन’ की कोटि में डालने का काम और शहर, शहरीकरण, आधुनिकता, अंग्रेजी भाषा, पश्चिमी संस्कृति को (“विकास” या “विकसित”) ऊंचा दर्जा देने का काम कर रही हैं।
इसी क्रम में हमने गांधी जी की ‘बुनियादी शिक्षा’ को समझने का प्रयास किया और यह समझ बनी, कि गांधी जी वस्तु (object) और वास्तविकता (reality) को विषय (subject) से अलग रखते थे और उनकी प्राथमिकता में वस्तु और वास्तविकता का स्थान विषय से ऊंचा था। आज की शिक्षा में, ठीक इसके विपरीत, विषयों का अधिमूल्यन किया गया है और स्वतः ही वस्तु / वास्तविकता का महत्त्व गिर गया है, वे पीछे धकेल दिये गये हैं। इसका एक परिणाम शिक्षा का पूरी तरह अव्यावहारिक हो जाना है।
सही मायने में शिक्षा का उदेश्य वस्तु (जो कुछ भी हमारे अंदर और बाहर के संसार में है) और उसकी वास्तविकता को समझना ही तो है। वस्तु और वास्तविकता नैसर्गिक है। धरती, धरती में पाये जाने वाले भौतिक पदार्थ, सूरज, चाँद, सितारे, अन्तरिक्ष, पेड़ – पौधे, हरियाली, पशु – पक्षी, मनुष्य और उसके अंदर का संसार (ये सारे वस्तु की कोटि में आते हैं) और जिन नियमों के अंतर्गत ये कार्यरत हैं, जिस परस्परता में यह रहते हैं, इसे वास्तविकता कहा जा रहा है।
इन्हें समझने के उद्देश्य से मनुष्य ने विभिन्न कोटियाँ बनाई – विषयों का तरीका निकाला और वर्गीकरण किया। यही बात पाठ्यपुस्तकों के ऊपर भी लागू होती है। विषय और पुस्तकें मनुष्य ने बनाई, अपनी सुविधा के लिए। वे एक प्रकार से माध्यम या साधन हैं, लक्ष्य तो वस्तु और वास्तविकता को समझना ही होता है।
मनुष्य एक सुंदर जीवन जी सके, उसका मनोबल, सामर्थ्य, अस्मिता का भाव और आत्मविश्वास ऊंचा रहे और वह अपनी जीविका ठीक से चला सके, बगैर दुनिया की चूहा दौड़ में शामिल हुए – यही ध्येय उत्कृष्ट ध्येय है। भारत की महानता तो इसी बात में रही है, कि यहाँ का साधारण ही श्रेष्ठ था। हमने पाया, कि आधुनिक शिक्षा का इससे कोई सरोकार नहीं रह गया है। इसलिए हमने अपने स्कूलों में पाठ्यपुस्तकों को एक किनारे किया।
पाठ्यपुस्तकें भी तो विषय की ही तरह माध्यम ही हैं, लक्ष्य नहीं। विषय वस्तु को हमने स्थानीय (भोगौलिक एवं सांस्कृतिक) परिवेश से जोड़ा। आस-पास के पेड़ – पौधे, पशु – पक्षी, नदी – नाले, पर्वत, खेती के तरीके, आस-पास की वस्तु और शिल्प कला, स्थानीय त्योहार, स्थानीय पकवान, अनाज, उनके संरक्षण के तरीके, पन-चक्की, स्थानीय ज्ञान परम्पराएँ, वहाँ की बोली-भाषा, मुहावरे, कहावतें, किंवदंतियाँ इत्यादि हमारी विषय – वस्तु बने। इन्हें केन्द्र में रखकर न सिर्फ हम विभिन्न विषयों की व्यावहारिक जानकारी दे पाए, पर साथ ही दो महत्वपूर्ण काम भी सहज ही हो गए।
एक तो हमें ढेर सारे पारंपरिक ज्ञान परम्पराओं का पता चला। भोजन, अनाज और स्वास्थ्य का संबंध, पशु – पक्षियों के व्यवहार, बादलों और आसमान की छटा, हवा की गति और दिशा का मौसम व खेती से संबंध, तिथियों और चंद्रमा की कलाओं, पश्चिमी आकाश का सूर्यास्त के समय के रंग का खेती और मौसम की भविष्यवाणियों से संबंध, अच्छे और बुरे व्यवहार की सामान्य बातें – ये सब स्थानीय बोली – भाषा की कहावतों, दोहों, मुहावरों और कहानियों मे भरा पड़ा है।
यह एक अनूठा और गज़ब का संसार है, जो पूरे भारत के लोक जीवन में घुला – मिला है और आधुनिक शिक्षा की आंधी में तेजी से लुप्त होते जा रहा है। हमने इस ज्ञान को बच्चों को प्रत्यक्ष जाँचने के लिए प्रेरित किया। मसलन अगर यह मान्यता है कि फागुन के महीने में जब कौवा अपना घोंसला बनाता है और वह पेड़ के बीच में यानि पत्तों के बीच में (न बहुत ऊपर न बहुत नीचे) बनाता है, तो मान्यता है, कि उस वर्ष अच्छी बारिश होगी और अगर घोंसला पेड़ के ऊपरी हिस्से में किसी साल बनाता है तो उस वर्ष बारिश बहुत ही कम होगी। ध्यान रखने की बात है कि फागुन में घोंसला बनता है और बारिश आषाढ़ से शुरू होती है – बीच में 3-4 महीनों का फासला है। हमने इस मान्यता पर अपने स्कूलों में प्रोजेक्ट बनाकर इस बात को जाँचने की कोशिश की, एक नहीं लगातार कई वर्षों तक और हमें इसके सुखद परिणाम मिले।
इसी प्रकार मान्यता है, कि अगर पश्चिमी आकाश का रंग सूर्यास्त के वक्त ‘रक्तिम’ होगा, तो ठीक नौ माह के बाद (हमारे तिथि की गणना के अनुसार जो चंद्रमा से संचालित है, न कि सूरज से) तो उस दिन जहाँ, जिस गाँव में सूर्यास्त देखा गया है वहाँ, बारिश ज़रूर होगी। इसे भी हमने जाँचा और पाया, कि यह ज्ञान कारगर है। इससे हमें यह समझ आया, कि हमारा पारंपरिक ज्ञान सदियों के गहरे और बारीक अवलोकन (observation) पर आधारित है और उसमें नैसर्गिक अवयवों के आपसी संबंध देखे गए हैं – ऐसा – ऐसा होता है तो ऐसे – ऐसे परिणाम देखने को मिलते हैं।
इसमे आज के आधुनिक विज्ञान की तरह खोज सिर्फ “क्यों” तक नहीं सिमटती, वरन यहाँ हमारी लोक परम्पराओं में “क्या” को समझने का प्रयास है। लोक ज्ञान परम्पराएँ अनुभवजन्य ज्ञान (empirical) होती हैं, जिन्हें हमने आधुनिकता की चकाचौंध में रद्दी की टोकरी में फेंक दिया, पर हमारा अनुभव है, इसे अनुभव के आधार पर जाँचने की ज़रूरत है और सही हों, तो सम्मानित करने की ज़रूरत है।
——————–क्रमश:——————–
पहले http://pawansidh.blogspot.com/2020/06/blog-post.html के उपर प्रकाशित।
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