अर्थ से शब्द की ओर (३/३)

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स्थानीय परिवेश से शिक्षण के हमारे प्रयोग से हमने पाया, कि बच्चे पढ़ा – लिखा होने और शिक्षित होने के भेद को समझ पाये। उनके बुजुर्ग – जिनको वे अनपढ़ होने की वजह से, एक तरफ उन्हें तिरस्कार की नज़र से देखते थे और दूसरी तरफ अपने में हीन भावना महसूस करते थे, उनको वे धीरे धीरे सम्मान की नज़र से देखने लगे और उनमें अस्मिता के भाव की भी वृद्धि हुई। अब वे समझ पाये, कि जो ज्ञान उनकी किताबों में नहीं था, उनके बुज़ुर्गों के पास था और वह कारगर था, व्यावहारिक था – जिसे वे अपने स्कूलों में प्रयोग कर के सिद्ध कर पाये।

इस क्रम में हमने अपने पढ़ाने की पद्धति में परिवर्तन करना पड़ा। ज्ञान को अस्तित्व या प्रकृति सहज बनाने के प्रयास हुए। उदाहरण के लिए, हमारी तिथि की गणना अस्तित्व सहज है। चांद को देख कर आप तिथि का अंदाज़ा लगा सकते हैं (प्रथमा, दूज, अमावस्या, पूर्णिमा इत्यादि) जबकि अंग्रेजी तारीखें आपको याद रखनी पड़ती हैं। दूसरा उदाहरण: किताबों में लिखा होता है, ‘सूरज पूरब से उगता है’। इस विधि को हमने ठीक किया। हम पढ़ाते थे, ‘सूरज जिस दिशा से उगता है, उसे हम पूरब कहते हैं’।

इसका अर्थ है, कि शब्द और अर्थ या वस्तु / वास्तविकता में भेद करना हमने सहज ही प्राप्त किया। शब्द सिर्फ एक नाम है। नामकरण मनुष्य ने किया है। अस्तित्व में घटनाएँ, वस्तुएँ पहले से हो ही रही हैं, इनमें – नाम और वास्तविकता में – भेद करना आवश्यक है। नहीं तो प्रतीक, नाम, झंडे, शब्द असली वस्तु पर भारी पड़ने लगते हैं और हम असलियत से दूर होते चले जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता।

स्थानीय परिवेश (भोगौलिक एवं सांस्कृतिक) से शिक्षण का सहज परिणाम यह भी होने लगा कि पढ़ाई वस्तु केन्द्रित (विषय केन्द्रित नहीं) होने की वजह से स्वतः ही समन्वित (integrated) ढंग से होने लगी। वस्तु / वास्तविकता को समझने के लिए एक नहीं, अनेक विषयों की आवश्यकता होती है। वे सहज ही जुडने लगे। विषयों के बीच जो एक (अस्वाभाविक) लकीर हमने खींच दी है, वह टूटने लगी। जैसे, खेती की बात के साथ गणित, स्वास्थ्य, लोक ज्ञान, भोजन, पाकशास्त्र सहज ही समन्वित होने लगे।

जैसा महात्मा गांधी कहा करते थे कि हम आधुनिकता और उसके अनेक अवयवों से चौंधिया गए हैं और अपने सब कुछ को बेकार समझ कर नकल करने में लग गए हैं। स्थानीय परिवेश से शिक्षण, जो कम से कम 7/8 कक्षा तक तो बगैर किसी परेशानी के संभव है, उससे हम बहुत कुछ बड़े सहज ढंग से बदल कर पटरी पर ला सकते हैं।

इसके उपरांत जो सरकारी शिक्षक बंधुओं को ढेर सारे सरकारी आंकड़े इकठ्ठे करने के लिए अलग से समय निकालना पड़ता है, उससे भी छुट्टी मिल सकेगी और स्थानीय आंकड़े – मनुष्य और पशु की गणना, मौसम की जानकारी (जैसे प्रतिदिन बारिश का पैमाना, उच्चतम और न्यूनतम तापमान, हवा की रफ्तार, नमी इत्यादि) हम स्कूलों में आसानी से बटोर सकते हैं। स्थानीय स्तर के नदी, नालों, तालाबों, झीलों, कुएं, बावड़ियों की जानकारी आसानी से स्कूलों में एकत्रित करवाई जा सकती है। स्थानीय मेले – ठेले, बड़े उत्सव – उनमें क्या क्या बिकता है, उनका इतिहास, उनसे जुड़ी कहानियाँ और गीत – ये सब स्कूलों में एकत्रित करवाए जा सकते हैं। स्थानीय उत्पाद, मनरेगा से मिलने वाली आमदनी की जानकारी स्कूलों में रखी जा सकती है – स्कूलों में सहज ही एकत्रित होती रहेगी और उनका नवीनीकरण भी होते रहेगा।

इस प्रकार की तमाम जानकारियाँ स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन सकती हैं। स्कूल एक प्रकार से स्थानीय रिसोर्स केन्द्र के रूप में काम कर सकता है। इन जानकारियों को एकत्रित करने की प्रक्रिया में बच्चे बहुत कुछ अपने क्षेत्र के बारे में तो सीखेंगे ही, उन्हें शोध करने के तरीके और बहुत सा व्यावहारिक ज्ञान सहज ही प्राप्त होता चला जाएगा। हमारा मानना है, इससे गाँवों से जो शहर की तरफ पलायन होता है, उसमें भी फर्क आयेगा। आज की पढ़ाई का रुख शब्द से अर्थ की ओर है। उसे बदल कर सीधा करने की ज़रूरत है – अर्थ से शब्द की ओर।

पहले http://pawansidh.blogspot.com/2020/06/blog-post.html के उपर प्रकाशित।

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