प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो

लेखक – किशनसिंह चावडा

पिताजी भक्त थे। निरांत संप्रदाय में उनकी गुरु परंपरा थी। अर्जुनवाणी के रचयिता अर्जुन भगत उनके गुरुभाई थे। पिताजी ने भी सन 1913 – 14 में तत्त्वसार भजनावलि नामक एक भजनसंग्रह छपवाया था। भजन गाने का उन्हें जन्मजात शौक था। प्रकृति ने बुलंद आवाज की देन दी थी। पुराने ठाठों की उनकी जानकारी गहरी थी। मारू, धनाश्री, गौड़ी जैसे पुराने राग और भजनों की परंपरागत शुद्ध तर्ज और रूप उनके गले में सुरक्षित रहे थे। अपने रचे हुए भजनों के उपरांत सूर, तुलसी, कबीर, रैदास, दादू और निरांत संप्रदाय के अन्य भक्तों के सैंकड़ों भजन उन्हें कंठस्थ थे। अतः शाम को नित्यनियम से सत्संग की बैठक जमती।

चांपानेर दरवाजे के खुशालदास काका अपनी जूतों की दुकान बंद कर के नहा धोकर भजन मंडली में शरीक होते। दिन भर राजगीरी की कड़ी मजदूरी करने के बाद शाम को भोजन करके हाथ में चिलम लिये हुए फकीर काका आ पहुँचते। दोपहर की भयानक धूप में घाट पर कपड़े धो-धो कर जिनकी चमड़ी खरे पक्के रंग की हो गयी थी वो लल्लू काका धोबी भी आते। दिन भर नगरपालिका की चिठ्ठियाँ बाँटते – बाँटते थक जाने वाले जमादार ठाकुरसिंह रास्ते में ही इकतारे का तार छेड़ते हुए आते। सुबह, दोपहर और सांझ को एक मान कर, दिन भर चाक घुमा कर निर्जीव मिट्टी में से नाम – रूप वाली आकृतियाँ घड़ने वाले शामलदास कुम्हार कंधे पर ढोलक लटकाकर आते और मुहल्ले के नाके पर ही ढोलक पर थाप मार कर अपने आने की सूचना देते। उनकी पत्नी धूलों बुआ पिताजी की मुँहबोली बहन थी। हर साल उसे हमारे यहाँ से एक मण बाजरा मिलता था, जिसके बदले में साल भर तक मिट्टी के हर प्रकार के बरतन वह दे जाती थी। मुहल्ले के नल पर नहा-धोकर पुरुशोत्तम काका भी सीधे मंडली में आते। पिताजी कहते कि पुरुशोत्तम के जैसी दाढ़ी बनाने वाला कारीगर तो विलायत में भी नहीं होगा। उनका हाथ इतना हलका था, कि हजामत बनवाते समय लोगों को नींद आने लगती।

यह पूरी मंडली दिन ढले बाद ही जमती थी। पहले जरा इधर-उधर की गपशप होती, फिर चिलम और हुक्के का दौर चलता। धीरे-धीरे ढोलक की कड़ियां कसी जाती, इकतारे के तार गिलते, मंजीरों की झंकार होती और भजन का आरंभ हो जाता। आठ बजे के करीब मुहल्ले का मेहतर धूला भगत रोटी मांगने आता, लेकिन रोटी मांगना भूल के वह दूर एक तरफ बैठ जाता और भजन में मस्त हो जाता। उसकी पत्नी महाकोर सुबह गली झाड़ने आती, तब उसकी लापरवाही की माँ से रोज शिकायत करती। रोटी समय पर न पहुंचाने के कारण बच्चे रात को भूखे ही सो जाते थे।

लल्लूकाका धोबी पहले रोज दारू पीते थे। लेकिन भजनमंडली में आना शरू करने के बाद पीना बिलकुल छोड़ दिया था। इसी प्रकार शामलदास ने गांजा और ठाकुरसिंह ने भांग पीना छोड़ दिया था। रात को आठेक बजे गिरधर चाचा तमोली आ पहुंचते और भजन का रंग जमता। गिरधर चाचा कई बार हमारे ही यहाँ भोजन करते। सप्ताह में दो-तीन बार ठेठ रंगमहल से मगनकाका दालवाने और पीरामितार से गंगाराम काका तेली भी इस सत्संग में शरीक होते। गंगाराम काका की घानी का शुद्ध तिल का तेल उन दिनों पूरे शहर में मशहूर था।

एक दिन माँ ने पिताजी के कान में भनक डाली, कि धूला भगत रात को रोटी मांगने आता है और भजन में बैठ जाता है। रात को बच्चे भूखे ही सो जाते थे। इसकी शिकायत महाकोर अनेक बार कर चुकी थी। पिताजी ने उसे समझाया, पर इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा। अतः यह व्यवस्था हुई कि धूला के साथ महाकोर भी आने लगी भगत भजन में बैठा रहता और महाकोर रोटियाँ लेकर घर चली जाती। यह जमाना ऐसा था, कि मुहल्ले के बच्चे धूला भगत को धूला काका और महाकोर को महाकोर काकी कहते थे। माँ भी रोटियाँ डालते समय, “लो महाकोर, रोटी ले जाओ जैसे आदरार्थ बहुवचन का प्रयोग करती। तीज-त्योहार के दिन महाकोर के लिए खाने का थाल अलग रख दिया जाता। जन्म – कर्म के अनुसार ऊँच – नीच और अस्पृश्यता का पालन कठोरता से होता था, पर मध्यम जातियों के बहुजन समाज के प्रति तुच्छता की भावना नहीं थी। अत्यंज अस्पृश्यों के प्रति भी नहीं।

एक बार ऐसा हुआ, कि लगातार तीन – चार दिन तक भगत रोटी मांगने नहीं आया। महाकोर अकेली ही आयी। महाकोर पिताजी से परदा करने के कारण उनके सामने बात नहीं करती थी। अतः पिताजी ने माँ के माध्यम से धूला भगत की गैरहाजिरी का कारण पुछवाया। मालूम हुआ कि भगत बीमार है। पिताजी ने माँ से सुदर्शन चूर्ण उबलवाकर काढ़ा बनवाया। काढ़े की बोतल भगत के घर पहुंचाने के लिए मुझ भंगीवाड़े भेजा। ऐसी तीन-चार बोतले पीने के बाद भगत अच्छे हुए और नियमपूर्वक भजन मंडली में आने लगे।

धूला भगत की बीमारी के दिनों में महाकोर सुबह सफाई के लिए नहीं आ सकी थी। आंगन और पाखाने में गंदगी बढ़ती जा रही थी। पिताजी, माँ और मैं अपने हाथों से थोड़ा बहुत करते पर धूला जैसी सफाई नहीं हो पाती थी। इस कारण से माँ मन ही मन महाकोर पर बेहद चिढ़ी हुई थी। एक रात को वे दोनों रोटी मांगने आये। धूलाभाई महाकोर के कंधे पर हाथ रख कर लकड़ी टेकते – टेकते चल रहे थे। वे आते ही अपने अलग स्थान पर बैठ कर भजन में शामिल हो गये। इतने में माँ ने महाकोर को दो – तीन बार आवाज दी। वह शायद कहीं चली गयी थी, या न मालूम और कोई कारण होगा, पर वह आयी नहीं। माँ क्रोधित हो उठी और मुझसे कहा, “वह निकम्मी आ कर मरे तो यह खाना दे देना।”

भजन समाप्त हुआ। मंडली बिखर गयी। माँ ने बाहर आ कर देखा पर महाकोर अब तक नहीं आयी थी। धूला भगत सामने की दीवार के सहारे बैठा सो रहा था। पिताजी का नियम था, कि मेहतरानी को रोटियाँ दे दी जाने के बाद ही भोजन करते थे। माँ ने फिर एक बार बाहर आकर आवाज़ लगायी, पर महाकोर नहीं थी। माँ चिढ़ कर बोली, “यह निकम्मी मरती भी नहीं है और पिंड भी नहीं छोड़ती। सब भूखे बैठे हैं, इसकी भी इसे सुध नहीं।” माँ का यह कहना था, कि महाकोर की आवाज आयी, “बहूजी, रोटी डालो…”। “तब से कहाँ मर गयी थी, निकम्मी?…. ले।” कह कर माँ ने रोटियाँ उसके टोकरे में फेंकी। सारा खाना टोकरे में बिखर गया।

थोड़ी देर बाद माँ ने खाना परोस कर सब को भोजन के लिए बुलाया। दो – तीन बार कहने पर भी पिताजी नहीं उठे तो माँ खुद बाहर आयी। पिताजी ने खाने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, पाँच दिन तक उपवास करने का निश्चय जाहिर किया। सबको आश्चर्य हुआ। माँ तो हड़बड़ा गयी। थोड़ी देर बाद गद्गद कंठ से उसने इसका कारण पूछा। पिताजी बोले, तुमने महाकोर से कैसा बर्ताव किया? अक्कड़पने से बात करके और रोटियां फेंक कर उसका अपमान किया।… इससे हमारी खानदारी पर बट्टा लगा। मुझे इसका प्रायश्चित करना ही चाहिए। माँ सकपका गयी और हमेशा की तरह हाथ जोड़ कर क्षमा मांगी, पर पिताजी टसे से मस नहीं हुए। उनके साथ माँ को भी पांच दिन तक उपवास करना पड़ा। मैं उस समय अंग्रेजी आठवीं या नौवीं कक्षा में पढ़ता था। मन पर अंग्रेजी शिक्षा के संस्कार होने लगे थे। ईसाई और पारसी मित्रों की संगत के कारण घर की नम्रता और निर्मलता की परंपरा पर नास्तिकता और गुरूर की छाया पड़ने लगी थी और पुराने संस्कारों को मैं वितंडावाद के चश्मे से देखने लगा था। इतने में ही यह घटना हुई। पिताजी की बात में मुझे कुछ अतिरेक और गँवारपन दिखाई दिया।

पांचवे दिन शाम को भजन मंडली जमी। माँ और पिताजी आज उपवास का पारणा करने वाले थे। अंतिम भजन था, “प्रभु मोरे अवगुन चित्त न धरो। उस रात को हम भोजन करने बैठे, तब माँ और पिताजी के मुख पर का अवर्णनीय आनंद देख कर मेरा मुग्ध मन पुलकित हो उठा। अनास्था और संशय का जाल छिन्न-भिन्न हो गया। हृदय से भजन की वे पंक्तियाँ हटती ही नहीं थी।

प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो।

आज भी उस प्रसंग को याद करता हूं तो उपर्युक्त पंक्तियां सजीव हो उठती है।


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Comments

One response to “प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो”

  1. […] “सार्थक संवाद” नामक वेब साइट पर मैंने यह कथा सबसे पहले पढ़ी । कैसे मैं इस अंतर्जाल की वेब साइट पर पहुँच गया, मुझे ठीक से याद नहीं। पर शायद मैं खोज रहा था एक भारतीय की जिसकी रग रग में भारतीयता परिलक्षित होती थी। गुरू जी रवींद्र शर्मा की। जिनसे मैं जीवन केवल एक बार मिला । […]

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