लेखक – किशनसिंह चावडा (जिप्सी)
प्लेग के दिन थे। महामारी ने पूरे शहरमें भय और आतंक का वातावरण फैला रखा था। जिन्हें बाहर चले जाने की सुविधा थी, वे कभी के शहर छोड़ कर चले गये थे। धनवान और उच्च मध्यम वर्ग के बहुत से लोग शहर के बाहर कुटिया बना कर रहने लगे थे। शहर की गली-गली में रूदन और व्यथा का साम्राज्य था। हमारे मुहल्ले में बाहर जा कर रह सके, ऐसी किसीकी स्थिति नहीं थी। प्रायः सभी परिवार श्रमजीवी या निम्न मध्यम वर्ग के थे। अतः मुहल्ला अब तक भरा हुआ था। सौभाग्य से अब तक किसी को रोग का ससंर्ग नहीं हुआ था। कई घरों में बिल्लियांँ पाली गयी थी। चूहे के दर्शनमात्र से लोग कांँप उठते थे। मृत्यु की भयानकता और सर्वग्राही भय से पूरा वातावरण छाया हुआ था।
ऐसे में एक रोज हमारी पडोसन फुली काकी रोती – रोती बाहर आयी। बेचारे फकीर काका की बगल में गांठ निकल आयी थी; वेदना बढ़ती जा रही थी। फुली काकी और पड़ोस के अन्य लोग सेवा-टहल में लग गये, पर प्लेग के रोग की कोई दवा नहीं थी। प्रतिबंधक इंजेक्शन तब तक निकले नहीं थे। प्रथम महायुद्ध का जमाना था। किसी प्रकार की दवा दारू हो सके, उससे पहले ही उसी शाम को फकीर काका ने देह छोड़ दी। पूरी रात मुहल्ले में भयंकरता भटकती रही। प्लेग का हमारे मुहल्ले में पहला शिकार था। लोग फकीर काका के शव को जला कर आधी रात बाद घर लौटे ही थे, फिर कहीं से रोने की आवाज सुनाई दी। मालूम हुआ कि रतन काकी का इकलौता बेटा प्लेग के चंगूल में फंस गया था। जांघ में गांँठ निकली थी, जिसकी वेदना से जवान लड़का बलि दिए जाने वाले पशु की तरह चीख रहा था। रतन काकी विधवा थी। लड़का ही उनका एकमात्र आधार था। शमशान से लौटने वाले लोगों ने कुल्ला भी नहीं किया था, कि रुदन से रतन काकी की छाती फट गयी, जिसकी परोपकारिता का पूरे मुहल्ले में जोड़ नहीं था। उस रतन काकी का जवान लड़का शंकर मृत्यु के मुख में जा पड़ा। प्लेग के रोगी के शव को अधिक देर घर में नहीं रखा जाता। अतः फकीर काका को जला कर आने वाले लोग उलटे पाँव शंकर को उठा कर ले गये।
मैं, माँ और मेरी बड़ी बहन, तीनों रात भर सो न सके। सुबह सात बजे पिताजी शमशान से लौटे। पूरी रात का जागरण, श्रम, भय का वातावरण और जवान की मौत के विशाद के कारण उनके चेहरे पर शून्यता छा रही थी। माँ के कहने से वे नहा-धोकर और कुछ खा कर लेटे ही थे, कि हमारे सामने के मकान में मगन मामा भागते हुए आये और हिचकियों से रो पड़े। लखमी मामी को प्लेग की गांठ निकली थी। उनके रोने की आवाज से पिताजी जाग गये। वे मगन मामा के कंधों पर हाथ रखकर सांत्वना के दो शब्द कर रहे थे, कि पाली मौसी रोती रोती खबर लायीं कि पिछली गली में रहने वाली अंधी बुढिया की इकलौती जवान लड़की मणी को गंगाजल दिया है। उस दिन दोपहर को दो अरथियांँ एक साथ निकलीं। पूरे मुहल्ले में हाहाकार मच गया। दो दिन पहले तक यह इलाका सुरक्षित था। सब कुशल थे। पर अड़तालीस घंटों में मृत्यु की काली छाया ने विनाश का घमासान मचा दिया।
लोग शमशान से लौटे नहीं थे। अभी तो चिताओं के अंगारे भी नहीं बुझे होंगे। सांय ढल रही थी। माँ रोटी और साग परोस कर हम भाई बहन को खिला रही थी और पिताजी की चिंता में उद्विग्न हो रही थी, कि खबर आयी कि फूली काकी की दोनों जांघों में गांठें निकली हुई थी। मैं और बहन एक कौर भी न खा सके। फूली काकी को उनके घर में ले गये। बहन मुझ से बहुत बड़ी थी।
उस समय पसीसेक साल की होगी। मैं चौदह पंद्रह का नासमझ किशोर लगा चिल्लाने। मेरी चीखें सुनकर मुहल्ले के लोग जमा हो गये। पुरुष ते सब शमशान गये थे। सब स्त्रियांँ और बच्चे ही थे। फूली काकी उनके स्वभाव की मिठास और सेवाभाव के लिए प्रसिद्ध थी। एकत्रित स्त्रियांँ वैसे ही घबराई हुई थी, कि फिर से चीख-पुकार सुनाई दी। किसीने कहा कि रेवा मौसी है। कोई जाकर समाचार लाया, कि दौलतराम मौसा चल बसे। शमशान के लोग लौटे, तब काशी बुआ के बड़े लड़के चुन्नीलाल और फूली काकी की अंतिम घड़ियांँ गिनी जा रही थी और दौलतराम का शव राह देख रहा था।
पिताजी ने अरथियों के बजाय और किसी व्यवस्था की राय दी। सेवा समिति की और से मुर्दे ले जाने के लिए ठेला गाड़ियों की व्यवस्था की गयी थी। तय हुआ, कि उनका उपयोग किया जाय। सब लोगों ने तुरंत यह बात मान ली। दूसरे दिन प्रातः मुहल्ले से तीन ठेला गाड़ियांँ निकली। फकीर काका का तो घर ही उजड़ गया। कोई नहीं बचा। मुहल्ले का रखवाला कसरती जवान चुन्नीलाल भी चलता बना। शतरंज के खिलाड़ी दौलतराम मौसा की बुलंद आवाज के अभाव में मुहल्ला सूना हो गया। अब उनके सदन में से मुहरों की सही चाल के बारे में होने वाली गरमा गरम बहस कभी सुनाई नहीं देगी।
उसी रोज शाम को बहन को रोती देख कर माँ चिंतित हो गयी। पूछने पर मालूम हुआ, कि बगल में बहुत दर्द हो रहा था। माँ आशंका से अधमरी हो गयी। पिताजी आये। कोई उपाय नहीं था। बहन प्लेग के पंजे में फंँस चुकी थी। वेदना के मारे चीख चीख कर आधी रात को वह सदा के लिए शांत हो गयी। अब तक पूरे मुहल्ले में हमारा घर सब कि लिए सांत्वना का स्थान था। अब हम भी उसी श्रेणी में आ गये। पौ फटे पिताजी और उनके मित्र बहन को शमशान ले गये। माँ और मैं एक दूसरे को देख देख कर रोते रहे। बड़ी मौसी और अन्य स्त्रियों ने ढाढस बंधाया, पर माँ के हृदय का दु:ख कम नहीं हुआ। उलटे लोगों की सांत्वना जितनी अधिक सहृदय होती गयी, उतना ही उसका दुख हृदय की गहराइयों में उतरता गया। उसकी सिसकियांँ सुन कर आंखों के आंसू भी बेकाबू हो उठे।
दोपहर को पिताजी घर पर नहीं थे, तब फिर माँ की गंगा जमना बह निकलीं। माँ के इस मर्मभेदी रूदन से घबराया हुआ मेरा अबूझ मन भयभीत हो कर सुन्न हो गया। हमारे घर में मेरे लिए शोक या दु:ख का यह पहला ही प्रसंग था। विशाद से अपरिचित मेरा मन उसके प्रथम स्पर्श से ही विमूढ हो गया। उस रात कोई भी सो न सका। दूसरे दिन पिताजी ने मुझे गाँव भेज देने का निश्चय किया। तुरंत अपने पुराने मित्र छगन पटेल को तार करके बुलवाया। माँ की हालत विचित्र थी। वह मुझे भेजने को भी राजी नहीं थी और रोकने देने को भी तैयार नहीं थी। सूरत जिला प्लेग से मुक्त था, लेकिन मुझे अपनी ममता की छाया से दूर भेजने में उसका हृदय फटा जा रहा था। दूसरी ओर महामारी ने जो रूप धारण किया था, उसे देखते हुए मुझे मौत के शिकंजे में रोककर रखने की भी उसकी इच्छा नहीं थी। आखिर मुझे भेजना ही तय हुआ।
रोज मैं पिताजी के साथ ही भोजन करता था, पर अलग थाली में। उस रोज पिताजी ने मुझे अपने साथ एक ही थाली में खाने को कहा। इतना ही नहीं, आग्रह कर के माँ को भी साथ ही बैठाया। जहांँ तक याद है, माँ पिताजी और मैंने एक ही थाली में भोजन किया हो, ऐसा उस रोज पहली ही बार हुआ था। दु:ख से भुने हुए हृदयों को इस आत्मीयता और निकटता से कुछ ठंडक मिली। उस स्थिति में इससे बढ़ कर आश्वासन और हो भी क्या सकता था।
तीन चार दिन से शाम को भजन नहीं हो रहा था। हर सांझ मृत्यु की छाया से घिरी हुई रही थी और प्रायः शमशान में ही बीती थी। अतः शाम को पिताजी ने मंडली एकत्रित की। भजन की धुन शुरू हुई और उन्होंने अपना प्रिय भजन: “इस तन धन की कौन बड़ाई, देखत नैनों में मिट्टी मिलाई” इतने शांत स्वर में गाया, कि खुद भी रोये और औरों को भी रुलाया।
रात को पिताजी की तबियत ठीक नहीं थी। अतः उन्होंने खाना नहीं खाया। माँ ने और मैनें एक ही थाली में थोड़ा बहुत जैसे तैसे खा लिया। रात को माँ ने पिताजी को पेनकिलर की एक खुराक दी। सब सो गये। रात को एकाएक मैं नींद में से हडबड़ा कर जगा और देखा, कि पिताजी वेदना से छटपटा रहे थे और बिस्तर पर बैठे हुए एक हाथ से दूसरे हाथ को दबा रहे थे। मैंने पूछा: “आपको क्या हो रहा है बाबूजी? मॉं कहॉं गयी?”
“अभी आती होगी बेटा। हाथ में थोड़ा सा दर्द हो रहा है। तू सो जा।’ पिताजी ने कहा तो, पर उनके मुख पर वेदना और विवशता के चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। दूसरों को आश्वासन देने वाली उनकी प्रतापी आवाज आज दीन मालूम हो रही थी और श्रद्धा से प्रदीप्त उनकी तेजस्वी आंँखों में गमगीनी आंसू बन कर झलक रही थी। मैं विह्वल हो उठा। इतने में माँ मामा और मामी को साथ लिये आ गयी। कुछ ही देर में हमारा छोटा सा घर लोगों से ठसाठस भर गया। मामा भाग कर छोटेलाल वैद्य को बुला लाये। एक घंटा भी नहीं बीता था, कि माँ की चीख सुनाई दी। मैं अंदर पहुंँचा। पिताजी को प्लेग की गांँठ निकल आयी थी। माँ को छाती फाड़ कर रोते हुए देखकर मेरे हृदय का बांध भी टूट गया। छोटेलाल रातभर उपचार करते रहे। दोपहर को शहर के दो बड़े डाक्टर भी आये, पर सबने आशा छोड़ दी थी।
सांझ ढल रही थी। सब चिंता और व्यथा से बेचैन हो रहे थे। यहांँ की हालत का तो वर्णन ही नहीं हो सकता। छगन पटेल मुझे लेने आ पहुँचे थे। यहाँ की हालत देख कर बेचारे स्तब्ध हो गये। इतने में पिताजी ने माँ से कह कर सब को बाहर भिजवा दिया और मुझे अंदर बुलाया। सिर्फ माँ, छगन पटेल, मामा और छोटेलाल वैद्य भीतर रहे। पिताजी ने मुझे अपने पास बैठाया। सिर पर हाथ फेरा। उनकी दृष्टि से नजर मिलते ही मैं रो पड़ा। पिताजी ने मुझे शांत किया और धीमी आवाज से पानी मंगवाया। फिर मेरे मुख पर आंँखें स्थिर करके बोले: “बेटा एक संकल्प करना है।” माँ और पास बैठे हुए अन्य लोग दहल उठे। पिताजी ने और भी धीमी आवाज में कहा, “मेरे पिताजी ने अपनी सारी पुश्तैनी जायदाद सूरत के निरांत मठ को दान कर दी थी, लेकिन उसकी वसीयत और पक्की लिखा पढ़ी नहीं हो सकी थी। मरते समय उन्होंने मुझसे वचन लिया था, कि मैं उस जायदाद पर दावा नहीं करूंगा। उसी साल तेरी माँ और मैं स्वेच्छा से अकिंचनता को स्वीकार करके यहांँ चले आये। मौसी ने यह मकान न दिया होता, तो सिर पर छप्पर भी न होता। लेकिन ईश्वर ने हमें भूखा नहीं मारा। उसी ईश्वर पर श्रद्धा रख कर हाथ में जल लेकर वचन दे, कि उस वंश परंपरागत मिल्कीयत को तू वापस नहीं मांगेगा और उसे प्राप्त करने के लिए मुकदमेबाजी नहीं करेगा।”
माँ ने मेरे दाहिने हाथ की अंजलि में पानी दिया और कहा, “बेटा संकल्प कर, कि उस जायदाद को वापस प्राप्त करने का विचार तक नहीं करेगा।” मैंने पिताजी के शब्दों के साथ माँ के शब्द जोड कर वचन दिया।
“बेटा, किसीका भला न कर सको, तो कम से कम किसी का बुरा मत करना। किसी के रास्ते में फूल न बो सको, तो कम से कम कांटे मत बोना” इतना कहकर पिताजी ने फिर सिर पर हाथ फेरा।
हाथ सिर पर ही रह गया और पिताजी चले गये।
Leave a Reply