आत्म-संकोच

अपनी बोली में लिखने का मज़ा ही कुछ और है। कितनी सहजता अपने आप आ जाती है। अँग्रेजी ने कितना कबाड़ा किया है – दिमाग का, सोच का, दृष्टि का, सोचने के ढंग का – इसका मूल्यांकन होना अभी बहुत दूर की बात है। जो थोड़े से लोग (इनकी संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है) अपनी भाषा से दूर हो गए हैं और अँग्रेजी को जबरन गले लगाने लगे हैं, वे न इधर के न उधर के वाली हालत में हैं। हम अँग्रेजी के चक्कर में अपने सुंदर और बड़े अर्थ खोते जा रहे हैं।

धर्म जैसे शब्द का अनुवाद अँग्रेजी में मेरे जैसे आदमी के लिए तो संभव नहीं। इसका अनुवाद religion करना महा मूर्खता है, पर यह मूर्खता हमारा पढ़ा लिखा पर अशिक्षित समाज करे जा रहा है। इसी प्रकार एक और सुंदर शब्द स्वतन्त्रता है जिसका अनुवाद अङ्ग्रेज़ी में हो ही नहीं सकता, पर हम मूर्खता में freedom, independence इत्यादि करते जाते हैं। इसी तरह के तमाम शब्द सिर्फ हिन्दी ही नहीं, हमारी सभी भाषाओं और बोलियों में हैं, जिनके अर्थ सुंदर भी हैं, वास्तविकता के ज़्यादा नजदीक भी हैं और हमारे स्वभाव के अनुकूल भी हैं, परंतु हमने मान लिया है कि अङ्ग्रेज़ी ऊंची भाषा है और जो हमारे पास है वह तो उसमें होगा ही और शायद हमसे ज़्यादा ही होगा।

पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी से ज़्यादा आत्म-संकोची (self conscious) शायद ही कोई और मनुष्य प्रजाति हो। वह अपने को और अपने समाज को, देश को, अपनी नज़र से देखता ही नहीं। हमेशा दूसरों की नज़र से देखता है। हमने अपनी सहजता खो दी है। हम जाने-अनजाने नकलची हो गए हैं। एक अजीबो-गरीब हालत हो गई है हमारे पढे लिखे की। नेहरू जी ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को बाध्य सा कर दिया कि औपचारिक आयोजनों पर धोती न पहन कर शेरवानी और चूस्त पाजामा पहने। हमें सोचना चाहिए इसके पीछे क्या मानसिकता काम कर रही थी और यह हमारे अंदर कितनी गहरी बैठी है कि उनके विपक्ष वाले मसलन मोदी जी ने भी उस मानसिकता को अनजाने ही सही, गले लगा लिया। कभी कभी नहीं, शायद बहुधा, छोटी छोटी बातों मे बड़े मसले छुपे होते हैं। जो समाज सहज नहीं होता (यह बात हरेक पर भी लागू होती है) वह नकलची हो जाता है और उसे पता भी नहीं चलता। वह कृत्रिमता में जीता है, मौलिकता खो देता है। हमारा पढ़ा लिखा समाज, TV एंकरों से लेकर हमारे सभी दलों के राज नेता (राहुल गांधी, मोदी जी, सिंधिया, पासवान के बेटे हो या मुलायम के), हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी – तकरीबन सभी ऐसे ही हो गए हैं। फर्क बहुत सतही है। इसलिए भी मैं भाजपा और कांग्रेस की लड़ाई बेबुनियाद मानता हूँ, JNU का विवाद भी। मसला कुछ और है जहां ध्यान जाने में न जाने कितना वक्त लगेगा।


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