खुशकिस्मत हूँ मैं। कृपा है कहीं से कि जीवन में अद्भुत और जिनके प्रति स्वतः श्रद्धा पैदा हो, ऐसे लोगों से बगैर ज़्यादा कोशिश किए, मिलना हुआ और इतना ही नहीं, उनसे घरेलू संबंध बने। इनमें से एक धरमपाल जी थे और उनके मारफ़त “गुरुजी” रवीन्द्र शर्मा के बारे में पता चला। पहली ही मुलाक़ात में आत्मीयता हो गयी। “गुरुजी” शुद्ध मौखिक परम्परा के व्यक्ति थे। किस्से, कहानियाँ, अपने अनुभव में आयी बातें। उन्होंने जो देखा, सुना उसे सुनाते और उनके तार एक दूसरे से जोड़ते जाते थे। ऐसा एहसास देते थे, कि वे पढ़ते लिखते नहीं ही होंगे। पर ऐसा नहीं था। कभी कभार उनके मुंह से कुछ किताबों के नाम भी निकल पड़ते थे।
उन्हीं से सबसे पहले किशनसिंह जी चावडा की इस अद्भुत किताब, “अंधेरी रात के तारे” के बारे में सुना। कहीं मिली नहीं। लोगों से, जानकारों से, जो लोग पढ़ने-पढ़ाने वाली जमात के थे अपनी मित्र मंडली में, उनसे पूछा। किसीको पता नहीं था। किसीने नाम तक नहीं सुना था। फिर कहीं से एक फोटो प्रति मिली। बहुत साफ भी नहीं थी। थोड़ा पढ़ा, तो मज़ा आ गया। पहली बार किसी किताब को पढ़ते वक्त ऐसा लगा, कि ‘भई धीरे-धीरे पढ़ो, कहीं जल्दी खत्म हो गई तो?’ जैसे किसी स्वादिष्ट पकवान को सबसे बाद में खाते हैं, बचा कर रखते हैं, कि स्वाद लंबा चले, कुछ-कुछ वैसा। चाय को चुस्की ले कर पीते हैं, जल्दी नहीं, वैसा।
“गुरुजी” रवीन्द्र शर्मा जो बातें करते थे, उनसे मेल खाते किस्से, इसमें भरे पड़े हैं। वाह। ऐसा अद्भुत और रंगीनियों से भरा, वैविध्य लिए हुए देश कभी हाल तक था – यह हमारा भारत। मज़ा आ गया सोच कर, कल्पना करके ही। और इन्होंने, किशनसिंह जी चावडा ने तो जीता जागता देखा है इसे। महात्मा गांधी से लेकर, अद्भुत गाने वालियों के किस्से। उनकी गरिमा और हिन्दू और मुसलमान बाईजियों में बारीक भेद। फकीरों से लेकर राजाओं और महाराजाओं के किस्से। एक आम मंदिर में साधारण लोगों की गाने की महफिल से लेकर फ़ैयाज़ खान साहब के गायकी की बारीकियाँ। श्री अरविंद से लेकर गुरुदेव रवींद्रनाथ के किस्से। क्या छोड़ा? हर वर्ग, हर सौंदर्य, हर रस को समेटे हुए अपनी सहज, साधारण भाषा में, एकदम खरे किस्से और इनकी पैनी दृष्टि। क्या कहने? हम लोग “गुरुजी” की पैनी दृष्टि की दाद देते थकते नहीं थे। वे वो देख लेते हैं और दिखा भी देते हैं, जो हम मूढ़ों को सामने होते हुए भी नहीं दिखता। किशनसिंह जी की दृष्टि, उनकी लेखनी वैसी ही मिली।
ऐसा लगा, इस किताब को तो लोगों के सामने लाना ही चाहिए। बहुत ज़रूरी है। हमारा पढ़ा-लिखा वर्ग जो आम तौर पर अपने देश के बारे में भी दूसरे देश के लोगों, या उनके पढ़ाये भारतीयों से समझता है उसे यह एक सच्चा खालिस नज़रिया भी देखने पढ़ने को मिले तो सही, भले ही वह इन्हें काल्पनिक मानेगा। पता नहीं। सोमैया प्रकाशन को संपर्क किया, जिन्होंने इस किताब के हिन्दी अनुवाद को छापा था। वे अपना प्रकाशन बंद करने का निर्णय ले चुके थे। उन्होंने ढूंढ ढांढ कर बची हुई 5 प्रतियाँ मुझे भिजवायीं और कहा “आप जो करना चाहते हैं, कर सकते हैं”।
इसी के कुछ समय पहले कमलेश जी को 4 घंटे बैठा कर “गुरुजी” रवीन्द्र शर्मा को सुनाया था। वे तो लट्टू हो गए “गुरुजी” पर। कहने लगे, “पवन जी, मेरे जीवन के सबसे अनमोल 4 घंटे आपने मुझे दिये”। अपने भारी भरकम बीमार शरीर को वे गुरुजी के पास आदिलाबाद ले जाने को लालायित रहते। हम सब डरते रहते। गुरुजी भी। उसी समय मुझे यह “अंधेरी रात के तारे” मिली। कमलेश जी को दिखाई और अपने मन की बात कि इसे दोबारा छपवाना चाहिए, बताई। वे तुरंत राजी हो गए। “अंधेरी रात के तारे” तो मूलतः गुजराती में लिखी गई थी, हिन्दी में अनुवाद हुआ था। कमलेश जी को लगा इसे थोड़े से सम्पादन की ज़रूरत है। वे करने भी लग गए, पर इसी बीच चल बसे। फिर उदयन बाजपेयी जी से बात हुई और उन्होंने इसे छपवाने का जिम्मा ले कर कृपा की।
“अंधेरी रात के तारे” दोबारा छप कर लोगों के पास पहुंचेगी – यह सोच कर भी रोमांच हो रहा है। किताब है ही इतनी अद्भुत! आज तक फोटो प्रतियाँ करवा करवा कर अपने मित्रगणों में जो रसिक हैं, उन्हे भेजते रहा हूँ। अब एक सुंदर रूप में भेज सकूंगा, इसकी बेहद खुशी है। इस तरह का साहित्य हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में बिखरा पड़ा है। हमारे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है, कि हमें इसकी बख्त नहीं। पर कोशिश तो करनी पड़ेगी, कि इस प्रकार का साहित्य आम लोगों तक पहुंचे और वे जिसे महात्मा गांधी “भारत की आत्मा” कहते थे, उसके दर्शन कर पायें।
यदि आप इसकी कुछ प्रतियाँ मंगवाना चाहते हैं, तो आप pawansidh@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। पुस्तक के लिए सहयोग राशि ४५०/- ₹ है। पांच से अधिक प्रतियां मंगवाने पर थोड़ी छूट भी मिल सकती है।
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