हमारा देश आत्म-संकोची हो गया है। हम लोग खुल कर अपने अंदर की बात आसानी से नहीं कर पाते। जिस माहौल में होते हैं, वहाँ के मुहावरे और वहाँ जो चलता है, उसका अनुमान पहले लगाते हैं, हिसाब- किताब लगाते हैं और फिर बोलते हैं। इसे भले ही कुछ लोग समझदारी कहें, पर इसमे डर और आत्म-संकोच (over self-consciousness) ज़्यादा है। इसका मेल, अंदर के निजी अनुभव, निजी विश्वास के साथ बैठता है या नहीं, इस ओर ध्यान नहीं रहता। एक तरह का मुखौटा पहने रखते हैं।
ये मुखौटे भी नाना प्रकार के होते हैं। घर और बाहर की दुनिया में तो अलग होते ही हैं। बाहर की दुनिया में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। सेमिनारों के, राजनीतिक माहौल के बीच वाले, अपने मित्रों की मंडली के बीच (और मित्रों की मंडलियाँ अगर अलग अलग हुई तो ये मुखौटे भी उनके, इन विभिन्न मंडलियों के बीच बदलने पड़ते हैं), काम धंधे वाले माहौल मे अलग, हिन्दूओं के बीच अलग, मुसलमानों के बीच अलग, विभिन्न जाति समुदायों के बीच अलग इत्यादि इत्यादि।
यह रोग इक्के दुक्के में होता, तो इसे व्यक्तिगत रोग के रूप में देखा जा सकता था, पर यह तो हमारे पूरे पढे-लिखे समाज में फैला हुआ है। अंग्रेजों के जमाने से घर और बाहर की दुनिया के बीच का फासला बढने लगा और यह लगातार बढ़ते जा रहा है। उसके पहले घर और बाहर के बीच नज़दीकियाँ थीं। एक ही बोली घर में, वही बाहर भी। उठना बैठना, खान-पान, बातचीत के मुद्दे, रीति रिवाज, पूजा- भजन इत्यादि अनेकों बड़े-छोटे आयामों में घर और बाहर की दुनिया में ज़्यादा फर्क नहीं था।
अंग्रेजों के समय से सब तेज़ी से बदलने लगा। घर पहले जैसा रहा या बहुत धीमी गति से बदला और बाहर की दुनिया तेज़ी से बदलने लगी। इसका असर आदमी और औरत के रिश्ते पर भी पड़ा। पुरुष और महिला के बीच फासला बढ़ा, पुरुषों की दुनिया तीव्र गति से बदलने लगी, महिलाओं की वैसी ही रही या बड़ी धीमी गति से बदली। इस दौड़ में महिलाओं की शक्ति घटती चली गई। यह घटना बहुत पुरानी नहीं है पर हमें ऐसा समझाया गया और हमने ‘अच्छे’ विद्यार्थी की तरह यह समझ लिया की इस देश में हमेशा से ही ऐसा रहा है।
यही बात विभिन्न जातियों पर भी लागू होती हैं। अंग्रेजों से पहले विभिन्न जातियों के बीच सहज संवाद चलता ही रहता था। सब अपने अपने ढंग से रहते थे, उनके कुछ तरीके अलग होंगे (इसीको तो विविधता कहते हैं) पर उनके बीच संवाद होते रहता था, उनके बीच की दूरियाँ ज़्यादा नहीं थी। ये ढंग उनकी अपनी अपनी जातियों की विशेष पहचान थी।
अंग्रेजों से जिन लोगों ने बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी उनमे आदिवासी भी थे, आज की भाषा में जिन्हे पिछड़ा और दलित कहा जाता है, वे भी थे। हमारे इतिहासकारों ने यह जानने की ज़रूरत नहीं समझी कि अंगेज़ों से लड़ाई में झाँसी की रानी के अलावा कितनी ही वीरांगनाओं ने घोड़े पर बैठकर, तलवार और ढाल से उनका सामना किया। झलकारी देवी का एक नाम कुछ लोग जानते है, शेष महिलाओं का नाम भी आना चाहिए। सोचने की बात है, कि ये तथाकथित पिछड़े और दलित जातियों से आने वाली महिलाओं ने क्या एक ही दिन में घोड़े पर बैठना और तलवार और ढाल चलाना सीख लिया होगा? निश्चित तौर पर यह परंपरा रही होगी। पर हमें एक ऐसा अंदाज़ दिया गया कि लड़ना (घोड़े पर बैठना, तलवार चलाना) सिर्फ राजपूत, क्षत्रिय ही करते थे।
कहने का अर्थ सिर्फ यहाँ इतना ही है कि अंग्रेजों के आने से पहले हमारे समाज में ज़्यादा बराबरी थी – पुरुष महिला के बीच और विभिन्न जातिगत समाजों के बीच। यदि इसकी भी ठीक से छानबीन की जाए कि आज़ादी के वक्त भी विभिन्न 500 से ज़्यादा रियासतों के जितने राजा थे, उन राजाओं की असली जाति क्या थी, तो सब राजपूत या क्षत्रिय नहीं निकलेंगे, उनमें से कई तथाकथित पिछड़ी और दलित जातियों से भी निकलेंगे – यदि सही ढंग से शोध हो। इस प्रकार की शोध हमें करनी चाहिए।
रानी रासमानी – जिसने कलकत्ता की विक्टोरिया की ज़मीन अंग्रेजों को दान में, गोचर भूमि की शर्त पर दी, वे पिछड़ी जाति की थी, जिनके यहाँ कोई ब्राह्मण पूजारी बन कर काम नहीं करना चाहता था और तब स्वामी रामकृष्ण परमहंस वहाँ लाये गए। हम इन तथ्यों को जोड़ते नहीं हैं और सेमिनारों में, सार्वजनिक रूप से रटे-रटाये, झूठे मुहावरों में बोलते चले जाते हैं क्योंकि आदत पड़ गई है। यही चलता है, चलाते रहो। और बुद्धिजीवी वर्ग को भाजपा और आरएसएस का ऐसा खौफ है, कि कोई उन पर यह तोहमत लगा दे तो क्या होगा? इस भय से जो रहा-सहा है वह भी जाता रहता है।
गांधी की बात हम करते हैं पर उनकी अहम बातों को या तो नज़रअंदाज़ करते हैं या छुपा जाते हैं। वे साधारण आदमी को बेचारा नहीं समझते थे, उन्हे तो साधारण में शक्ति दिखती थी, साधारण से वे शक्ति प्राप्त करते थे और उन्हें साधारण में इस शक्ति का स्त्रोत भारतीयता (सभ्यता) में दिखता था और ईश्वर में उसकी आस्था में। उनकी ईश्वर में आस्था साधारण की वजह से आई या अलग तरीके से, ये मैं नहीं कह सकता। पर इसमें उनके और साधारण के बीच तालमेल था।
यही उनको भारत के लोगों से जोड़ता था। भारत के साधारण की बुनियादी समझ के प्रति वे नतमस्तक थे, और ईश्वर के प्रति आस्था भी उनमे अटूट थी। इन दोनों के प्रमाण उन्हें मिलते भी रहते थे। उन्हें मिलते इसलिए थे, कि वे पहले से इसके प्रति जागरूक और संवेदनशील थे। हम नहीं हैं, इसलिए हमें प्रमाण भी नहीं मिलते। भारत के अन्य नेता बाएँ (लेफ्ट) से दायें (राइट) तक किसी में भी ये दोनों ही गुण नहीं थे। उन्हें भारत का साधारण बेचारा और/या मूर्ख ही लगता था, जिसे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना है। लोहिया हो, जय प्रकाश हो या नेहरू हो, या तिलक हो, मालवीय जी हो, हेग्डेवर हो, अंबेडकर हो, जिन्नाह हो – कोई भी हो।
इस गुत्थी को कि भारत के साधारण में कौन सी ताकत है जिसे गांधी देख पाते थे विचारणीय बिन्दु है। यदि हम अपने ही बनाए आत्म-संकोच से उबर पाएँ तो आसानी होगी।
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