मित्रमंडली में उनका प्यार का संक्षिप्त नाम था आर. डी., सो इस हद तक, कि उनकी पत्नी तक बातचीत में उनका उल्लेख बिना किसी संकोच के इसी नाम से करती। आदमी थे गणित के क्षेत्र के। गणित विषय लेकर एम.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी, लेकिन ललित कलाओं में बेहद दिलचस्पी। जीवन के प्रति अपार जिज्ञासा। अतएव प्रफुल्लित मानस, सहानुभूतिपूर्ण हृदय और श्रद्धारत जीवनदृष्टि। जीवन के प्रति दृष्टिकोण उत्साह का, पर विषाद भी उत्साह के जितना ही उत्कट। दुःख की अनुभूति सुख के जितनी ही तीव्र। कुटुंबवत्सल और परिवार में हार्दिक दिलचस्पी लेने वाले। बाल बच्चों में गले तक डूबे हुए। बच्चों के साथ बच्चा बन कर उनके विकास में उत्साहपूर्वक सहयोग देने वाले। माता के प्रति निस्सीम श्रद्धा और स्नेह। दरअसल जीवन की पूरी इमारत माता के संस्कारों पर ही टिकी हुई। जननी के प्रति सदा कृतज्ञता और विनम्रता का भाव, परंतु यह सब जागृति और सिद्धान्तों की कीमत पर नहीं।
एक दिन आधी रात बीते दरवाजे की घंटी बजी। द्वार खोल कर देखा तो आर.डी.। म्लान चेहरा। दुःखभरी आँखें । मानो आर.डी. नहीं, उनकी छाया खड़ी हो। पूछने पर मालूम हुआ, कि माताजी की तबीयत कई दिनों से खराब है। बिस्तर पर पड़ी है। आज हालत चिंताजनक है। अतः फोन करके बड़े भाई साहब को बम्बई से बुलाना है। फोन पर बातचीत हुई। दो तीन दिन बाद माताजी की तबीयत कुछ सुधरी, परंतु वह तो बुझते हुए दीपक की बढ़ी हुई लौ थी। क्षणिक और भ्रामक। दो रोज बाद उनका देहांत हो गया।
उस दिन आर.डी. को जीवन की बुनियाद से हिला हुआ देखा। रोना है, पर रोया नहीं जाता। गला ऐसा भरा हुआ, कि बोलना है पर बोला नहीं जाता। आंखों की गमगीनी गहरी बन कर अंतर में उतरी हुई। हृदय दुःख से स्तब्ध। पूरी हस्ती पर जड़ता की जमावट। चेतना मूर्च्छित। आश्वासन देने वाला खुद ही सकपका जाए, ऐसी मानसिक स्थिति। सांत्वना देने की हिंमत न हो, ऐसा सघन दुःख। मूक व्यथा।
मैंने हम दोनों के मित्र डाक्टर ठाकोरभाई से मिल कर निर्णय किया, कि इस हालत में उन्हें छेड़ना उचित नहीं। दोनों कफन और लकड़ियों का इंतजाम करने निकले। रास्ते में लकड़ी का गोदाम आया। उसे लकड़िया श्मशान में भिजवाने को कह कर हम अन्त्येष्टिसंस्कार का सामान बेचने वाले की दुकान पर पहुचे। न मालूम क्या कारण हुआ, पर उस दिन पूरे शहर में एक ही दुकान खुली थी। ठाकोरभाई बड़े मजे के आदमी हैं। है तो डाक्टर, पर स्वभाव से बडे खुशमिजाज। उनसे बातचीत कर के मेरा शोक कुछ हलका हुआ। उन्होंने पूछा, “अर्थी कौन बांधेगा? तुम बांधना जानते हो ? मुझे तो कुछ मालूम नहीं। बेहतर हो, किसी अनुभवी आदमी को बुला लिया जाय, वरना बाद में बड़ी फजीहत होती है। उसी के कहे अनुसार सामान खरीदा जाय।“
मैं एक अनुभवी प्रौढ़ को बुला लाया। उन्होंने आते ही तंज़ कसा, कि आधुनिक संस्कृति के प्रभाव ने हमें कितना अज्ञानी और अपाहिज बना दिया है। अंत्येष्टि के लिए क्या सामान चाहिए, यह भी हमें मालूम नहीं। हमारे बच्चों की जिंदगी हमसे भी अधिक निकम्मी और परावलंबी होगी। …राजनीतिक स्वातंत्र्य का मतलब ही क्या है? …बोलो, अर्थी तक बांधना नहीं जानते। …जहाँ जिंदगी की फसल सूख रही हो, वहाँ आज की शिक्षा के लोटे भर पानी से हरियाली थोडे ही छाने वाली है। बेचारे डाक्टर उपदेश की इस बौछार से हतप्रभ हो गये। मैंने चुप रहना ही मुनासिब समझा। शीघ्र ही हम कफन वाले की दुकान पर जा पहुँचे।
हमने कहा, “भाई अंतिमसंस्कार का सामान चाहिए।”
उसने पूछा, “हिंदू है?”
“हाँ”
“पुरुष है या स्त्री?”
“स्त्री।“
“सुहागिन या विधवा?”
“विधवा।“
“युवती या वृद्धा?”
“वृद्धा।”
“आप फिक्र न करें। मैं सारा सामान ठीक से दे दूंगा।”
विक्रेता मुसलमान था। वृद्ध था और अंधा था। गहरा पक्का रंग, दोहरी काठी, सुदृढ़ शरीर। टटोल-टटोल कर उसने सारा सामान इकठ्ठा किया। दो मजबूत बाँस निकलवाये। बाँस की खपच्चियों का एक गठर दिया। फिर पूछा: “मृतक का कद कितना होगा।?”
“मेरे जितना ही समझिए“ मैंने जबाब दिया। फिर अचानक खयाल आया, कि वह तो अंधा है। आँखें खुली होने पर भी देख नहीं सकता। मैं चुप ही रहा। उसने अच्छे मेल का कफन निकाला। “मेरे जितनी हस्ती होगी मैयत की?” ठाकोरभाई ने हाँ कही।
सुनते ही वह लेट गया। फिर कफन का कपड़ा ओढ़ कर लंबाई नापी। दोनों सिरों पर कुछ अधिक कपडा छोड़ा। चारों तरफ से कफन अपने शरीर के नीचे दबा कर उस के पर्याप्त होने की खातिरजमा की। इसके बाद कपड़ा फाड़ा और खुश होता हुआ बोला। “लीजिये भाई साहब। नाप कम नहीं पड़ सकता। इस काम में बेईमानी नहीं चल सकती।“
हमने सामान उठाया और चलने लगे। उसने आवाज दे कर हमें वापस बुलाया। “भाई साहब, रूकिए। एक चीज रह गयी। यह इत्र की शीशी लेते जाइये।“
हमारे हाथ में इत्र की शीशी देते हुए मानो स्वगत संभाषण करने लगा, ‘अंतिम समय भी आदमी को खुशबू फैलाते हुए जाना चाहिए। साहब! इस काम में नकली चीज नहीं चल सकती…’
सामान ले कर हम चलने लगे, लेकिन कफन नापने के लिए उसे खुद ओढ़ कर सोने वाले कफनफरोश का चित्र मेरे मन से नहीं हटा। नापने के लिए उसने कफन ओढ़ा। नाप कर फिर उठ बैठा। जिंदगी का कारवाँ आगे बढ़ता गया। ऐसे तो न मालूम कितनी बार उसने नाप लिया होगा। कितनी बार कफन ओढ़ा होगा। कितने कफन बेचे होंगे। कितने मुर्दों को इत्र से सुवासित किया होगा। यह आदमी मौत का सामान भी बेचता है। और मौत के साथ जीता भी है।
हम आर.डी. की माता की अर्थी श्मशान ले जा रहे थे। कफन ओढ कर कफन बेचने वाली की मूर्ति साथ साथ चली रही थी। श्मशान में पहुँचे। मृतदेह का अग्निसंस्कार हुआ। श्मशान का वातावरण मन में अक्सर गहन विषाद उत्पन्न करता है। संवेदनशील आदमी का हृदय तो मूक व्यथा से भर जाता है। इस गमगीनी से मन को इतनी थकान महसूस होती है, कि कुछ समय के लिए जीवन के प्रति उत्साह ही नहीं बचता। जिंदगी असह्य हो उठती है।
पंरतु उस रोज विषाद की बेचैनी उत्कट नहीं हो पायी। ओढ कर कफन नापने वाले कफनफरोश की छवि अंतर की गहराई में अंकित हो रही थी। ऐसा लगा, कि उस रोज सिर्फ आर.डी. की माता के लिए ही कफन नहीं खरीदा गया, बल्कि मृत्यु के भय के लिए भी कफन की खरीदारी हो चुकी थी। …नकद अनुभव की कीमत चुका कर!
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