एक है ‘सोचना’। दूसरा है ‘विषय’। हम जब भी सोचते हैं, तो उसका कोई संदर्भ होता है; उसे ही विषय कहा जा रहा है। यहाँ हम सोचने की प्रक्रिया और उसके पीछे की दृष्टि को देखने का प्रयास कर रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में जिस विषय या संदर्भ में सोचा जा रहा है, वह महत्त्वपूर्ण नहीं है। कैसे सोचा जा रहा है, या कैसे देखा जा रहा है, यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, मैं देखता हूँ, कि हमारे कुछ मित्र आधुनिकता का विरोध अवश्य करते हैं, लेकिन उनके सोचने की जो प्रक्रिया है, वह आधुनिकता से ही प्रेरित है। इसी तरह भारतीयता या परंपरा का पक्ष भी आधुनिक सोच के तहत रखा जा सकता है। कहने का आशय यह है, कि हमें इस ओर ध्यान देना होगा कि हमारे लिए ‘आधुनिकता’ या ‘भारतीयता’ केवल सोचने का विषय है, या हमारी सोचने की प्रक्रिया भी आधुनिक या भारतीय है।
आधुनिकता के चलते जीवन में गति बहुत आ गई है, इसलिए हम तुरंत परिणाम चाहते हैं और तुरंत ही प्रतिक्रिया भी करते हैं। ‘आधुनिक मस्तिष्क’ इसी प्रकार का है, उसमें धैर्य नहीं है। सामने आई परिस्थिति, विचार या तथ्य को अपने अनुभवों के आधार पर जाँचना या देखना तो हम लगभग भूल ही गए हैं। त्वरित प्रतिक्रिया तो जैसे हमारा स्वभाव ही बन गया है। इसी के चलते तमाम तरह के संघर्ष उत्पन्न होते हैं। अपने अनुभवों से चीजों को नहीं जोड़ने का एक परिणाम यह भी होता है, कि हम अपने किसी भी विचार को रखने के लिए किसी न किसी बड़े नाम का सहारा लेने लगते हैं। उसके बिना हम कुछ कह ही नहीं पाते।
जैसा मैंने प्रारंभ में कहा, कि ‘सोचने की प्रक्रिया’ महत्त्वपूर्ण है। क्या सोचा जा रहा है, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसी प्रकार ‘कार्य को करने की प्रक्रिया’ महत्त्वपूर्ण है; क्या किया जा रहा है, यह भी उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। हमारी प्रवृत्ति ऐसी हो गई है, कि हम हमेशा कुछ न कुछ करते रहना चाहते हैं। इस तरह की प्रवृत्ति से हम बहुत व्यस्त दिखते हैं, लेकिन क्या हम कुछ मौलिक कर भी रहे हैं, यह प्रश्न हमेशा बना रहता है। कार्य को करने के प्रति एक बेहोशी जैसी है; बस करते ही चले जाओ। इससे क्या निकलेगा, इससे कार्य के विभिन्न पक्षधरों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर विचार करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती।
मेरे पिता एक सरकारी दफ्तर में कार्य करते थे। उनके मुख्यालय देहरादून, दिल्ली और शायद मेरठ में हुआ करते थे। ईमेल नहीं था, तो पत्र डाक से आते होंगे। प्रत्येक दफ्तर बहुत आवश्यकता होने पर ही दूसरे दफ्तर से सूचना मांगा करता था। पत्र लिखा जाता, डाक से वह भेजा जाता, कुछ दिनों बाद पत्र प्राप्त होता और उसमें जो सूचना मांगी गई होती, वह फिर इसी प्रक्रिया से भेजी जाती। अर्थात एक सूचना के आदान-प्रदान में कम से कम 15 से 20 दिन का समय लगता था। मैंने भी 14-15 वर्ष विभिन्न सरकारी विभागों में कार्य किया है। अब ईमेल का युग है। देहरादून में लगभग सभी विभागों के मुख्यालय हैं। राज्य के 13 जनपदों में से मुख्यालय को कोई भी सूचना चाहिए होती है, चाहे वह पहले कई बार भेजी जा चुकी हो, फिर भी उसे पुनः मांग लिया जाता है। मेल में अक्सर चेतावनी भरे अंदाज में लिखा होता है, कि हमें यह सूचना आज शाम तक या कल तक उपलब्ध कराएँ। इसी प्रकार दिल्ली भी राज्यों से बेतहाशा सूचनाएँ मांगता है। एक ही सूचना को कई बार भेजा जाता है। इन सूचनाओं की गुणवत्ता और विश्वसनीयता हमेशा प्रश्नवाचक बनी रहती है। अब सब व्यस्त हैं, सूचना मांगने वाला भी और सूचना भेजने वाला भी। हमारी व्यस्तताओं के ऐसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं।
व्यक्तिगत स्तर पर, अपने अनुभव से मैं एक और उदाहरण देना चाहता हूँ। 25 वर्ष पहले समय का उतना अभाव नहीं दिखता था, जितना आज दिखाई देता है। आज, मैं जिससे भी मिलता हूँ, वह किसी भी आयु या परिवेश का हो, वह हमेशा व्यस्त ही दिखाई देता है। आज मैं स्वयं को भी इसी स्थिति में देखता हूँ, जबकि दो दशक पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। काम की कमी नहीं थी, लेकिन समय का ऐसा अभाव नहीं था। लोग अक्सर मिल बैठकर बातचीत किया करते थे। मोबाइल फोन और इंटरनेट के कारण जीवन में गति बहुत बढ़ गई है। एक अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी है, डेटा एआई, जो प्रत्येक वर्ष मोबाइल उपयोग के सम्बन्ध में अपनी एक रिपोर्ट प्रकाशित करती है। इसके अनुसार, वर्ष 2023 में भारत में औसत मोबाइल उपयोगकर्ता दिन में 4.9 घंटे मोबाइल पर बिताते हैं। वैश्विक स्तर पर यह औसत 5 घंटे प्रति व्यक्ति है। हम रोज 5 घंटे मोबाइल पर कर क्या रहे हैं? सब व्यस्त हैं! और व्यस्त दिख भी रहे हैं! समय नहीं है हमारे पास।
मैं यह अनुभव कर रहा हूँ, कि पिछले 25 वर्षों में यह प्रवृत्ति हमारे भीतर बहुत बढ़ गयी है इसलिए हर कोई बेसुध सा हमेशा व्यस्त ही दिखता है। हालाँकि इस बेसुधी की अवस्था में बहुत कुछ होता दिखाई देता है, किसी भी क्षेत्र का उदाहरण ले लीजिए, सभी कुछ accurate होने की दिशा में बढ़ते ही चला जा रहा है। ‘कृत्रिम बौद्धिकता (Artificial Intelligence)’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। ‘कृत्रिम’ शब्द में बड़ी गजब की ईमानदारी है, ‘बौद्धिकता’ तो वास्तविक नहीं है, इसका एक अर्थ यह भी है, कि किसी ‘वास्तविक बौद्धिकता’ की स्वीकार्यता है, लेकिन वह अब काम की नहीं रह गयी है। उसका संरक्षण प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्तर पर करना होगा। हालाँकि उसके लिए कोई वातावरण उपलब्ध नहीं है।
‘सोचना’ और ‘करना’ मनुष्य होने के दो महत्त्वपूर्ण आयाम हैं। एक तीसरा आयाम भी है ‘होना’। यह मनुष्य होने का सनातन डिज़ाईन भी है। प्रकृति के निर्जीव जगत में सिर्फ ‘होना’ विद्यमान है। पेड़, पौधे, पर्वत, नदी आदि सभी कुछ ‘होने’ की स्थिति में हैं। पशु जगत में ‘करना’ और ‘होना’ है, वहाँ ‘सोचना’ उस तरह से नहीं है। पशुओं की जैसी भी प्रकृति है, वे उसके अनुसार ही कर्म करते हैं, उनके पास कोई विकल्प नहीं है। मनुष्य के लिए तीनों ही आयाम विद्यमान हैं। प्रकृति ने उसे बुद्धि (Intellect) प्रदान की है। जिससे वह सोचता है, समझता है और करता है। अपनी बुद्धि का सतत उपयोग या दुरपयोग करते हुए ही वह आज की इस स्थिति तक पहुँचा है। आधुनिक तकनीकों से मिली बेतहाशा गति से हम अपनी ‘बुद्धि’ वाले आयम को ‘कृत्रिमता’ की ओर ले जा रहे हैं। यह ‘कृत्रिमता’ किसी और के द्वारा निर्मित है, अर्थात हम अपना नियंत्रण उस ‘किसी और’ के हाथ में दे रहे हैं। यह हो रहा है। बहुत सावधानी के साथ कह रहा हूँ, कि यदि आप सचेत हैं, सजग हैं और सोच पा रहे हैं, या देख पा रहे हैं, तो कुछ हद तक यह ठीक भी है, लेकिन यदि आप अचेत हैं, बेसुध हैं और कुछ देख ही नहीं पा रहे हैं (जो कि ज्यादतर लोग हैं), क्योंकि यह पूरी आधुनिक व्यवस्था उसी प्रकार की बनी है, तो शायद हम एक बहुत ही भयावह भविष्य की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं। हम प्रकृति द्वारा प्राप्त अपनी वास्तविक बौद्धिकता (Intellect) को धीरे-धीरे समाप्त कर रहे हैं और बौद्धिक स्तर पर अपनी निर्भरता उस ‘किसी और’ पर लगातार बढ़ाते ही जा रहे हैं।
सोचना, मानव के लिए एक ‘वास्तविक बौद्धिकता’ (Real Intelligence) है और एक महत्वपूर्ण कार्य भी है। ‘वास्तविक बौद्धिकता’ का स्वयं में विकास करने के लिए आपको थोड़ा धीमा होना होगा। त्वरित प्रतिक्रियाओं में अपनी ऊर्जा को व्यर्थ होने से बचाना होगा। अपने भीतर सुनने व देखने की नैसर्गिक कला को, ध्यान को, observation को या दृष्टा को विकसित करना होगा। हो सकता है, इस स्थिति में आप कुछ करते हुए ना दिखायी दें, लेकिन यह सम्पूर्ण मानवता के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थिति है। सम्भवतः सही अर्थों में आज यही ‘कर्म’ है। हमारे सनातन साहित्य में ऋषियों द्वारा की गयी तपस्याओं से जुड़ी अनेक कथाएँ आती हैं। वह शायद दृष्टा होते हुए सोचने की ही एक स्थिति होती होगी। इस स्थिति में ही उन्हें सत्य के दर्शन होते होंगे। जिसके आधार पर फिर उन्होंने सही-गलत, धर्म-अर्धम, नीति-अनीति आदि की व्याख्या की होगी और वेदों की, उपनिषदों की, रामायण, महाभारत, भगवत गीता जैसे कालजयी ग्रन्थों की रचना की होगी। यह सभी कुछ बहुत धीमा रहा होगा, एक पीढ़ी में हो जाने वाले काम नहीं है, कई पीढ़ियाँ सिर्फ तपस्या में ही निकल जाया करती होगी, फिर उससे कुछ करने जैसा निकलता होगा। हम उस युग में वापस तो नहीं जा सकते, लेकिन थोड़ा रुक कर स्वयं में यह देख तो सकते हैं, कि हमारे साथ क्या होते जा रहा है, हम निर्णय कैसे ले रहे हैं, हमारे तर्क कहाँ से प्रेरित हैं, जीवन को लेकर हमारी कल्पनाएँ क्या हैं, हमारे प्रेरणा के स्रोत कौन हैं आदि आदि। यदि हम ईमानदारी से सोचना या देखना प्रारम्भ करेंगे तो ‘करना’ उससे स्वतः ही प्रस्फुटित होगा।
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