आधुनिकता और टेक्नोलॉजी (३/५)

गतांक से चालू

भाग २ यहाँ पढ़ें।

छोटी टेक्नोलॉजी में ‘एक’ चीज बनाने का सामर्थ्य है, जो कि बहुत बड़ी ताकत है, क्योंकि ‘एक’ चीज बनाना बहुत कठिन है। बड़े-बड़े कारखानों में ये ‘एक’ चीज बनाना संभव नहीं है, मगर छोटी टेक्नोलॉजी में कारीगर बड़ी आसानी से यह काम कर डालते हैं। वे एक चीज भी बना सकते हैं और एक चीज को करोड़ों में भी बना सकते हैं। उनको बहुत बड़ी दिक्कत नहीं होती है। बड़े कारखानों में यह कतई संभव नहीं है। यही कारण है कि वो सबको समान देखना चाहते हैं; सबको एक जैसा बनाना चाहते हैं।
“जब हर घर एक कारखाना था, टेक्नोलॉजी छोटी थी, तो कुटुंब बहुत बड़े थे। आज जब टेक्नोलॉजी बड़ी हो गई है, कारखाने बड़े – बड़े हो गए हैं, तो ‘कुटुंब से परिवार’ और ‘परिवार से व्यक्ति’ हो गया है।” आज ये चीज सुनने में बड़ी अजीब सी लग सकती है, मगर वास्तविकता यही है।
टेक्नोलॉजी जब छोटी होती है, तो हर घर एक छोटे से कारखाने की भांति काम करता है और ये छोटे-छोटे कारखाने एक दूसरे से मिलकर, बहुत बड़ा – बड़ा, बहुत ज्यादा – ज्यादा काम कर डालते हैं। ये छोटे-छोटे परिवार एक विशेष तरह की टेक्नोलॉजी की पकड़ रखते थे। बड़ा काम करने के लिए ये सारे परिवार एक कुटुम्ब के साये में रहकर बहुत बड़ा – बड़ा काम, बहुत सारा – सारा काम बड़ी सहजता से कर डालते हैं। कुटुम्ब के रूप में रहकर ये कारखाने अपनी जरूरत का सारा सामान अपनी पकड़ में रखते थे, ताकि बाहर से बहुत कुछ लेने की जरूरत की न पड़े।
वहीं दूसरी ओर कारखाने जब बड़े हो गए, तो लोग उन कारखानों के कर्मचारी बन गए। उनको एक परिवार, एक कुटुम्ब के रूप में रहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। इस तरह वो धीरे – धीरे टूटते ही गए। कारखानों को अपने सामानों की बिक्री के लिए भी ये जरूरी हो गया कि वे कुटुम्बों को तोड़कर, परिवार और व्यक्ति तक ले आए।
छोटे परिवार और बड़े परिवारों यानि कुटुम्बों के अर्थशास्त्र को समझाते हुए गुरुजी कहते हैं, कि छोटा परिवार तो कमाता ही है, लुटने के लिए, क्योंकि घर में पति – पत्नी दो ही रहते हैं। गर्मियों की छुट्टियों में या और किसी समय में बेटा, बेटी जब घर आता है, तो बड़े शौक से उसको लेकर बाजार के लिए निकलते हैं। साठ रूपए किलो आम है, तो ले लेते हैं, एक किलो आम। छोटा सा पापड़ का एक पैकेट ले लेते हैं। अचार की एक छोटी सी बोतल भी खरीद लेते हैं। जूस के कुछ पैकेट भी ले लेते हैं। 40-45 रूपए लिटर का दूध है, तो एकाध पैकेट दूध भी लेते ही हैं।
जिस घर में तीन-चार सदस्य हों, वहाँ तो ये सब चल जाता है, मगर जहाँ 50 लोग हों, वहाँ? वो क्या 40-45 रूपए लिटर दूध खरींदेंगे? कितना दूध खरीदना होगा, रोज का? महीने का? वो क्या 50-60 रुपए किलो आम खरीदेंगे? कितनी बार खरीद सकेंगे? वो क्या पापड़ के पैकेट खरीदेंगे? दो-तीन पैकेट पापड़ तो एक समय के भोजन में आधे लोगों को भी पूरे पहीं होंगे। वे तो बोलेंगे, कि सब अपना ही कर लेंगे। रोज इतना दूध चाहिए, तो दो-तीन भैंस ही पाल लेंगे। आम चाहिए तो दो-चार आम के पेड़ लगा लेंगे। बड़े परिवारों को लूटा नहीं जा सकता, क्योंकि बड़े परिवार जरूरत का बहुत कुछ अपने पास पैदा कर लेते हैं। वे जरूरत की हर सारी चीज अपने पास तैयार करते हैं।
ये ताकत होती है उनकी। घड़ा भरके अचार डालते हैं, कि खुद भी खाएंगे और गाँव भर को खिलाएंगे। छोटा परिवार ये सब नहीं कर सकता। छोटा परिवार तो कमाता ही है, लुटने के लिए। वह उसी में खुश भी रहता है कि हम बहुत वैभवशाली जिंदगी जी रहे हैं। जबकि ये सब जानबूझ कर के ही किया जा रहा है, क्योंकि यदि परिवार बड़े रहेंगे तो कौन खरीदेगा इन कारखानों की चीजें? ये तो कारखानों की चीजें बेचने के लिए जानबूझ कर किया जा रहा है।
कोई बड़ी बात नहीं है, कि ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ के प्रचार के पीछे भी कारखानों का ही हाथ रहा हो। आज तो ‘कुटुम्ब से परिवार’ होने की प्रक्रिया एक कदम आगे बढ़कर ‘परिवार से व्यक्ति’ होने की ओर अग्रसर है, जहाँ परिवार में हर व्यक्ति की अपनी एक जिंदगी है, अपनी स्वयं की पसंद – नापसंद है और हर किसी की वो सारी चीजें भी व्यक्तिगत हो गई हैं, जो कभी पूरे परिवार की एक हुआ करती थीं, जैसे टी.वी., रेडियो, मोबाईल, यातायात के साधन, भोजन, मंजन आदि।
कुटुम्बों से परिवार और परिवार से व्यक्ति होने के पीछे का एक प्रमुख कारण तो छोटी टेक्नोलॉजी के बदले बड़ी टेक्नोलॉजी का आना रहा है और फिर बाद में ये बड़े कारखाने ही अपनी उत्पादित वस्तुओं का बाज़ार बनाने के लिए कुटुम्बों को तोड़कर परिवार और परिवारों को तोड़कर व्यक्ति करने में लग गए हैं।
“हमारी छोटी टेक्नोलॉजी अद्वैत के सिद्धांत पर आधारित है, जहाँ प्रकृति पर, कच्चे माल पर, औजारों, हथियारों पर, गुलामों पर नियंत्रण की बात न होकर, उनके साथ साम्य स्थापित करते हुए काम करने की बात चली है।” इसीलिए हमारे पास बड़ी टेक्नोलॉजी न होकर छोटी टेक्नोलॉजी का विस्तार हुआ है। छोटी टेक्नोलॉजी में लगने वाले सभी तरह के सामानों में एक तरह की साम्यता, एक – रूपता बहुत ही सहज ढंग से स्थापित होती है।
छोटी टेक्नोलॉजी में उत्पादन शून्य पर होने की वजह से कच्चे माल के लिए प्रकृति के अंधाधुंध शोषण की बात दूर – दूर तक नहीं होती है। कोई भी व्यक्ति प्रकृति से कोई भी चीज कितनी लेगा! उतनी ही, जितने की उसको जरूरत है, क्योंकि चूँकि उत्पादन जब शून्य पर होना है, तो स्टॉक करने जैसी कोई जरूरत ही नहीं है। इसके अलावा बहुत सारा कच्चा माल तो सहज ही तैयार होते चलता था।
जैसे पहले के समय में, जब बिजली नहीं होती थी, तो कोयले की बहुत जरूरत होती थी। धोबी से लेकर लोहार, कुम्हार, सुनार सभी को कोयले की जरूरत पड़ती थी। और ये सारा कोयला बाहर से न खरीदा जाकर हर घर में रोज के खाना बनाने के साथ तैयार होता जाता था। रोज ही चूल्हे में से कोयला बनाकर रख लिया जाता था, जो इन सारे कामों में आता था। धोबी, लोहार आदि के पास काम करवाने के वक्त उनको कच्चा माल भी देना होता था। इस तरह हर घर में तैयार कोयला उन तक पहुंच जाता था।
बड़े कारखानों में ऐसा नहीं है। एक तो कारखाने बड़े होने की वजह से स्वाभाविक ही कच्चे माल की बहुत ज्यादा जरूरत होती है। ऊपर से, जरूरत से अधिक का उत्पादन करने की पद्धति होने के कारण, कच्चे माल की और भी अधिक आवश्यकता होती है। यही कारण है, कि ये कारखाने प्रकृति का अंधाधुंध शोषण करने में लग जाते हैं।
लगभग यही हाल औजारों, हथियारों के साथ होता है। छोटी टेक्नोलॉजी में औजारों, हथियारों के साथ एक साम्यता स्थापित की जाती है। अपने शरीर को उन औजारों के साथ, काम करने वाली उन परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाता है। कारीगर अपने शरीर, अपने औजारों और काम करने वाली परिस्थितियों को एक – रूप सा करता चला जाता है। बड़ी टेक्नोलॉजी में ऐसा कतई संभव नहीं हो सकता। बड़ी टेक्नोलॉजी में औजारों, हथियारों को नियंत्रित करना पड़ता है, जबकि छोटी टेक्नोलॉजी आदमी को संयमित करती है। गुरुजी इसको समझाने के लिए बड़ा ही सुंदर अनुभव साझा करते हैं –
“मेरा तो ‘मेटल कास्टिंग’ विषय था, पढ़ाइयों में, बड़ौदा में। बड़ौदा में जब गए, तो वहाँ तो foundry बनी हुई थी। उसमें काम करते वक्त घुटनों तक का जूता पहनना होता है। शरीर पर एक झुब्बा, एक गाउन जैसा apron पहनना होता है। हाथों में gloves पहनने होते हैं। इसके अलावा आँखों में चश्मा और सिर पर टोप जैसा हेलमेट लगाना होता है।
इतना सब भेष बांधने के बाद फिर कहीं भट्टी के पास जाते हैं और गाँव में हमने जिन लोगों से मेटल कास्टिंग सीखा, वो भट्टी के पास चप्पल लाने ही नहीं देते। एक तो, चप्पल नहीं लाना है। दूसरा, शरीर पर कोई कपड़ा भी नहीं रहना है। बहुत कम कपड़ा रहना है। लंगोट जैसा बांध कर खड़ा रहना है, भट्टी के नजदीक। अभी भी हमारे लोहार, सुनार या बर्तन बनाने वाले खसार कितना कपड़ा पहन के भट्ठियों में काम करते हैं? लगभग कुछ नहीं। यहाँ बड़ौदा की foundry जैसा श्रृंगार करके भट्टी के पास तक नहीं जाना है।
मैं इस वातावरण से उस वातावरण में गया, एकदम से। वहाँ अपने शरीर को पूरी तरह से बचाने का साधन तैयार करना है। सब कुछ होना है, जूता-वूता, चश्मा, हेलमेट, सब कुछ। बिना जूते वाले को भगा देते थे और यहाँ, हमारी टेक्नोलॉजी में तो शरीर को ही उस वातावरण के अनुकूल कर लेना होता है। एकदम अद्वैत के सिद्धांत की तरह।”

Tags:

Comments

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Search


Discover more from सार्थक संवाद

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading