गतांक से चालू। भाग ३ पढ़ने के लिए यहाँ click करें।
चूँकि छोटी टेक्नोलॉजी में उत्पादन शून्य पर होता है, इसीलिए उसमें आज के समय के चार सबसे बड़े खर्चे – packing, transportation, advertising और tax – बिल्कुल भी नहीं होते हैं। छोटे कारखानों में, कारीगरों के अपने – अपने गाँव और अपने – अपने घर बंधे होते हैं। कभी कारीगर उनके घरों पर जाकर ये सारे सामान देकर आते हैं। कभी वो लोग कारीगरों के घर से, कारीगरों के कारखाने से अपना सामान ले कर जाते हैं।
किसी को न तो किसी चीज को पैक करने की जरूरत होती है और न उसमें किसी तरह का transportation का ही कोई खर्चा होता है। इसमें विज्ञापन जैसी कोई बात ही नहीं होती है। इसी तरह आपसी में लेन – देन में टैक्स का भी कोई खर्च नहीं होता है। टेक्नोलॉजी के बड़ी हो जाने मात्र से ग्राहक और कारखानों के बीच का अंतर इतना बढ़ गया, कि इन चारों चीजों की आवश्यकता ही केवल नहीं पड़ने लगी, बल्कि इनके बिना उत्पादित सामान की बिक्री ही असंभव सी हो गई है।
आज इन चारों चीजों का खर्चा इतना बढ़ गया है कि यह उत्पादन की मूल लागत से कई गुना ज्यादा होता है, जोकि आखिरकार ग्राहकों को अपनी जेब से ही देना होता है।
बड़ी टेक्नोलॉजी के लगभग सभी पैरोकार, बड़ी टेक्नोलॉजी का सबसे बड़ा फायदा किसी भी वस्तु के उत्पादन लागत में आई गिरावट बताते हैं। वैसे तो उनका यह तर्क भी गलत है। मगर, यदि एक पल के लिए इसको सही भी मान लिया जाए, तो भी वे लागत खर्च के अलावा लगने वाले इन चार खर्चों की पूरी तरह अनदेखी कर देते हैं। इन खर्चों को वस्तु की उत्पादन लागत में जोड़ देने से यह लागत बहुत ऊपर पहुंच जाती है।
बड़ी टेक्नोलॉजी नौकरशाही को बढ़ाती है, जिसके स्वयं के ढेरों दुष्परिणाम हैं, जबकि छोटी टेक्नोलॉजी उद्यमिता को बढ़ावा देती है, जो क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था को जीवंत बनाती है। बड़ी टेक्नोलॉजी में काम करने के लिए ढेरों लोगों की जरूरत होती है। यही कारण है, कि फैक्टरियों में, कंपनियों में सैकड़ों, हजारों लोगों को एक साथ नौकरी पर रखा जाता है। वहीं दूसरी ओर छोटी टेक्नोलॉजी मे छोटे – छोटे उद्योग फलते – फूलते हैं, जिससे हमारी क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था जीवंत बनी रहती है।
एक और चीज होती है कि संपन्न और समृद्ध तो हमेशा से कारखाने का मालिक ही होता है। छोटी टेक्नोलॉजी में हर कारीगर ‘मालिक’ बनता है, जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी नौकरशाही को बढ़ावा देती है, जिसमें आदमी नौकर, चाकर और मजदूर बनता है।
बड़ी टेक्नोलॉजी में कारखाने के मालिक निरंतर और भी अधिक अमीर होते जाता है। छोटी टेक्नोलॉजी में समृद्धि और संपन्नता सभी लोगों में समान रूप से बँटती है। बड़ी टेक्नोलॉजी लोगों को मालिक से नौकर और मज़दूर बनाकर गरीब और अमीर का फासला निरंतर बढ़ाती जाती है।
छोटी टेक्नोलॉजी आत्मीयता बढ़ाती है और बड़ी टेक्नोलॉजी में आत्मीयता कम होती जाती है। कुम्हार (या किसी और भी कारीगर / किसान) के घर पर जब कोई मेहमान आता है, जोकि अधिकतर उसी समाज का ही होता है, तो वह उसको जबरदस्ती पकड़ – पकड़ के रोकता है, कि दो – चार दिन और रूक जाओ, क्योंकि वह मेहमान उसी की जाति, उसी के काम – धंधे से संबंधित होने के कारण, उसके काम में कोई बाधा न बनकर उसके काम में मदद ही करता है।
एक कुम्हार के घर दूसरा कुम्हार, एक सुनार के घर दूसरा सुनार, किसान के घर दूसरा किसान आएगा, तो वह यदि उसके काम में कोई मदद नहीं करेगा, तो कम से कम उसके काम में बाधा तो नहीं ही पहुंचाएगा। हालाँकि वास्तविकता में, दोनों में अपने काम धंधों को लेकर, उसमें बनने वाली डिजा़इनों आदि को लेकर बहुत चर्चा, बहुत आदान – प्रदान होता है। यह स्वाभाविक ही है।
वहीं दूसरी ओर, बड़ी टेक्नोलॉजी आ जाने के कारण, काम घरों में नहीं होकर के, फैक्टरियों में होता है। और लोगों को उनमें नौकरी करने के लिए जाना पड़ता है। घरों में काम नहीं चलते रहने के कारण, आने वाला मेहमान उसके काम में किसी भी तरह की कोई मदद नहीं कर पाता है, बल्कि उस मेहमान के लिए यजमान को अपनी नौकरी में से समय निकाल कर (छुट्टी आदि लकर के) उसके साथ समय बिताना पड़ता है, जिसके कारण वह आत्मीयता वगैरह छोड़कर के इस फिराक में रहता है, कि कब मेहमान उसके घर से जाए। बहुत ही सूक्ष्मता से बड़ी टेक्नोलॉजी समाज में फैली आत्मीयता को पूरी तरह से खत्म कर देती है।
छोटी टेक्नोलॉजी में आजकी तरह के ‘महिला – पुरुष भेदभाव’ के रोने नहीं होते हैं, जबकि आज के ये रोने बड़ी टेक्नोलॉजी के आने के बाद ही पैदा हुए हैं। ‘महिला-पुरूष भेदभाव’ का विरोध करने वाले महिलाओं के प्रतिबंधित स्वतंत्रता और आर्थिक कार्यों में असमान भागीदारी पर ही ज्यादा जोर देते हैं।
जब कारखाने छोटे होते हैं, तो पुरुषों को भी किसी कार्य के लिए घर से बाहर नहीं जाना पड़ता है। उनके घर ही उनके कारखाने, उनकी दुकान हुआ करते हैं। कच्चे माल के लिए स्त्री, पुरूष दोनों ही साथ जाया करते हैं। कारखानों के बड़े होने के बाद ही पुरुषों को उसमें कार्य करने के लिए बाहर निकलना पड़ा और तभी से धीरे – धीरे स्त्रियों की स्वतंत्रता कम होती गई, वरना उसके पहले तक दोनों की स्वतंत्रता एकदम बराबर हुआ करती थी।
इसी तरह जब कारखाने छोटे हैं, तो उसमें परिवार के सभी सदस्यों का बराबर का योगदान होता है। महिला और पुरूष दोनों ही बराबरी से उन छोटे कारखानों में काम किया करते हैं। इस तरह से आर्थिक कार्यों में, आर्थिक निर्णयों में दोनों की बराबर की भागीदारी हुआ करती है। जब कारखाने बड़े हो गए और पुरुषों को उनमें काम करने के लिए बाहर निकलना पड़ा, तो यह भागीदारी धीरे – धीरे कम होकर पुरुषों के पक्ष में आ गई। समाज में आये ये दोनों ही रोग बड़े कारखानों की देन हैं।
(क्रमशः)
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