गतांक से चालू। भाग ४ यहाँ पढ़ें।
छोटी टेक्नोलॉजी में माल बेचने के लिए बिचौलिये की जरूरत नहीं होती है। इसके विपरीत बड़ी टेक्नोलॉजी में बिना बिचैलिये के माल बेचा ही नहीं जा सकता है और वहीं से ‘कमीशन बाज़ी’ का सारा खेल शुरू हो जाता है। आज पूरा का पूरा समाज ‘कमीशन बाज़ी’ के रोग से ग्रस्त है।
कारखानों के उत्पादों को बेचने से शुरू हुआ यह रोग आज समाज के हर क्षेत्र – शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्माण, कला, मीडिया, राजनीति और अन्य ढेर सारे क्षेत्रों में बहुत ही गहरे तक पैठ चुका है। आज तो इसके बिना किसी भी क्षेत्र में किसी भी काम की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है, जबकि समाज में इसकी शुरूआत टेक्नोलॉजी के मात्र बड़े हो जाने से हुई है। हमारे समाज ने बड़ी चतुराई से इस बुराई को दूर रखने के लिए समाज में छोटी टेक्नोलॉजी वाली व्यवस्था को अपना रखा था।
बड़ी टेक्नोलॉजी में समाज का सामर्थ्य कुछ व्यक्तियों तक सीमित हो जाता है, जो कि स्वयं अकेले भी कुछ नहीं कर सकते। छोटी टेक्नोलॉजी व्यक्ति को सामर्थ्यवान और उसके माध्यम से स्व-आश्रित, स्व-निर्भर और स्वतंत्र बनाती है। जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी व्यक्ति को क्रमश: पराश्रित, पर-निर्भर और परतंत्र बनाती है।
जातियों के माध्यम से गांवों में, समाज की छोटी – छोटी इकाइयों में सहज ही संरक्षित ये सारा सामर्थ्य आजकल हमारे लिए गूढ़ विद्या सा होता जा रहा है। प्रथम तो यह उपलब्ध ही नहीं है और उसके विकल्प स्वरूप बड़े – बड़े कारखानों में उपयोग आने वाली विद्याएँ जो उपलब्ध भी हैं, उन तक समाज के वर्गों की कोई पहुंच ही नहीं है।
आज की आधुनिक जातियों – डाक्टरी, सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग, वकालत और इसी तरह आज की बड़ी से बड़ी पढ़ाई पढ़ा, या बड़ा – बड़ा काम सीखा व्यक्ति भी इन कारखानों, कंपनियों का नौकर ही है; समाज के प्रत्यक्ष काम आने वाली किसी विद्या का विद्वान नहीं। आजकल की पढ़ाइयों और व्यवस्थाओं से व्यक्ति इन कारखानों और कंपनियों का निरन्तर गुलाम और परतंत्र ही होते जा रहा हैं, क्रमश: सामर्थ्यहीन होते हुए।
टेक्नोलॉजी जब छोटी थी, तो परिवहन के साधन सभी कारीगरों के अपने थे। जिसके कारण वे उसके पूरी तरह से मालिक थे। आज टेक्नोलॉजी बड़ी हो जाने के कारण, जो रहे – सहे छोटे – मोटे कारखाने बचे भी रह गए हैं, उन सब से भी उनके परिवहन के साधन छिन कर के किसी और के हाथ में चले गए हैं। जिससे, कारीगर, अपने ही कारखानों में मात्र मज़दूर जैसे होकर रह गए हैं और अपने कच्चे और तैयार माल के वहन आदि के लिए दूसरों पर ही पूरी तरह से निर्भर हैं।
छोटी टेक्नोलॉजी वाली व्यवस्था में परिवहन के साधन सभी कारीगरों के उनके अनुसार उनकी अपनी डिज़ाइन के होते हैं। पहले कुम्हार के बर्तन, कुम्हार का कच्चा माल ढोने के लिए, उसकी अपनी तरह की बैलगाड़ी होती थी। इसी तरह लोहार, बढ़ई, खासार के अपने – अपने अलग – अलग डिजा़इन के परिवहन के साधन थे। इसी तरह पथ्थर तोड़ने वाले ओड़ और किसानों की भी अपनी अलग तरह की बैलगाड़ियां होती हैं।
आजकल सभी के लिए उनकी अपनी तरह की डिज़ाइन के साधन न होकर एक ट्रैक्टर या ट्रक ही रह गए हैं, जो कि किसी और के ही नियंत्रण में रहते हैं। जिसके कारण आज पथ्थर तोड़ने वाला ओड़, आज पत्थर तोड़ के ट्रैक्टरों में भरने वाला मज़दूर मात्र बन गया है।
छोटी टेक्नोलॉजी में कमाई परिवार की होती है, जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी में कमाई व्यक्तिगत होती है। टेक्नोलॉजी जब छोटी होती है, तो घर के सभी लोग मिलकर उसमें काम करते हैं, जिसके कारण कुम्हार, सुनार, लोहार और किसानों के घरों में कमाई किसी व्यक्ति विशेष की न होकर के पूरे परिवार की होती है। जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी में, नौकरशाही में, कमाई एक व्यक्ति विशेष की होती है, जिसमें न तो किसी का योगदान होता है, और न ही उस तरह का अधिकार होता है।
घरों के, परिवारों के टूटने का एक और कारण यह भी है। पहले घरों की कमाइयों में, स्त्री-पुरुषों में कोई एक, उस पर अपना अधिकार नहीं बता सकता था। आज घरों में स्त्रियों, पुरुषों की अलग – अलग व्यक्तिगत कमाइयाँ हो गईं हैं, जिससे परिवारों तक में बिखराव आ गया है।
छोटी टेक्नोलॉजी में हमारी खेती बहुत विविधता भरी होती है, जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी में खेती एक समान होती जाती है। बड़ी टेक्नोलॉजी में अन्य सारी चीजों की तरह फसलें भी उनके हिसाब की होती हैं। फसलों का चुनाव, फसलों की किस्म आदि सब कुछ उनके हिसाब का होता है। वहीं दूसरी ओर, जब टेक्नोलॉजी छोटी होती है, तो फसलें आदि हमारी रोज – मर्रा की जरूरत की होती हैं।
जातियाँ, जो कभी एक – एक टेक्नोलॉजी की मास्टर हुआ करती थीं, उन जातियों को खत्म करने में इन बड़े कारखानों की बड़ी भूमिका रही है, क्योंकि जाति खत्म होते ही डिजाइन खत्म हो जाती है, टेक्नोलॉजी खत्म हो जाती है और फिर उसका सब कुछ खत्म हो जाता है। उसके बाद फिर कारखानों का ही राज चलता है।
कभी – कभी लगता है कि ये कारखाने वाले जातियों को जीने / बचने नहीं देंगे और राजनीति वाले जातियों को मरने नहीं देंगे। दोनों ही अपने – अपने फायदे के लिए जातियों के अलग – अलग रूपों को जिंदा या मार कर रख रहे हैं।
टेक्नोलॉजी के सभ्यतागत प्रभाव को समझकर, भारतीयता और आधुनिकता के अंतर को तो आसानी से समझा ही जा सकता है, मगर इसके माध्यम से आधुनिकता के दुष्परिणामों को दूर करने के प्रयासों में भी नई गति लाई जा सकती है। यदि आज भी गाँव की सभी टेक्नोलॉजी गाँव में पुनः जीवित कर ली जाए, तो न केवल गांवों की, बल्कि पूरे देश की बहुत सारी समस्याएँ काफी हद तक कम हो जाएगी।
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