आधुनिकता – गुरुजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी की दृष्टि से (३/५)

गुरुजी के अनुसार आधुनिक व्यवस्था भारत में सभी को संचार जाति वाला बनाती जा रही है। आज कोई भी व्यक्ति अपने गांव में रहकर जी नहीं पा रहा है। हरेक को जीने के लिए बाहर निकलना पड़ रहा है। इसका अर्थ है, कि आज सारा का सारा समाज खानाबदोश होता जा रहा है, जिसको सिर्फ खाने के लिए, खाने की व्यवस्था के लिए बाहर निकलना पड़ रहा है। लगभग सारा का सारा समाज संचार जाति वाला हो रहा है।

संचार जाति वाले समाज की कोई सभ्यता, कोई संस्कृति, कोई परंपरा नहीं होती है और उनको इन सारी चीजों की जरूरत भी नहीं होती है। बच्चों के लिए पांचवी, दसवीं तक का स्कूल मिल जाए, तो बहुत है, क्योंकि उसके बाद से तो उसको भी संचार जाति वाला हो जाना पड़ता है। बीमार पड़ने पर एक डॉक्टर दिख जाए, तो बस है। रोज-मर्रा की थोड़ी – बहुत जरूरत के लिए दो – चार दुकानें मिल जाए, तो बहुत है। इसी तरह खाने के लिए दो-चार होटल, restaurant मिल जाए, तो उसकी पूरी जरूरतें हो जाती हैं।

इससे ज्यादा की जरूरत उसको नहीं होती है। न तो उसको साहित्य की जरूरत होती है, न संगीत की, न समाज की और न ही उसको त्योहारों की ही कोई जरूरत होती है। जैसे चंचल चित्त वाला मनुष्य कुछ नहीं कर सकता है; कुछ ठहराव आने के बाद ही वह कुछ कर पाता है, वैसे ही संचार जाति वाला समाज भी कभी कुछ नहीं कर सकता है। कुछ करने के लिए उस समाज में भी एक ठहराव आना जरूरी होता है।

इतनी सारी कलाएँ, इतनी सारी फिलॉसफी, इतनी विद्याएँ, इतना शास्त्र, इतना साहित्य, संस्कृति, समाज, अध्यात्म, ये सारी जरूरतें तो उस समाज की जरूरतें हैं, जोकि स्थिर होकर जीता है और वह समाज बहुत आसानी से ये सब कुछ कर भी लेता है। जबकि इन सारी चीजों की संचार जाति वाले समाज को कोई जरूरत नहीं होती है।

जितने भी लोग आज पढ़-लिख रहे हैं, इनमें से कोई भी वापिस अपने गांव जाने वाला तो है नहीं। वह कहीं और जाकर जिएगा। जीवन भर मेहनत करके जहाँ भी अपना घर बनाएगा, उसकी संतान उसमें नहीं जिएगी। संतान कहाँ जाकर जिएगी, वो इसको भी पता नहीं है। आज हर आदमी अपनी जिंदगी अपने से चालू कर रहा है और अपने से खत्म कर रहा है। जो जिंदगी एक व्यक्ति जीता है, वह जिंदगी उसका बच्चा नही जीता है। वह जिंदगी उस व्यक्ति के साथ ही खत्म हो जाती है।

आज एक छोटा सा परिपक्व जीवन जीने के लिए हरेक व्यक्ति को दस काम करने पड़ रहे हैं। बहुत ही कम लोग केवल एक काम में अपना परिपक्व जीवन जी पा रहे हैं। पहले तो ये था, कि बस्ती में कावड़ लेके पानी भरने वाला आदमी भी, उसी एक काम पे, अपना सब कुछ कर डालता था। अपने बच्चों की शादी कर डालता था, लेना-देना, सब कुछ उस एक ही काम पर कर डालता था, मगर आज एक काम पर कोई भी अपना परिपक्व जीवन नहीं जी पा रहा है। इस तरह की व्यवस्था वाले समाज में लोग क्या कर पाएंगे, ये सोचने का विषय है।

जबकि एक समय में हमारे पास अन्नमाचार्य हुए हैं, गुरू गोविंद सिंह हुए हैं, पोतन्ना हुए हैं। इस तरह के और न जाने कितने लोग हुए हैं । अकेले अन्नमाचार्य ने 36,000 कीर्तन लिखे हैं। उनकी दो बीवियाँ थीं और वो भिक्षावृत्ति पर जीते थे। वो रोज एक कविता लिखकर के, उसको ताम्र पत्र पर खुदवा करके, तिरूपति की हुंडी में डालते थे। अभी तक उनके लिखे कुछ 14,000 कीर्तन मिले हैं। बाकी ताम्र पत्रों के बर्तन-वर्तन बना लिए गए हैं, ऐसा सुनने में आता है।
36,000 कीर्तन उन्होंने कैसे लिखे होंगे? खाना तो उसको भी खाना होता रहा होगा। दो बीवियों वाला परिवार तो उनको भी चलाना होता होगा। मगर फिर भी इतना – इतना कर जाते थे। पोतन्ना, जिन्होंने तेलुगू में भागवत लिखी है, वो एक मामूली खेती करने वाला व्यक्ति था। मामूली खेती करने वाले आदमी ने इतना बड़ा ग्रंथ लिखा है! वह तेलुगू भाषा का बहुत सुंदर साहित्य माना जाता है।

पांवटा साहिब गुरुद्वारे में, गुरू गोविंद सिंह का संक्षिप्त परिचय देखने को मिला। उनका परिचय पढ़कर बड़ा आश्चर्य होता है। वहाँ रहते समय उनको 24 घंटे लड़ाई की चिंता रहती थी, क्योंकि वहाँ कभी भी आक्रमण हो सकता था। उसके बाद भी वहाँ लगातार कवि सम्मेलन चलते रहते थे, कवि दरबार चलते रहते थे, ग्रंथ साहिब की रचना हो रही थी। वे खुद कविताएँ लिखते थे।

एक बार वे दक्षिण के एक इलाके में तीन-चार महीने के लिए रूके थे। वहाँ भी बाद में एक गुरूद्वारा बनाया गया। भगौड़ साहिब गुरूद्वारा। वहाँ बैठकर उन्होंने संस्कृत में श्रीकृष्णलीलामृत लिखी थी।

इन सारे लोग के बारे में जानने के बाद भी यह पता नहीं चल पा रहा है, कि वे सारे लोग इतना सब काम कैसे कर जाते थे। आज हम लोगों को कुछ थोड़ा सा भी करने के लिए बहुत सोचना पड़ रहा है। कम्प्यूटर वगैरह रख के भी हम वह सब नहीं कर पा रहे हैं, जोकि ढेर सारी समस्याओं के रहने के बावजूद भी वे बड़ी आसानी से कर लेते थे।

रोज के खाने की चिंता तो उन लोगों को भी रही होगी, क्योंकि उनके लिए आसमान से तो कुछ टपकता नहीं होगा। मगर, ये सारी चिंताएँ होने के बावजूद, सारी चीजों की व्यवस्थाएँ करते रहने के बावजूद भी वे लोग ढेरों तरह का काम कर लेते थे। फिर कभी लगता है, कि ये सब उस समय के गाँव की व्यवस्थाएँ थी, समाज की व्यवस्थाएँ थीं, जिनके कारण यह सब आसानी से हो जाया करता था।

आधुनिक व्यवस्था से उपजे संचार जाति वाले समाज के लोगों को न तो इन सबकी कोई जरूरत ही समझ में आती है, और न ही इस समाज में यह सब संभव है।


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