पारंपरिेक शोध की जहाँ तक गोपनीयता का प्रश्न है यह आरोप बेबुनियाद है। वास्तविकता यह है, कि एक वैद्य देश, काल, पात्र एवं रोग के अनुरूप औषध रचना में कितना दक्ष है यह उसके अनुभूत योग से प्रकट होता था। अनुभूत स्वतंत्र योगों का पहले चिकित्सकों के बीच आदान-प्रदान होता था। बाद में जब कोई वैद्य योग संग्रह की पुस्तक लिखता था, तो उनका समावेश कर देता था। योग संग्रह की इस परंपरा का रोचक उपयोग एवं उल्लेख राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ स्वामी नामक पुस्तक में किया है।
दरअसल सारा झगड़ा व्यक्तिगत अनुभूत योगों को भारतीय कंपनियों तथा उन अयोग्य चिकित्सकों द्वारा अकृतज्ञतापूर्वक अपनाए जाने का एवं उसे पेटेंट कराने का है। जहाँ तक आयुर्वेदिक दवाओं की गोपनीयता का प्रश्न है, इसे ठीक से समझना चाहिए। आयुर्वेदिक दवाएँ तीन रूपों में वर्णित होती हैं – 1. मूल दवा एवं उनके गुण, 2. शास्त्रीय दवाएँ , 3. अनुभूत योग । अनुभूत योग पर ही केवल भारतीय पेटेंट कानून लागू होता है। अनुभूत योग में से कुछ दवाएँ पेटेंटीकृत करा ली गयी हैं।
मूल दवा एवं उनके गुणों का विस्तार से वर्णन चरक संहिता आदि मूल ग्रंथों में तो है ही, इसके लिए स्वतंत्र रूप से माधव निघंटु, भाव प्रकाश निघंटु जैसी कई पुस्तकें प्रकाशित या लिखित रूप में उपलब्ध हैं। शास्त्रीय दवाओं एवं उनके निर्माण की पुस्तकें भी कई हैं। जैसे भैषज्य रत्नावली, भैषज्य सार संग्रह, योग रत्नाकर आदि। इनमें वर्णित दवाओं की संख्या हजारों है। प्रायः इन्हीं दवाओं का प्रयोग होता है। ये सब गुप्त कहाँ हैं??? हिंदी अनुवाद आ जाने पर तो कोई भी इसे पढ़-समझ सकता है। रही बात व्यक्तिगत अनुभूत योग एवं उनके पेटेंटीकृत रूप की, तो पहली बात यह है, कि प्रयोगकालीन फार्मूलों एवं अनुभवों का चिकित्सकों के बीच गोपनीय रहना अपराध नहीं है। जब तक परिणामों की विश्वसनीयता सुनिश्चित न हो जाए, तब तक उसे क्यों शास्त्रीय दवाओं की सूची में डालकर प्रकाशित करना चाहिए? यह तो गलत बात होगी। इसके बाद बचे खुचे पेटेंट योगों पर यदि प्रयोग का कोई अपना विशेषाधिकार रखना चाहता या रखता है, तो इसके लिए सारी आयुर्वेदिक परंपरा पर ही गोपनीयता का आरोप लगा देना ठीक नहीं है।
जो स्वयं योग निश्चय एवं भैषज्य कल्पना (दवा बनाने की विधि) में दक्ष नहीं रहे हैं वे केवल दूसरे के योगों को लेने की स्थिति में ही रह सकते हैं, देने की स्थिति में नहीं। अतः वास्तविक वैद्य अपना योग इन्हें क्यों देते? मामला दवा कंपनियों का है, जो एक ओर वैद्यों से उनका अनुभूत योग मुफ्त में हासिल करना चाहती थीं ओर दूसरी ओर वैद्यों के द्वारा घर में दवा निर्माण को सरकारी स्तर से प्रतिबंधित भी करवा रही थीं, कि इससे राजस्व की हानि होती है। पेटेंट प्राप्त कर दवाओं की मनमानी कीमत रखने के अपने षडयंत्र में जब दवा कंपनियाँ एवं उससे जुड़े और विफल हुए अपात्र लोगोें को आयुर्वेद ही गोपनीय लगने लगा।
इसी तरह का आरोप संस्कृत भाषा सीखने से कतराने वाले नए आयुर्वेदिक डाक्टर लगाते रहे। पुराने वैद्यों में भी जो अल्पज्ञ थे उन्हें इन नये लोगों को नचाने एवं अपना भाव बढ़ाने के लिए अच्छा लगा, कि कहें कि केवल ये योग ही नहीं चिकित्सा की असली क्रिया भी मेरी कुल परंपरा में गुप्त है। रही बात नाड़ी विद्या की तो इसे सीखने के लिये गुरु के साथ अभ्यास करना ही होता है। सारे प्रायोगिक विषयों पर यह बात लागू है। नाड़ी विद्या के लक्षणों पर पुस्तकें उपल्ब्ध हैं फिर गोपनीयता कहां है?
(समाप्त)
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