संस्कारों द्वारा पोषित हमारी अपनी सामाजिक (अर्थ) व्यवस्था (भाग १/३)

हमारी लगभग सभी परम्पराओं के पीछे एक धार्मिक दृष्टि होने के साथ-साथ कुछ अन्य मूल कारण रहे हैं, जिन्हें समाज ने धार्मिकता के माध्यम से समाज में लागू किया है। इन महत्त्वपूर्ण कारणों में अर्थव्यवस्था का सुचारूपन, समाज में सामाजिकता का उत्तरोत्तर विकास, उस परम्परा का शारीरिक / आयुर्वेदीय महत्त्व, प्रकृति के साथ सामन्जस्य एवं वसुधैव कुटुम्बकम्, आदि के भाव एवं कारण महत्त्वपूर्ण रहे हैं। हमारे सभी रीति-रिवाजों, परम्पराओं में इनमें से एक या अधिक कारणों का विशेष महत्त्व रहा है।

आज हमारा समाज इन महत्त्वपूर्ण कारणों से अनजान होकर, इन सारे रीति रिवाजों और परम्पराओं को केवल धर्म, संप्रदाय और अंधविश्वास की नज़र से देख कर, केवल ढो रहा है और इसी कारण, आज का समाज इन रीति-रिवाजों, परम्पराओं का पालन तो कर रहा है, मगर यह पालन उन महत्त्वपूर्ण कारणों को जाने बिना, एक अनजाने से डर के कारण या फिर बस करने के लिए कर रहा है – उसके पीछे के परम तत्त्वों, उन महत्त्वपूर्ण कारणों को थोड़ा सा भी जाने बगैर।

समाज में प्रचलित विभिन्न संस्कार भी आज इसी तरह से मनाए जा रहे हैं – धार्मिक संतोष और तथाकथित धार्मिक जिम्मेदारी पूरी करने के लिए, या फिर एक जमावड़ा करके उत्सव जैसा मनाने के लिए। इन संस्कारों के पीछे के मूल उद्देश्यों से अनभिज्ञ रहने के कारण, हम न केवल इन उद्देश्यों की पूर्ति करने से वंचित रह जाते हैं, बल्कि उसके ठीक उल्टे, इन उद्देश्यों के ठीक विपरीत उद्देश्यों की पूर्ति करते प्रतीत होते हैं।

हमारे लोगों ने समाज में कभी 49 संस्कारों की एक बहुत ही बढ़िया व्यवस्था बनाई थी। समाज में सभी लोगों को गर्भाधान से लेकर मृत्यु संस्कार, जिसको अंतिम संस्कार भी बोला जाता है, वहाँ तक 49 संस्कारों का पालन करना होता है। इन संस्कारों का शरीर विज्ञान / आयुर्वेदीय एवं पर्यावरणीय महत्त्व होने के साथ – साथ अर्थव्यवस्था एवं सामाजिकता संबंधी एक बहुत बड़ा महत्त्व होता है।

समाज में एक अलग तरह का अर्थशास्त्र स्थापित करने के उद्देश्य से:

अर्थव्यवस्था की दृष्टि से समाज में इन संस्कारों का विशेष महत्त्व रहा है, बल्कि यह कहना भी अनुचित नहीं होगा, कि समाज में अपनी तरह की एक अर्थव्यवस्था बनाने के उद्देश्य से ही समाज में संस्कारों वाली व्यवस्था कायम की गई थी।

इस पूरी व्यवस्था को बहुत ही अच्छी तरह समझाते हुए गुरूजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी पूछते हैं कि कोई भी व्यक्ति, कोई भी चीज कब / क्यों खरीदता है? लोगों के शांत रह जाने पर उसका उत्तर भी वे स्वयं देते हैं – जब किसीको किसी चीज की जरूरत हो, तब; या फिर जब कोई चीज किसीको सुंदर लगे, तब।

इन दो परिस्थितियों के अतिरिक्त शायद ही कोई व्यक्ति कोई चीज खरीदता है। पर आज की उपभोक्ता वादी सोच से थोड़ा सा ऊपर उठ कर देखें तो पता चलता है कि आखिर आदमी को किसी भी चीज की जरूरत ही कितनी होती है। कुंकुंम, सिंदूर, चूड़ी, काजल, जेवर, जैसी ढेरों चीजों के बिना भी व्यक्ति आराम से जी सकता है। यहाँ तक की शरीर को ढकने की जरूरत को पूरा करना हो तो कुछ अलग तरह के बहुत ही कम कपडों से जीवन कट सकता है।

इसी तरह से हर सारी चीज में जरूरत की तो बहुत ही कम चीज नज़र आती हैं, किन्तु फिर देखा ये गया, कि यदि जरूरत पड़ने वाली इतनी कम चीजों का ही इस्तेमाल किया जाएगा, तो कारीगरों को न तो भरपूर काम मिलेगा और न ही उनका गुजारा चल पाएगा। उनको तो भूखे मरने की नौबत आ जाएगी।

इसीलिए, समाज ने कारीगरों और उनके माध्यम से कारीगरी तकनीकों को समाज में सुरक्षित रखने के लिए एक अलग ही तरह के बाजार की व्यवस्था की। एक ऐसा बाजार कि लोग जरूरत न होने पर भी उसका इस्तेमाल करे, ताकि ये लोग गांव छोड़कर भाग न जाए।

उसमें भी फिर एक व्यवस्था बनी, कि एक घर में सुनार की जितनी चीजें लगती हैं और उन चीजों के माध्यम से एक घर से सुनार को जितना धन जाता है, उतना ही धन अगर एक कुम्हार के घर भी जाना है, तो कुम्हार की कितनी चीजों को इस्तेमाल करना पड़ेगा; अगर उतना ही पैसा बांस का काम करने वालों के पास जाना है, तो उसकी कितनी चीजों का इस्तेमाल करना पड़ेगा।

यह पूरा हिसाब तैयार था। लोग बिना जरूरत की चीज को भी इस्तेमाल करने के लिए तैयार हुए, क्योंकि गांव में उन विद्याओं को बचाए रखना था, लोगों को व्यवस्थित करना था, जरूरत नहीं रहने पर भी। बाकी अन्य कारीगरों की चीजें तो लंबे समय के लिए रखी जा सकती थीं, मगर, मिट्टी और बांस से बनी चीजों को एक साल से ज्यादा के लिए उपयोग नहीं किया जाता था।

इसीलिए, अभी कुछ समय पहले तक गणेश चतुर्थी में हमारे यहाँ सभी घरों पर पत्थर मारे जाते थे। चूंक यह त्यौहार बारिशों में अगस्त – सितम्बर के महीनों में आता है और उस समय पर कुम्हारी का कोई भी काम नहीं चलता है। इसीलिए, ऐसे समय पर बच्चे घरों पर पत्थर मारा करते थे, जिसमें हर घर के 20 – 25 कवेलू (खपरैल) तो फूटते ही थे। दूसरे ही दिन से कुम्हारों को काम मिलना चालू हो जाता था।

इस तरह से कारीगरों को काम दिलाने के लिए, लोगों ने अपना नुकसान भी भोगा है। ऐसे बहुत त्यौहार हमारे पास में है, जो कि कारीगरों के अच्छे मार्केट थे। हालाँकि, आजकल तो लोगों को ये सारे रिवाज, संस्कार बंद करने के लिए बोलना पड़ता है, क्योंकि कभी तो ये सभी चीजें कारीगरों के लिए बनी थी, मगर आजकल ये सभी चीजें कारखानों का फायदा करा रही हैं।

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