बच्चे

बच्चे प्रदर्शन की वस्तु नहीं हैं

अभी हाल ही में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अपने एक पुराने मित्र के घर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। तमाम औपचारिकताओं के दौरान उन्होनें अपने ढाई साल के बच्चे का परिचय कराया। परिचय और साधारण सी होने वाली बातचीत जल्द ही बच्चे के विविध सूचना रूपी सीख एवं कला के प्रस्तुति और प्रदर्शन में तब्दील हो गई। बच्चे की सही प्रतिक्रिया पर अभिभावक द्वारा प्रशंसा एवं खुशी का इजहार एवं गलत प्रतिक्रिया पर उसे सुधारने का उतावलापन। अनौपचारिक मूल्यांकन का यह दौर तबतक चलता रहा जब तक बच्चा ऊब न गया। अत्यंत असहज करने वाली यह घटना मेरे लिए कोई नई नहीं थी। अक्सर अभिभावक अपने बच्चों के गुणों के प्रदर्शन में गौरवान्वित होते हैं और हो भी क्यों नहीं, क्योंकि बालक का बेहतर प्रदर्शन न केवल उनके कुशल अभिभावकत्व के भ्रम को पोषित करता है, अपितु एक विशिष्ट बालक का अभिभावक होने का भाव देकर छद्म सामाजिक प्रशंसा का कारण बनता है। मैनें यहां छ्द्म सामाजिक प्रशंसा शब्द का प्रयोग जानबुझकर किया है क्योंकि ज्यादातर आगंतुक बालकों के प्रदर्शन की प्रशंसा आनन्दित होकर नहीं, वरन अभिभावक के उत्साह से असहमति नहीं रख पाने के भाव से उत्पन्न संकोच में करते हैं।

यहाँ यह बात उल्लेखनीय है, कि भावों की निर्मलता के कारण बाल – स्वभाव स्वतः लोगों कों आकर्षित करता है। जबरन ठूँसी गयी सूचनाएँ बच्चों के संज्ञानात्मक विकास की नैसर्गिक प्रक्रिया को दोषपूर्ण करती है। संज्ञान से तात्पर्य सूचना के ग्रहण से लेकर उसको जानने या उसको मैं जानता हूँ इस एहसास तक की मानसिक प्रक्रिया है। ज्यादातर अभिभावक अधिक से अधिक सूचनाओं की आवृत्ति रूपी अभ्यास द्वारा स्मृतीकरण को भूलवश सीखना समझ लेते हैं। सूचना शब्द प्रधान होती है। अनुभवहीन शब्दबाहुल्यता संज्ञानात्मक विकास में संकुचित दृढता को उत्पन्न करती है, जो एक प्रकार की कंडिशनिंग (अनुबंधन) है। सीखने के नैसर्गिक विकास के लिए इस प्रकार का अनुबंधन उपयुक्त नहीं है। सूचना रूपी सीख का प्रदर्शन, प्रदर्शन के लिए सीखने में जल्द ही परिणत हो जाता है; अब बच्चा अपनी हर सीख को दिखाने, बताने का प्रयास करने लगता है। पहले तो अभिभावक एवं आगंतुक अत्यंत उत्साह के साथ प्रतिक्रिया देते हैं किन्तु धीरे धीरे उनका उत्साह कम होने लगता है। प्रोत्साहन द्वारा सिखाने में अभिभावकों द्वारा संतुलित प्रतिक्रिया नही दे पाना एक आम बात है, जो धीरे-धीरे बालक के सीखने के उत्साह को कम कर सीखने की प्रगति को शिथिल करती है। एक और महत्वपूर्ण तथ्य जो अनावश्यक सूचना और सीखने के प्रदर्शन से उत्पन्न होता है, वो है बालकों की जिज्ञासा और धैर्य में कमी। अभिभावक का पूर्व में अधिकाधिक सूचना देना बालक के नैसर्गिक जिज्ञासा की प्रवृति और उसके उत्तर को स्वयं से खोजने की क्षमता को कमजोर करता है। सूचना की बहुलता और प्रदर्शन की प्रवृत्ति के कारण बालक प्रश्न पर प्रश्न पूछता है, जिसे हम बच्चे की बढती जिज्ञासा के रूप में देखते हैं। चूँकि ये प्रश्न बालक को अनावश्यक प्राप्त सूचनाओं के कारण उत्पन्न होते हैं अतः इन प्रश्नों का बालक के लिए कोई विशेष अर्थ नहीं होता, किन्तु अभिभावक का उत्तर न देना या गलत उत्तर देना जो बहुत सामान्य सी घटना है, बालक के संज्ञानात्मक विकास को दूषित करने के लिए पर्याप्त होती है।
प्रारम्भिक बाल्यावस्था संज्ञानात्मक विकास का आधारभूत काल है; अतः अभिभावकों का व्यवहार अत्यंत सावधानीपूर्वक होना चाहिए। बच्चों को अधिकाधिक सूचना देने से बचना चाहिए। ध्यान रहे आपका अनावश्यक बताना ही बच्चों के अनावश्यक प्रश्न के कारण हैं, अतः उन्हें बताने से ज्यादा स्वयं से अनुभव द्वारा सीखने दें। यह समय संज्ञानात्मक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ज्ञानेन्द्रियों के विकास एवं परिपक्वता का है, अतः उनके नैसर्गिक विकास को कम से कम हस्तक्षेप कर – बस होने दें। अभिभावक ज्ञानेन्द्रियों की प्रभावशीलता को बढाने के लिए बच्चों के परिवेश की नैसर्गिकता, विविधता और समग्रता पर काम कर सकते हैं।

फेसबुक पोस्ट 3 जून 2017 के आधार से।


Posted

in

,

by

Tags:

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.