भारत-की-आत्मा

भारत की आत्मा

प्रवचन: आश्रम में प्रार्थना के बाद मिल मजदूरों के साथ –  (मार्च 17, 1918)

(गांधीजी का यह प्रवचन अत्यंत महत्वपूर्ण है। अहमदाबाद के मिल मजदूरों की हड़ताल के बाफी दिनों बाद गांधीजी अनशन पर बैठने का निर्णय लेते हैं। यह निर्णय उनके लिए काफी दुविधा उत्पन्न करता है। इस दुविधा को वे इस प्रवचन में स्पष्ट करते हैं। इसमें कई बातों की महीन जानकारी हमें मिलती है। एक तरफ वे अपनी दुविधा का जिक्र करते हैं, जिसकी वजह से उन्हें अनशन पर बैठने का निर्णय लेना पड़ा। वे यह मानते हैं कि उनका यह निर्णय दोषयुक्त है फिर भी उन्हें यह रास्ता क्यों चुनना पड़ा, इसे वे स्पष्ट करते हैं।

पर इससे भी बड़ी बात जो वे इस समय कहते हैं – वह है ‘भारत की आत्मा’ की बात। गांधीजी का यह दृढ़ विश्वास है कि भारत अन्य देशों से भिन्न है। 3 नवम्बर, 1917 को ‘प्रथम गुजरात परिषद में’ भाषण देते हुए वे कहते हैं कि ‘हम जो आंदोलन (देश में) चला रहे हैं ,वह पश्चिमी परिपाटी का है। हम जो स्वराज्य चाहते हैं वह भी पश्चिमी नमूने का है। इसका परिणाम यह होगा कि भारत को पश्चिमी देशों के साथ प्रतियोगिता करनी पड़ेगी – उनका अनुसरण करना पड़ेगा। कई लोग कहते हैं कि दूसरा रास्ता नहीं है। मैं ऐसा नहीं मानता। भारत यूरोप नहीं है, जापान नहीं है, चीन नहीं है, मैं इसे नहीं भूल सकता। मेरे मन में तो यह देववाणी समा गई है कि भारत ही कर्मभूमि है, शेष सब भोग भूमियाँ हैं। मुझे लगता है कि और देशों से इस देश का काम भिन्न है। भारत में धार्मिक साम्रज्य भोगने की शक्ति है। जैसी तपस्या इस देश में हुई, कहीं और नहीं हुई। भारत को लोहे के हथियारों की जरूरत नहीं है, वह तो दिव्य अस्त्रों से लड़ता आया है और अब भी लड़ सकता है। अन्य देशों ने तो शरीर-बल की उपासना की है।’ यही बात वे दूसरे ढंग से, वे इस प्रवचन में पुनः रखते हैं। पाठक गौर करेंगे कि कि गांधीजी को भारत आए सिर्फ तीन साल हुए हैं। इस समय के प्रतिष्ठित नेता, जिन पर लाखों लोग जान न्यौछावर करने के लिए तैयार हैं, वे हैं बाल गंगाधर तिलक और विद्वानों में अग्रणी एवं धर्मज्ञ पंडित मदनमोहन मालवीय। इन दोनों को गांधीजी ललकारते हैं और दुःख भी प्रकट करते हैं कि इन्होंने भारत की आत्मा को नहीं समझा। वे यह मानते हैं कि अगर देश के बड़े नेता इस बात को समझते तो स्थिति भिन्न होती। गांधीजी को विश्वास है कि यहाँ के साधारण लोगों के मन में धर्म का लोप नहीं हुआ है, सिर्फ धूल की एक परत जम गई है जिसे बार-बार साफ करने का प्रयास महात्मा गांधी कर रहे हैं। साथ ही साथ में वे यह भी समझाते हैं कि आंदोलन को प्रतिपक्ष के मन में दयाभाव उत्पन्न करवाने के लिए प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए और यदि ऐसा होता है, तो यह आंदोलनकारियों के लिए लज्जास्पद है। इसी बात को साधन शुचिता के दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है।)

मैंने अभी जो कदम (भूख हड़ताल का) उठाया है, वह बहुत भयंकर इसलिए है कि इसे सुनकर भारत में जितने लोग मुझे जानते हैं; उन सभी को दुःख होगा, वे अत्यन्त शोक प्रकट करेंगे। लेकिन इसके साथ ही, मुझे अब उन लोगों को एक सुंदर तत्त्व समझाने का अवसर भी मिला है। उस अवसर को मुझे न चूकना चाहिए। इस विचार से मैंने यह कदम उठाया है। आप सबको इसका उद्देश्य समझाने के लिए मैं दो दिन से बहुत अधीर रहा, किन्तु ऐसा शान्ति का समय मिल ही नहीं रहा था। यदि मैं प्रातःकाल और संध्याकाल की प्रार्थना के समय आश्रम में न रह सकूँ तो यह मुझे बहुत खलता है। और इसके अतिरिक्त कल तो संगीतशास्त्री आए थे; इसलिए उनका मधुर स्वर सुनने का सुख तो मैं हरगिज नहीं छोड़ सकता था। मैंने बहुत-से मोह छोड़ दिये हैं, किन्तु अभी कई मोह मुझमें बचे हुए हैं। आजकल तो संगीत के बारे में जितना मोह था, उतना संगीत तो मुझे आश्रम में उपलब्ध है। इसलिए कल अनसूया बहन का वहाँ रहने का बहुत आग्रह होने पर भी मैं यहाँ आ ही गया। एसे मौके पर यहाँ के संगीत से मुझे बड़ी शान्ति मिलती है। आप लोगों के सामने अपनी आत्मा उड़ेलने के लिए यह ठीक अवसर है। किसी अन्य समय में जब आप अपने कत्र्तव्य-कर्म में लगे हुए हों, तब उसे छुड़वाकर आपको यहाँ इकाट्ठा करना भी ठीक नहीं।

मुझे अपने देश भारत की प्राचीन संस्कृति में एक ऐसा तत्व मिला है जिसे यदि यहाँ बैठे हुए हम थोड़े-से लोग ही जान लें तो भी समस्त जगत के साम्राज्य का उपभोग कर सकते हैं। किन्तु उस तत्व को बताने से पहले मुझे एक बात कहनी है। इस समय भारत में एक ही ऐसा व्यक्ति हैं, जिनके पीछे लाखों लोग पागल हैं, जिनके लिए देश के लाखों लोग अपने प्राण देने के लिए तैयार हो जाएंगे। वे व्यक्ति हैं तिलक महाराज। मुझे कई बार ऐसा लगता है कि तिलक महाराज के पास यह बड़ी पूंजी है। यह उनका महाधन है। उन्होंने ‘गीता-रहस्य’ ग्रंथ लिखा है। किन्तु मुझे लगता ही रहता है कि उन्होंने भारत की प्राचीन भावना को, भारत की आत्मा को नहीं पहचाना और इसीलिए इस समय देश की यह दशा बनी हुई है। उनके मन की गहराई में यही बात है कि हम यूरोपियों जैसे बन जाएं। आजकल यूरोप की जैसी शोभा हो रही है – अर्थात जिनके मन में यूरोपिय विचार घुस गये हैं, उन्हें जितना यूरोप शोभायमान लगता है – वैसा ही भारत को शोभायमान करना उनका उद्देश्य है। उन्होंने छः वर्ष तक कारागार का कष्ट सहन किया, यूरोप के ढंग की बहादुरी दिखाने के लिए और इस विचार से कि जो लोग इस समय हमें सता रहे हैं, वे भी देख लें कि हम जेल में दस-बीस वर्ष कैसे रह सकते हैं। साइबेरिया की जेलों में रूस के बहुत-से बड़े-बड़े लोग उम्र-भर सड़े, परन्तु वे कोई आत्म-ज्ञान के कारण जेल नहीं गये थे। इस तरह जीवन गंवा देना अपना परम धन बेकार गंवा देना जैसा है। तिलक महाराज ने कारावास का यह कष्ट आध्यात्मिक दृष्टि से भोगा होता, तो आज हालत दूसरी ही होती और उनकी जेल-यात्रा के परिणाम दूसरे ही होते। मैं उन्हें यही बात समझाना चाहता हूँ। बहुत बार अत्यन्त विनयपूर्वक जितना मुझसे कहा जा सकता है उतना मैंने उनसे कहा है। हाँ, मैंने उन्हें यह बात स्पष्ट नहीं कही या लिखी। मैंने उन्हें जो कुछ लिखा है, उसमें मेरा कहना तो गौण जरूर रह जाता है किन्तु तिलक महाराज की निरीक्षण शक्ति इतनी जबरदस्त है कि वे समझ जाते हैं। फिर भी, यह बात ऐसी है कि कहकर या लिखकर नहीं समझाई जा सकती। उसका अनुभव कराने के लिए मुझे प्रत्यक्ष उदाहरण देना चाहिए। परोक्ष रूप में मैंने उन्हें कई बार कहा है, परन्तु प्रत्यक्ष दृष्टान्त देने का अवसर मुझे मिले तो उसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए और यह ऐसा ही अवसर है।

ऐसे ही दूसरे व्यक्ति हैं मदनमोहन मालवीय। भारत के नेताओं में अर्थात राजनैतिक पुरूषों में और जिन्हें हम जानते हैं, उनमें वे इस समय पवित्रतम पुरूष हैं। अदृश्य पवित्र पुरूष तो बहुत होंगे। किन्तु इतने पवित्र होते हुए भी और धर्म का ज्ञान रखते हुए भी उन्होंने भारत की भव्य आत्मा को अच्छी तरह से नहीं पहचाना, ऐसा मुझे लगता है। यह मैंने बहुत कह दिया। मालवीय जी यह सुनकर मुझ पर क्रोध कर सकते हैं कि ‘यह बहुत अभिमानी मनुष्य है।’ किन्तु बात बिल्कुल सच्ची है, इसलिए इसे कहते हुए मुझे जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती। मैंने उनसे बहुत बार कहा है। उनके साथ मेरा बहुत ही प्रेमपूर्ण संबंध है, इसलिए मैंने उनसे बहुत झगड़ा भी किया है। फिर भी, मेरे सारे तर्क के अंत में उन्होंने यही कहा कि यह सारी बात सही है पर वे उसे मान नहीं सकते। उन्हें भी प्रत्यक्ष उदाहरण देने का अवसर मुझे मिला है। मैं इस समय इन दोनों को बता सकता हूँ कि भारत की आत्मा क्या है।

बीस दिन से मैं दस हजार मजदूरों से मिलता-जुलता रहा हूँ। उन्होंने मेरे सामने खुदा या ईश्वर को बीच में रखकर प्रतिज्ञा ली है और प्रतिज्ञा लेते समय उन्होंने बहुत उत्साह दिखाया। वे कैसे भी हों परन्तु यह तो मानते ही हैं कि खुदा या ईश्वर है।

उनकी धारणा यह थी उन्होंने बीस दिन प्रतिज्ञा का पालन किया, इसलिए भगवान उनकी मदद जरूर करेगा। किन्तु भगवान ने इतने अर्से में मदद नहीं की और उनकी ज्यादा परीक्षा ली, इसलिए उनकी आस्था कमजोर पड़ गई। उन्हें यह महसूस हुआ – ”हमने इतने दिनों तक इस एक व्यक्ति के कहने पर भरोसा रखकर दुःख उठाया परन्तु हमें कुछ न मिला। हमने इसका कहना न माना होता और दंगे-फसाद किये होते तो हमें पैंतीस फीसदी तो क्या उससे ज्यादा थोड़े ही समय में मिल जाता।“ यह उनके मन का विश्लेषण है। मैं इस स्थिति को कदापि सहन नहीं कर सकता। मेरे सामने ली हुई प्रतिज्ञा इस तरह आसानी से तोड़ दी जाए और ईश्वर के प्रति श्रद्धा कम हो जाए, यह तो धर्म का लोप हुआ ही कहा जाएगा और इस तरह जिस काम में मैं शामिल होऊँ उसमें धर्म का लोप होता देखूं, तो मैं भी जी ही नहीं सकता। मुझे मजदूरों को यह समझाना चाहिए कि प्रतिज्ञा लेने का क्या अर्थ है। इसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ, यह भी मुझे उन्हें बताना चाहिए। यदि मैं उन्हें यह न बताऊँ, तो मैं कायर कहलाऊंगा। यदि कोई व्यक्ति एक ब्यों(व्यास) कूद सकने का दावा करे और एक बित्ता भी न कूद सके, तो यह उसकी कायरता ही होगी। तब मैंने इन दस हजार लोगों को पतन से बचाने के लिए यह कदम उठाया। इसीलिए मैंने यह प्रतिज्ञा ली और उसका बिजली-सा असर हुआ। मैंने यह सोचा ही नहीं था। वहाँ हजारों आदमी जमा थे। उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। उन्हें अपनी आत्मा का भान हुआ, उनमें चैतन्य आया और उन्हें अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने का बल मिला। मुझे तुरन्त यह विश्वास हो गया कि भारत से धर्म का लोप नहीं हुआ है। यहाँ के लोग आत्मा को पहचान सकते हैं। यह बात तिलक महाराज तथा मालवीय जी की समझ में आ जाए, तो भारत में जबरदस्त काम किया जा सकता है।

मैं इस समय आनंद विभोर हो रहा हूँ। इससे पहले जब मैंने ऐसी प्रतिज्ञा ली थी, तब मेरे मन में ऐसी शान्ति नहीं थी। शरीर की जरूरतें भी मुझे महसूस होती थीं। इस बार मुझे शरीर की जरूरतें मालूम नहीं होती। मेरे मन में पूरी शांति है। ऐसा जी में आता है कि अपनी आत्मा आप लोगों के सामने उड़ेल दूँ। लेकिन आनंद से विह्वल भी हो गया हूँ।

मेरी प्रतिज्ञा मजदूरों से उनका प्रण पलवाने के लिए है, लोगों की प्रतिज्ञा का मूल्य समझाने के लिए है। देश में लोग चाहे जब प्रतिज्ञा लें और चाहे जब तोड़ें, यह देश की हीन अवस्था का सूचक है। फिर यदि 10 हजार मजदूर अपनी प्रतिज्ञा तोड़ देते, तो इससे देश की अधोगति ही हो जाती। मजदूरों का सवाल तो फिर कभी उठाया ही नहीं जा सकता। जहाँ-तहाँ यह उदाहरण दिया जाता कि 10 हजार मजदूरों ने 20 दिन तक भारी दुःख उठाया और गांधी जैसा व्यक्ति उनका नेता था, फिर भी वे न जीते, इसलिए मुझे यह सोचना पड़ा कि मजदूर अपनी बात पर किस तरह दृढ़ रह सकते हैं और इस कार्य को अपने आपको कष्ट दिये बिना मैं कैसे कर सकता हूँ? प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए ऐसे कष्ट भी उठाने पड़ते हैं, यह उदाहरण उनके सामने रखना जरूरी मालूम हुआ। बस, मैंने प्रतिज्ञा ली। मैं समझता हूँ कि मेरी प्रतिज्ञा दोषयुक्त है। यह संभव है कि इस प्रतिज्ञा के कारण मिल मालिक मुझ पर दया करके मजदूरों को 35 प्रतिशत वृद्धि दे दें। मेरी इच्छा तो यही है, कि यदि उन्हें न्याययुक्त मालूम हो, तो ही वे 35 प्रतिशत की वृद्धि दें, दयाभाव से कुछ भी न दें। फिर भी उसका स्वभाविक परिणाम वही होगा और उस हद तक यह प्रतिज्ञा मेरे लिए लज्जाजनक ही है। किन्तु मैंने दो बातों का विचार किया: अपनी लज्जा का और मजदूरों की प्रतिज्ञा का। पलड़ा दूसरी तरफ झुका और मैंने मजदूरों के लिए लज्जा का भार उठाने का निश्चय किया। सार्वजनिक-कार्य में इस तरह की लज्जा का भार उठाने के लिए भी मनुष्य को तैयार रहना चाहिए। इस प्रकार मेरी प्रतिज्ञा मिल मालिकों के लिए धमकी के रूप में है ही नहीं और मैं तो यही चाहता हूँ कि मिल मालिक साफ तौर पर इस बात को समझें और यदि मजदूरों की मांग न्यायपूर्ण प्रतीत हो, तो ही उनको 35 प्रतिशत वृद्धि दें। मजदूरों से मेरी यह प्रार्थना है, कि वे मिल मालिकों के पास जाकर यही बात कहें।

संपूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड 14, पृष्ठ 247-250

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