भारत की समझ

भारत एक विशाल एवं विविधतापूर्ण देश है। यहाँ की संस्कृति भी अपने प्रकार की अलग ही है, जो विविधताओं से भरी है, फिर भी उन विविधताओं के बीच घनिष्ठ आत्मीय संबंध हैं। जैन और बौद्ध तो यहीं के हैं। इस संसार, ब्रह्मांड या जिसे अंग्रेजी में कॉस्मोस कहा जाता है, उसके बारे में सनातनी, जैन और बौद्ध की समझ और मान्यता पूरी तरह एक न होने पर भी एक जैसी है। इस्लाम और ईसाइयत बाद में बाहर से आए हुए हैं और संसार की बनावट की समझ भी उनकी अलग है। उनके हिसाब से हम भारत को नहीं समझ सकते। स्थानीय तथा बाहरी दोनों के मिलन से बने संप्रदाय तो और गडमड हैं। माडर्न सायंस के हिसाब से तो बिलकुल ही भारत को नहीं समझ सकते। ताजी गुलामी सायंस की है। उसका इस समय आतंक है। उसके खिलाफ बोलना सबसे बड़ा दंडनीय पाप है, सरकार, बाजार और सायंस के भक्तों के द्वारा भी।

पिछले कई सौ वर्षो से यहाँ के लोग गुलामी की मानसिकता से जी रहे हैं। इस्लाम के संपर्क में आने पर वैचारिक गुलामी कम आई थी। इस्लाम के नाम पर बल प्रयोग के विरुद्ध संगठित-असंगठित विरोध जारी था और समझौते हो रहे थे। भक्ति आंदोलन ने दोनों को प्रभावित किया था हिन्दू और मुसलमान दोनों मुरीद बने थे। ईसाई प्रभाव वाली सत्ता ने मार्डन सायंस एवं पूंजीवादी कंपनी संस्कृति के साथ हमें यह समझाने में सफलता प्राप्त कर ली, कि मूल मापदंड के स्तर पर ही भारतीय सभी बातें गलत हैं। किसी भी बात को समझाने के लिए यूरोपीय एवं ईसाई पैमाने, तौर-तरीके ही सही हैं। उदाहरण के लिए हम काल की चक्रीय गति को महत्व देते हैं, जबकि आधुनिक विज्ञान काल की रेखीय संकल्पना की बात करता है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि भारतीय संस्कृति, उसके विभिन्न घटक एवं उसकी बनावट को जब हम प्रचलित यूरोपीय शिक्षा और उसके पैमाने में समझने की कोशिश करते हैं, तो कुछ समझ में नहीं आता।

भारतीय समाज की विविधता एवं उसके बीच की संगति के सूत्रों की ओर तो कोई ध्यान हीं नहीं देता। 19वीं शताब्दी के बाद हिन्दू धर्म सुधार के लिए अवतारित आंदोलनों ने तो भारतीय संस्कृति का पूर्णतः यूरोपीय संस्करण ही गढ डाला है, जो मुख्यतः शहरी क्षेत्रों में प्रचलित एवं प्रचारित है। इससे समाज एवं संस्कृति की समझ बन पाना असंभव हो जायेगा। किसी भी बात से सहमत-असहमत होने में व्यक्ति की आजादी हो सकती है, किंतु किसीकी संरचना को केवल अपनी सुविधा से समझना संभव नहीं है। तीर्थ को पर्यटन, श्राद्ध को केवल सामाजिक औपचारिकता, विवाह को अनुबंध, देवी-देवता को ईश्वर या उसके प्रतिरूप, एक ईश्वर का सर्वत्र नियंत्रण, धर्म का स्थिर रूप मानकर भारतीय संस्कृति को नहीं समझा जा सकता। आज की परिस्थितियाँ बदल रही हैं। इसका यह अर्थ यह नहीं है, कि परिस्थितियाँ पहले नहीं बदलती थीं और जब बदलती थीं तब आचरणीय धर्म के स्वरूप और कार्यक्रम में भी बदलाव लाना पड़ता था।

इसलिए इस आलेख में उन मूल तत्त्वों को पहचानने का प्रयास किया जा रहा है, जिससे भारतीय संस्कृति की सही समझ बन सके। यह प्रयास चूँकि भारतीय संस्कृति को भारतीय पैमाने में समझने-समझाने का प्रयास है, अतः पाठक यूरोपीय पैमाने में अभिव्यक्ति का आग्रह छोड़ भारतीय पैमाने के अनुसार चिंतन का प्रयास करें तो बात समझ में आने लगेगी।

इसलिए जरूरी है कि –

1.         भारतीय संस्कृति के केवल उत्तम एवं आदर्श रूप को ही मानने का आग्रह न रखें, यह असत्य होगा।

2.         19वीं 20वीं शताब्दी के सुधारवादी आंदोलनों की मान्यताओं की पुनः परीक्षा करें, कि कहीं ये हमें गुमराह तो नहीं कर रहे।

3.         भारतीय संस्कृति भारत के किसी एक भू-भाग या प्रबल जातीय समूह की संस्कृति नहीं हो सकती। अतः बहुसंख्यक समाज को सदैव ध्यान में रखें, केवल राजा, ब्राह्मण या कुलीन लोगों के आचरण को ही नहीं। किसी एक ही धारा को महत्व देने वाले तथा राजनैतिक उद्देश्य से लिखनेवाले विद्वानों से खास तौर पर सावधान रहें –

जैसे – स्वामी दयानंद, राहुल सांकृत्यान, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक, राजाराम मोहन राय, सर्वपल्ली राधा कृष्णन, बाबा साहब भीम राव अंबेड़कर, हेडगेवार, विनोबा भावे, स्वामी करपात्री जी, हनुमान प्रसाद पोद्दार, जयदयाल गोयंदका, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर वगैरह। गांधी जी के मामले में मेरा मत संदिग्ध है। हां, उनका मुखर स्पष्टीकरण न होना संदेह पैदा करता है।

समाज के बारे में इनकी व्याख्याओं के पढ़ने के पहले भारतीय संस्कृति के मूल पाठ को स्वयं पढ़े बिना समझना असंभव है। वह मामला पुस्तक या जमीनी जन जीवन किसीका भी क्यों न हो।

मेरी बातें आपको दुस्साहसी लग सकती हैं, फिर भी मैं पूरी विनम्रता से स्पष्ट करना चाहता हूँ कि आगे जो सूत्र मैं लिखने जा रहा हूँ, वे न तो मेरी व्याख्याएँ हैं, न स्वतंत्र दृष्टि, न किसी गहन शोध का निष्कर्ष। ये बातें समाज द्वारा सहज स्वीकृत बाते हैं, जो अनेक आधुनिक शिक्षा संपन्न लोगों की जानकारी में नहीं है, या समाज भी धीरे-धीरे उसकी सार्थकता, महत्त्व एवं रहस्य को भूल रहा है।

भारतीय संस्कृति को समझने के सूत्र, मूल तरीके –

1.         अनेकता में एकता –

अनेकता – भाषा, वस्त्र, मकान, भोजन, भजन, भूषा, पारिवारिक रिश्ते, उत्तराधिकार, विवाह, श्राद्ध, जाति संप्रदाय, देवी-देवता संबंधी विश्वास, क्षेत्रीय नियमों वाला धर्मशास्त्र, पंचांग।

एकता के सूत्र – वर्ण व्यवस्था स्थापित करने के प्रयास (सफल-असफल), पूर्वजम्न संबंधी विश्वास, कर्म-फल सिद्धांत, तीर्थ एवं तीर्थ यात्रा, अपरिग्रही, भिक्षुक, साधु-संत को आदर-संरक्षण चाहे वह किसी धारा का हो, व्यापक स्तर पर वर्णांतरण, एक स्थान से जाकर दूसरे स्थान पर बसना एवं रोजी-रोटी कमाना, चाहे वह किसी जाति धर्म का हो। गुरु की महत्ता, मुक्ति, निर्वाण जैसी अवस्था पर सबका हक, भोग एवं मोक्ष से संबंध, चार पुरूषार्थों का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, देवता बनाने एवं भूल जाने की सुविधा, मनुष्य की श्रेष्ठता, ध्यान एवं भक्ति मार्ग की श्रेष्ठता, धर्म का दैनिक आचरण की विषयवस्तु होना वगैरह। उपर्युक्त सूत्रों के समानांतर इनके विरोधी एवं भांति फैलाने वाली धाराएँ भी प्रकट होती रहीं, लेकिन आम आदमी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और महानतम आदमी को भी धीरे से नजर अंदाज कर बड़ी लकीर खींच दी। लोगों ने भगवान गौतम बुद्ध को भी नहीं छोड़ा। उन्हें भगवान से मुनि बना दिया, जो छोटा दर्जा है।

मुख्य प्रक्रिया को खंडित करने वाली प्रमुख अफवाहें – भ्रांतियाँ

1.         हिन्दू समाज में सती प्रथा थी।

2.         हिन्दू समाज में विधवा विवाह स्वीकृत नहीं था।

3.         किसी भी जाति का वर्णांतरण नहीं होता।

4.         स्मृतिकार और विशेषकर मनु अंतर्जातीय विवाह के विरोधी थे।

5.         हिन्दू धर्म एक जगह प्रकृति का धर्म है। इसकी मान्यताएँ कालबाह्य होने से फालतू हैं।

6.         वैदिक धर्म ही असली है, बाकि सब बकवास है।

7.         बौद्ध एवं जैन हिन्दूविरोधी धर्म हैं।

ईन सभी भ्रांतियों से भी मुक्त होना होगा।


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