अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व से मुक्त होने की अपील करते हुए अमित शाह ने कुछ समय पहले जो कुछ कहा उसे बड़ी आसानी से उस विवाद के खाके में रख दिया गया, जिसकी आड़ में अंग्रेजी को सुरक्षित रखने की कुटिल नीति चलती रही है: भारतीय भाषाएँ बनाम अंग्रेजी के बदले हिंदीं बनाम अंग्रेजी।
उपर से कहा गया अमित शाह भाषा की राजनीति कर रहे है। अमित शाह को चाहिए कि खुल कर कहे, कि राज्य की नीति, राष्ट्र की अस्मिता और सर्व सामान्य भारतीय की प्रतिभा की रक्षा का यह गंभीर बिन सुलझा सवाल है और मैं भारतीय भाषाओँ की राजनीति कर रहा हूँ।
भाषा और खास करके अंग्रेजी भाषा के सम्बन्ध में तीन प्रश्नो पर इस लेख में विचार किया गया है, तीन प्रश्न का संक्षिप्त विवेचन अगर सही लगे, तो चौथा प्रश्न सहज ही खड़ा होता है। इस पर देश में, सत्ता पक्ष में विचार होना चाहिए:
एक: भाषा का जीवन दृष्टि से, अर्थात संस्कृति और धर्म से क्या सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों मे, क्या भाषा में जीवन सिद्धांत गूँथे हुए नहीं होते हैं? भाषा के प्रश्न पर विरोध के स्थान पर संवाद की भूमिका बनाने के लिए भाषा किस बोध का वहन करती है – इस प्रश्नको देखना जाँचना जरूरी है। इस पर राष्ट्रीय संवाद होना चाहिए।
दो: क्या हमारी अपनी भाषाएँ हमारी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक जरूरत को पूरा करने में असमर्थ हैं और क्या अंग्रेजी वे पूरी करती है?
तीन: जबकि अंग्रेजी भाषा को भारत में लाने पढ़ाने वालों से न तो हमारा बराबरी का रिश्ता था, न वह निर्णय हमारा था। तब अंग्रेजी भाषा कौनसे मन्त्र पढ़ाने के लिए थोपी गयी? इन मंत्रों में से एक – “प्रोग्रेस” के विचार की यहाँ व्याख्या की गयी है।
चार: जीवन के प्रति आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न जिस भारतीय ज्ञान-परंपरा की जड़ों को खोद उखाड़ कर यूरोपीय भौतिक और भोगवादी – ‘सेक्युलर’ – ज्ञान-परम्परा और जीवनदृष्टि को भारत में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से स्थापित किया गया, उससे हुई हमारे आत्म बोध की लुप्ति और अन्य भयावह परिणामों का लेखाजोखा लेने लायक भी हम रहे हैं क्या? हमारी आत्म हीनता को पहचान रहे हैं क्या? इसे केवल प्रश्न की तरह ही इस लेख में छोड़ दिया जा रहा है।
अंग्रेजी के घातक बोझ से देश को मुक्त करने की बात सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश ने भी कही है। दक्षिण पर हिंदी थोपने की राजनीति बता कर आज तक अंग्रेजी से देश को बांधे रखा है। मूल बात अंग्रेजी को अपने अवैध स्थान से हटाने की है। रास्ता जो भी अपनाया जायेगा सही होगा।
हिंदी बनाम अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा बनाम अंग्रेजी की बात से अंग्रेजी भक्तों का पुराना दाँव असफल हो जाने से नया दाँव चलाया जा रहा है “Empowerment” का। कहा ये जाता है, कि अंग्रेजी भाषा सामर्थ्य देती है। साफ़ है, कि ये जिससे समर्थ बने हैं – उस भाषा के सामर्थ्य को कम नहीं होने देना चाहते। कितनों का सामर्थ्य ख़त्म करके कितने कम को समर्थ बनाया है – यह नहीं देख सकते इतनी अंध अंग्रेजी भक्ति इस दलील देने वालों के स्वार्थ का प्रमाण है।
विपरीत हेतु
अंग्रेजी भाषा का विवाद अधिकतर किसी भी प्रकार का सवाल किये बिना इस मान्यता पर चला आ रहा है, कि मानो भारत में अंग्रेजी और समस्त भारतीय भाषाओँ का स्वाभाविक हेतु समान हो। मानो दोनों समान रूप से ज्ञान की भाषाएँ हो। इसी लिए अगर सवाल उठता है, तो यही उठता है कि अपनी भाषा अपनी होने से उसमें प्रतिभा का विकास होता है, परायी भाषा पर हमारा प्रभुत्व न होने के कारण प्रतिभा का दमन होना स्वाभाविक है।
यह सही और सबसे महत्त्व का पक्ष है भाषा विवाद का, लेकिन यह केवल प्रतिभा के दमन का और परायी भाषा पर प्रभुत्व का सवाल नहीं है, प्रतिभा के सम्पूर्ण परिवर्तन का सवाल है। अंग्रेजी आत्मज्ञान की भाषा नहीं है; वह ऊर्ध्वगमन की नहीं, हमें अधोगामी बनाने का, भारत को तमस में ले आने का साधन है। इस दृष्टि से इस सवाल को देखने की, उसकी तल स्पर्शी पड़ताल करने की जरूरत है।
भाषा में कौन बोलता है?
भाषा के विषय में अगर एक बात समझ में आ जाए, कि भाषा की जड़ें केवल भौतिक ही नहीं सांस्कृतिक, नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन में होती है, भाषा जिस विश्वदृष्टि और जीवनदृष्टि से पोषित होती है, उसीके तत्त्वदर्शन, विचार प्रणाली और अवधारणाओं की वह वाहक होती है, उसीको सम्प्रेषित करती है और इसे मुद्दा बनाया जाए, तो भाषा के प्रश्न पर विरोध के स्थान पर संवाद की भूमिका बन सकती है।
अंग्रेजी भाषा हमने स्वेच्छा से, उस भाषा में संग्रहित ज्ञान को जानकर अपने ज्ञान में वृद्धि करने के लिए नहीं सीखी। वह हमें गुलाम बनाये रखने के लिए सिखाई गयी; इस स्पष्ट रूप से घोषित उद्देश्य से – कि एक ऐसा दलाल वर्ग भारतीयों में से पैदा करना है, जो केवल अपनी चमड़ी के वर्ण में भारतीय हो, बाकी जिनकी रूचि और जीवन दृष्टि अंग्रेजों की तरह हो जाए।
इस सत्य के आलोक में समझते देर नहीं लगनी चाहिए, कि भारत में अंग्रेजी भाषा की भूमिका ज्ञान का प्रकाश फ़ैलाने की नहीं, बल्कि पश्चिम की आधुनिकता की भौतिकतावादी, भोगवादी – सेक्युलर – जीवन दृष्टि अर्थात तमस फैलाने की है। भारत में अंग्रेजी आत्मज्ञान की संवाहक भाषा नही है, हमारे लिए वह प्रकाश से अंधकार की तरफ ले जाने वाली विद्या की संवाहक भाषा है, ताकि भारत खुद को भूल जाए और हमेशा के लिए पश्चिम के नियंत्रण में, उन पर निर्भर बना रहे।
जिसकी जीवनदृष्टि अपनाई जाती है, उन्हीं पर निर्भर रहना पड़ता है। इसीको देखते हुए गांधीजी को कहना पड़ा, कि “नकलची बंदरों से राष्ट्र नहीं बनता।” भारतीय भाषाओँ की सत्ता और इन्हें बोलने समझने वाली प्रजा की अस्मिता के विरोधी अंग्रेजी के भक्तों को ज्ञान की भाषा न समझ में आती, न सहन होती।
इसी कारण नेहरूजी को, जिन्हें सपने भी अंग्रेजी में आते थे, गांधीजी समझ में नहीं आए। प्रकाश जिनसे सहन नही होता, अंधेरे में जिनके पंख फड़फड़ाने लगते हैं, उड़ान लेते हैं और अगर प्रकाश में एक बार चले भी गए तो वापस अंधेरे में लौट आते हैं उन्हें क्या कहते हैं? अंग्रेजी भारतीयों को मनुष्य में से चमगादड़ में परिवर्तित करने की भाषा है। “जो अंधकार से आवृत्त है; अधर्म को धर्म मानती है और समस्त चीजों का विकृत, विद्रूप अर्थ करती है – वह तामसिक बुद्धि है”। (भगवद्गीता १८ :२४) इस कथन की सार्थकता हम आगे देखेंगे।
क्रमश:
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